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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रतिरोध के सिनेमा का पांचवा लखनऊ फिल्मोत्सव

भगवान स्वरूप कटियार /प्रतिरोध के सिनेमा के 26-27 अक्टूबर 2012को आयोजित पांचवे लखनऊ फिल्मोत्सव में आप का स्वागत करते हुए हमें गर्व और खुशी की अनुभूति हो रही है हमने यह महसूस किया मंजिल कितनी भी दूर हो और सफर कितना भी कठिन पर चल पड़ा जाय तो चीजें धीरे-धीरे आसान होने लगती हैं। अभी भी जो लोग हमसे नहीं जुड़े हैं वे हमें विस्मय से देखते हैं और पूछते हैं, क्या है प्रतिरोध का सिनेमा? हम उनसे कहते हैं कि आप कृपया हमारे कार्यक्रम में आइये इसका कोई टिकट नहीं है, वहां आप प्रतिरोध के सिनेमा से आप की मुलाकात होगी जिससे आप खुद ही दोस्ती कर लेंगे क्योंकि वह आपका सिनेमा है। गत वर्ष एक दर्शक ने भावावेश में नाराज होते हुए कहा था कि जन सिनेमा का इतना बड़ा अभियान आप अकेले चलाते हैं जबकि जनता इससे जुड़ने के लिए विकल है। हमने उन्हें अपने अखबारी प्रचार और जन सम्पर्क की गतिविधियों की जनकारी दी तब जाकर वे शान्त हुए।

सच्चाई यही है कि जन सहयोग और दर्शकों के उत्साहवर्धन से ही हम लखनऊ फिमोत्सव की श्रंखला में यह पांचवी कड़ी जोड़ पा रहे है और इसका लगातार आगे बढ़ते रहना भी सुधी दर्शकों के सहयोग पर निर्भर है। इस फिल्मोत्सव में दिखाई जाने वाली फिल्मों की खास बात यह होती है कि उसमें पिटी-पिटाई रूमानियत नहीं होती है। उसमें मिलेगी आपको मानवीय संवेदना, जीवंत संकल्पना, आम आदमी का जीवन संघर्ष, व्यवस्था की विसंगतियां और विद्रूपताएं और प्रबल जनपक्षधरता। संभव है ये फिल्में आपके मन में यथास्थिति के प्रति आक्रोश भी पैदा करतीं हैं जो स्वाभाविक और जरूरी है और यही हमारा मकसद भी है। सच में यह हमारा अपना सिनेमा है जिसमें भले खुरदरा ही सही पर अपना चेहरा दिखाई देता है। आखिर कब तक समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा गुमनामी में जीता रहेगा ? इस बहिष्कृत विशाल जनमानस को नये ढंग से संगठित करने की जरूरत है। प्रतिरोध का यह सिनेमा उसी दिशा में एक छोटी सी कोशिश है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद अविकसित और विकासशील देशों पर जो विनाशकारी विकास मॉडल थोपा रहा है जिससे बड़े पैमाने पर एक समुदाय को विस्थापन, बेरोजगारी, अजीविका से बेदखली तथा पर्यावरणीय क्षति का सामना करना पड़ रहा है। जंगल किसी के लिए मुनाफा कमाने का जरिया हो सकता है पर आदिवासियों के लिए जंगल तो उनका घर है। हमारा प्रतिरोध का सिनेमा इन कड़वी सच्चाइयों को उदघाटित करता है। डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों का इस दिशा में क्रान्तिकारी हस्तक्षेप हमारे समय की क्रूर बिडम्बना को रेखांकित करता है । सिनेमा ने हमें जिस तरह से सच्चाई और यथार्थ को एक नये ढंग से खोजने, जांचने और परखने की दृष्टि विकसित की है वह बेहद महत्वपूर्ण है । हर टेक्नालॉजी का एक मानवीय चेहरा भी होता है और प्रतिरोध का सिनेमा उसी का एक प्रतिबिम्ब है। बेशक सिनेमा बीसवीं सदी का प्रातिनिधिक कलारूप है जिसने महज सौ वर्षों में सभी देशों में कालजयी दस्तावेजी रचनायें(फिल्में) दुनिया को दीं। टर्की और ईरानी सिनेमा पूरी कलात्मकता के साथ सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों में हस्तक्षेप कर रहा है।

ईरान में जफर पनाही जनता का सिनेमा बनाने के लिए जेल जाने की सजाएं भुगतते हैं तो हिन्दुस्तान में आनन्द पटवर्धन “जय भीम कामरेड“ जैसी सशक्त डाक्यूमेन्ट्री के जरिये व्यावसायिक सिनेमा को चुनौती देते हैं। उनका गुरिल्ला सिनेमा बाकायदे मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा से ऑख मिला रहा है। वैश्विक स्तर पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्ममेकर्स की एक ऐसी नयी पौध तैयार हो रही है जो सिनेमेटिक जर्नलिज्म की शक्ल ले रही है। डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों ने दुनिया भर में चल रही जल जंगल जमीन की अंधी लूट के खिलाफ क्रान्तिकारी हस्तक्षेप किया है।

लखनऊ फिल्म सोसाइटी और जन संकृति मंच द्वारा संयुक्त रूप से विगत चार सालों से आयोजित किये जा रहे प्रतिरोध के सिनेमा के लखनऊ फिल्मोत्सव ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है। जन सरोकारों और प्रतिरोध के सिनेमा की धारदार थीम के साथ इस अल्प अवधि में लखनऊ के दर्शकों के बीच एक बेहद लोकप्रियता के साथ वह अपनी नयी जमीन बना रहा है। यह। पांचवा लखनऊ फिल्मोत्सव इसी सार्थक पहल का सिलसिला है जिसकी ताकत सिर्फ और सिर्फ इसके दर्शक है। गत चार वर्षों से अपने लगातार आयोजन से इस फिल्मोत्सव ने न सिर्फ वैकल्पिक सिनेमा की पृष्ठभूमि रची बल्कि यह भी साबित किया कि जनता अपने समाज के बुनियादी बदलाव का संघर्ष कैमरे के जरिये भी लड़ रही है। बदलाव के लड़ाई लड़ रहे जॉबाज फिल्मकारों ने अब कलम और छोटे कैमरे को एक साथ अपने धारदार हथियारों के बतौर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। आनन्द पटवर्धन जैसे मशहूर फिल्मकार इसे गुरिल्ला सिनेमा कहते हैं जो सरकारों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सीधे हस्तक्षेप करता है। वे देश के दूर-दराज इलाकों में खास कर आदिवासी क्षेत्रों में अन्याय और शोषण की घट रही निर्मम सच्चाइयों को पर्दे पर दिखा कर व्यवस्था को बेनकाब करने के साथ-साथ जनता के संघर्ष को भी सामने लाते हैं। इसी से लखनऊ फिल्मोत्सव ने प्रगतिशील और बदलाव की तड़प रखने वाले दर्शकों के बीच अपनी जरूरत को बखूबी स्थापित किया है और इसी से अनुप्रेरित होकर साझी संस्कृति के शहर लखनऊ में फिल्मोत्सवों की संस्कृति का सिलसिला भी शुरू हुआ जो सांस्कृतिक सृजन के लिहाज से एक अच्छा संकेत है।

सिनेमा जैसे सशक्त और लोकप्रिय माध्यम पर बाजारवाद की शक्तियां किस तरह हावी हैं यह किसी से छिपा नहीं है। व्यावसायिक फार्मूला सिनेमा में जनता का विशाद, दुख, दर्द और संघर्ष गायब है। फार्मूला सिनेमा की संस्कृति बेशक हमारी संस्कृति यानि आम जन की संस्कृति नहीं हो सकती। आज दर्शक विकल्प चाहता है। वह ऐसी फिल्में देखना चाहता है जो न सिर्फ उसका स्वस्थ मनोरंजन करे बल्कि उसे गम्भीर, संवेदनशील, जागरूक और जुझारू बनाये। दर्शकों की इसी इच्छा-आकांक्षा तथा एक बेहतर मानव समाज बनाने के अदम्य संघर्ष ने प्रतिरोध का सिनेमा या जन सिनेमा के आन्दोलन को जन्म दिया है जिसका शानदार प्रतिनिधित्व यह लखनऊ फिल्मोत्सव गत चार वर्षों से कर रहा है।

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पाचवां लखनऊ फिल्मोत्सव आयोजित किया गया है। यह पांचवां लखनऊ फिल्मोत्सव अपने जाने-माने मकबूल फिल्म अभिनेता एवं रंगकर्मी ए के हंगल (अवतार कृष्ण हंगल ) की स्मृति को समर्पित कर रहे हैं जिनका अभी हाल ही में ९८साल की उम्र में निधन हुआ है और जिन्होंने हमें अभिनय कला की एक शानदार विरासत सौंपी है। उदघाटन सत्र के मुख्य अतिथि मशहूर गान्धीवादी मानवाधिकार सामाजिक कार्यकर्ता (सोसल एक्टविस्ट) जो छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की जल जंगल जमीन की लड़ाई के चश्मदीद गवाह के साथ-साथ स्वयं उसमें भागीदार भी हैं। इसी से सम्बन्धित हाल ही में छत्तीसगढ़ में दरजनों निर्दोष नौजवानों की पुलिस द्वारा माओवादी कह कर हत्या कर दी गयी जिस पर तत्कालीन केन्द्रीय ग्रहमंत्री चिदम्बरम साहब ने पुलिस की पीठ थपथपाई और बाद में घटना की सच्चाई सामने आने पर खेद भी व्यक्त किया, देवरंजन सारंगी की वीडियो रिपोर्ट “किलिंग ऑफ वासुगोडा भी दिखाई जायेगी।

भारतीय सिनेमा ने अपने सौ साल का सफर पूरा किया। उसके प्रति यह महोत्सव एक छोटी सी ट्रिब्यूट है जिसके उपलक्ष में हम अपनी महान अभिनेत्री जोहरा सेहगल जिन्होंने अपनी जिन्दगी के सौ साल का शानदार सफर पूरा किया है और भारतीय सिनेमा का जीवंत इतिहास हैं पर अनन्त रैना एक डाकूमेन्ट्री दिखा रहे हैं। और पार्टीशन की त्रासदी पर एम. एस. सत्थू की मशहूर फिल्म “गर्म हवा“ हिन्दी फीचर फिल्म भी दिख रहे हैं। अगले दिन सत्यजित रे द्वार लिखित एवं निर्देशित उनकी मशहूर क्लासिक फिल्म “पाथेर पंचाली’ दिखा रहे हैं। हम पैनल डिसकसन तथा सवाल जबाब के जरिये दर्शकों को यह भी बताने की कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय सिनेमा अपने सौ साल के सफर में जन सरोकारों के साथ कहां खड़ा है? इसमें मशहूर फिल्म समीक्षक और फिल्मों पर गम्भीर लेखन करने वाले जवरीमल्ल पारख प्रमुख वक्ताओं में होंगे। महिलाओं के संघर्ष, मानवाधिकारों के हनन और दमन जैसे समाज के क्रूर पक्षों को डॉकूमेन्ट्री फिल्मों के जरिये दिखायेंगे। हम जने-माने मशहूर फिल्मकार नकुल स्वाने की डाक्यूमेन्ट्री “इज्जत नगरी की असभ्य बेटियॉ“ देखेंगे और उनकी बातचीत भी सुनेगे। वरिष्ठ लेखक एवं आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी प्रगतिशील लेखन के ७५ साल के उपलक्ष्य में प्रगतिशील लेखन आन्दोलन पर वक्तव्य देंगे। हिरावल की टीम हर साल की भांति इस बार भी अपने लोकरंग का जौहर दिखाने जा रही है।




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सम्पादक

डॉ. लीना