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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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रिश्तों का अजायबघर है हिन्दी फिल्म 'दे दे प्यार दे'

संतोष कुमार / भारतीय परंपरा से इतर ब्राह्मण की परंपरा में रिश्तों के कोई मायने नहीं होते, यह हमें कामसूत्र और वेद-पुराण के अध्ययन से ज्ञात होता है। इसी भावना से प्रेरित हो ब्राह्मण लेखक अपनी कहानी गढ़ता है। कामसूत्री परंपरा(जारमय) के कड़ी के रूप में 'दे दे प्यार दे' फिल्म तिरोहित हुई है।

कहानी एक पचास वर्षीय नायक अजय देवगन यानी आशीष से शुरू होती है। नायिका एक 26 वर्षीय युवती हैं, इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के मयखाने में वेटर है, नाम है आयशा। आशीष अमीर है। उन के रूम पर पार्टी होती है, सब शराब के नशे में मस्ती करते हैं। उन के एक मित्र की अगले दिन शादी है लेकिन वह उस रात आयशा को गोदी में बिठा कर कुछ खुराफात करने वाला ही होता है कि उक्त युवक की मंगेत्तर आ जाती है; और लड़ाई शुरू हो जाती है। लेकिन दोनों नायक-नायिका बहला-फुसलाकर दोनों की शादी करा देते हैं। आयशा नशे में नायक के घर के टब में गिर जाती है। सवेरे होश में आने पर आयशा बड़े ही बेहयाई से कहती है -... मौका छोड़ दिया तुमने, होश में मिलने वाली हूँ नहीं! कहानी आगे बढ़ती है, आशीष के मनोवैज्ञानिक मित्र रिश्तों की जटिलताओं पर उसे सजेस्ट भी करता है लेकिन ठरकी आशीष बुढौती में कहाँ सुनने वाला है। यह सच है जार-जारणी हजारों झूठ का सहारा लेते हैं। ब्राह्मणी परंपरा में इस झूठ को 'कल्प सृष्टी' का नाम तक दे देते हैं। आयशा अपने बुढ्ढे प्रेमी से झूठ बोलती है कि उसका कोई दूसरा प्रेमी नहीं है लेकिन हकीकत सामने आ ही जाती है। अतंत: हम उम्र प्रेमी के सामने आयशा आशीष को चुबन कर लेती है। अब, यदि व्यवहारिक जीवन में यह सीन हो जाता तो क्या होता जाहिर है उन दोनों की जान पर बन आती। आए दिन दैनिक अखबार ऐसी ही घटनाओं से पटे होते हैं।

हद तो तब हो जाती है जब नायक यानी आशीष उस प्रेमी को प्रवचन देने लगता है - 'मुझे यूज कर रही है, जैसे तुझे किया।' जार शिरोमणि आशीष बाबा उस लड़के को बहका कर घर से बाहर कर देते हैं। ऐसे ही हमारे देश में बाबाओं ने खुराफात मचा रखा है। कई बाबा जारकर्म और बलात्कार के अपराध में सलाखों के पीछे हैं। आयशा विवाह के लिए दबाव बनाती है लेकिन आशीष उस को टरकाना चाहता है। यहाँ तक कहता है कि - 'I accept, I am not a good father.' 

यह ठीक है नायिका उक्त नायक के साथ वैवाहिक जीवन जीना चाहती है। लेकिन यह रिश्ता झूठ के पुलिन्दों पर बना हुआ है क्योंकि जार आशीष आयशा को फांसकर कर भोगने के लिए झूठ का मौन व्रत रख चुका है कि वह तलाक शुदा है।

आयशा, आशीष के जारकर्म में इस कदर लिप्त हो चुकी है कि खुद को उस से अलग नहीं कर सकती और फिर कहती है - '... ना छूटने वाली आदत बना लो' यानी रखैल ही बना लो। 

अंतत: हार कर नायक आशीष अपने परिवार से मिलाने आयशा को लेकर जाता है। आशीष की बेटी इशिका उसकी प्रेमिका आयशा की उम्र की है, दोनों को देखते ही भड़क जाती है। खैर, आशीष की पत्नी मंजू (तब्बू) मामला शांत कराती है। दोनों अंदर आतें हैं उस के उपरांत एक और बी. के. नामक जार शिरोमणि का पदार्पण होता है जो शायद मंजू का कोई है। आशीष उन को बाहर जाने के लिए कहता है लेकिन उस की बेटी इशिका जवाब में कहती है-'यह कोई और नहीं हैं।'

बी. के. कसीदे गढ़ता हुआ मंजू से कहता है - ' seriously मंजू जी आप ने मुझे एक बेहतर इंसान बना दिया।' इनकी कामसूत्री परंपरा में सचमुच विवाहेत्तर संबंधों से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। यूँ ही नहीं हिमांचल के पिछले दिनों एक राजनीतिक संगठन के पदाधिकारी जिसमें जारणी ठाकुरानी थी और जार ब्राह्मण दोनों ने अपने व्यक्तित्व का निर्माण करते हुए एक वीडियो वायरल किया था।

यह सच है कि रिश्ते झूठ की बुनियाद पर कायम नहीं होते। लेकिन आशीष नायिका को विश्वास दिलाता है कि तुम को पाने के लिए - '... हर झूठ दुबारा बोल लूँगा।' 

  इस झूठ में नायक की बेटी इशिका भी माहिर है क्योंकि अपने होने वाले पति के परिवार वालों से कह चुकी है कि अब उस के पापा नहीं रहे। लड़के वाले आने ही वाले होते हैं, ऐसे में पूरा परिवार कन्फ्यूज है कि आशीष को किस रिश्ते के अंतर्गत इंटरड्यूस कराएंगे?

बी. के. मंजू का भाई बनाने के लिए सुझाव देता है क्योंकि दोनों हम उम्र हैं। अगले दिन रक्षा बंधन पर इस झूठ को सही साबित करने के लिए आशीष राखी भी बंधवा लेता है।  वरिष्ठ आलोचक कैलाश दहिया जी मानते हैं कि - जार से सुरक्षा के लिए ही रक्षा बंधन का त्यौहार मनाया जाता है, कि भविष्य में यदि बहन पर कोई जार आँख उठा कर देखे तो उस की आँखें नोच सके। लेकिन यहाँ क्या हो रहा है पति-पत्नी को भाई-बहन बनाया जा रहा है! यह  रक्षा बंधन का अपमान ही नहीं बल्कि भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को भी कलंकित किया जा रहा है। आखिर, कला के नाम पर समाज के सम्मुख जारकर्म का सब्जबाग क्यों परोसा जा रहा है? 

क्या यह सच नहीं है कि द्विज लेखक रस, छंद, अलंकार के नाम पर जारकर्म का बाजार सजाते हैं? जी हाँ, बिल्कुल सही है क्योंकि उक्त फिल्म में यही दिखाया जा रहा है।   यह सही है कि सारे द्विज स्त्री-पुरुष बुरे नहीं होते उक्त फिल्म में नायक की बेटी इशिका अच्छी स्त्री के रूप में उभरी है, जब एकांत में आशीष और आयशा के अश्लील हरकतों को देख लेती है तो तुरंत दोनों के सामान बाहर फेकते हुए चले जाने को कहती है। यह दृश्य बहुत ही गंभीर है क्योंकि कोई भी बेटी अपने बाप को अपनी ही हम उम्र की लड़की के साथ रोमांस करते हुए देख कर आग बबूला हो सकती है। अंततः इशिका झूठ की बुनियाद को हिलाते हुए आशीष को अपने बाप के रूप में स्वीकार करती है, और अपने मंगेत्तर को बताती है कि आशीष उस का बाप है। अपनी मां के साथ भाई बनने के बनावटी रिश्ते से भी पर्दा हटाती है। लेकिन जारकर्म तो जारी रखना है इसलिए अपने जार पति को जारणी मंजू जस्टीफाई करती हुई निर्दोष साबित करती है और सारा दोष खुद की बेटी पर मढ़ती है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जहाँ झूठ और फरेब के साथ उठना-बैठना हो वहाँ उन के बच्चे भी इस गिरफ्त से नहीं बच सकते उन के अंदर भी यह व्याधियां आ धमकती हैं। एक बात और है कि ऐसे परिवार से कौन इज्ज़तदार परिवार रिश्ता जोड़ना चाहेगा? 

अंत में मुख्य बात तब घटित होती है जब आशीष अपनी पत्नी के साथ रात बिताता है यानी संबंध स्थापित करता है। मंजू इस बात को आयशा से न बताने के लिए कहती है, यानी फिर झूठ। लेकिन आशीष आयशा से सारी बात कह देता है। दोनों में नोक-झोंक होती है। तभी मंजू आ जाती है फिर दोनों में बहस होने लगती है। कुछ बातें नीचे उद्धरण के रूप में दे रहा हूँ - 

मंजू- ऐसा नहीं है पहली बार(संभोग) हुआ है, हजारों बार हुआ है यह सब जानते हैं। 

आयशा - ... मेरी जगह होती और खुद चीट किया हुआ होता we the another woman तो खुद को यही बोलती क्या? 

मंजू- hidden cheat टेक्निकली you another woman I am his wife डिवोर्स नहीं हुआ है। 

 उक्त अंतिम वाक्य में नायिका आयशा का सारा घमंड रफ्फू चक्कर हो जाता है। क्योंकि ब्रह्म विवाह में तलाक नाम की चीज नहीं है, वहाँ तो सात जन्मों का रजिस्ट्रेशन होता है। दूसरी पत्नी रखैल या वेश्या होती है। वैसे भी ब्राह्मण राज में पटरानी रखने का रिवाज़ सदियों से व्याप्त है। 

आयशा कहती है - 'I feel मैं तुम्हारी जिंदगी का एक छोटा सा किस्सा हूँ, जिसे कहानी होने की गलत फ़हमी हो गई थी।' 

नायिका को पता होना चाहिए कि जार- जारणी की एक-दूसरे की नज़र में दोयम दर्जे की ही हैसियत होती है।

देश में जार शिरोमणियाँ भी बहुत हैं जो लोगों को नैतिकता का प्रवचन दिया करती हैं। कथा में कृष्ण के लीलाओं का बखान बघारती रहती हैं। ऐसे में ही मंजू आशीष को प्रवचन देती हुई कहती है कि - 'तुझे पता है ना वो दस साल के बाद भी जवान रहेगी और तू कुछ करने के लायक नहीं रहेगा और तूझे चीट करने के अलावा उस के पास कोई आप्शन नहीं रहेगा।' जाना जाए यह 'चीट' क्या शब्द है। ब्राह्मण संस्कृति में जारकर्म का आधुनतम नाम है। भारतीय संविधान में आप्शन ही नहीं बल्कि मुकम्मिल सामाधान है 'तलाक' नाम से लेकिन ब्राह्मणों ने उक्त विधान को पैरालाइस कर दिया है। यही नहीं स्त्री स्वतंत्रता की एक पहेली गढ़ते हुए #article 497 को खत्म करते हुए तलाक के विधान की हत्या कर दी गई है। यह जारकर्म के पक्ष में लिया गया मानव इतिहास का सबसे गलत फैसला था। इसीलिए डॉ धर्मवीर पूछते हैं - ' कौन ऐसा द्विज कवि होगा जो रखैल शास्त्र में विश्वास न रखता हो? इन का सामान्य मनुष्य भी ग्यारह - ग्यारह औरतों को बर्बाद करके छोड़ सकता है, विशेष कृष्णों का तो क्या कहा जाए? 

 

इधर, 10 अगस्त, 2019 के 'अमर उजाला' के पृष्ठ दो  पर अभिनेत्री तब्बू का साक्षात्कार छपा है, जिसमें इन्होंने नारी सशक्तिकरण के पक्ष में बड़े ही गर्व से मंजू के किरदार को सराहा है। साक्षात्कार कुछ इस तरह है...

“पत्रकार- 'दे दे प्यार दे' में आप अपने पति को किसी दूसरी प्रेमिका के साथ जाने देने की हिम्मत दिखाने वाले किरदार मंजू के जरिए क्या कहना चाहती हैं?

तब्बू - मंजू की किरदार की तमाम खासियतें हैं। ऐसा पहले भी हुआ होगा किसी फिल्म में, लेकिन आज के दौर में मैंने किसी पूर्व पत्नी की सोच ऐसी नहीं देखी। मैं खुद भी इसमें यकीन करती हूँ और यह बात दर्शकों तक पहुँच रही है, यह सोचना ही मेरे लिए दिलचस्प था। मुझे लव रंजन की यह बात अच्छी लगी। चीजों को पकड़ कर आप उनके गुलाम बन जाते हैं। खुद को आजाद रखना और अपने किसी बंधन से दूसरों को आजाद करना यही मंजू की ताकत है। फिल्म में मंजू का एक संवाद है, 'जब आप अपने माँ-बाप की संपत्ति के वारिस होते हैं, तो उन के टूटे रिश्तों की विरासत को संभालना भी उन का दायित्व होता है।' यही बात मंजू के किरदार के लिए सबसे अहम बात है।“

इसी बात पर अरुण आजीवक अपने फेसबुक वाल पर 11 अगस्त, 2019 को टिप्पणी करते हुए लिखा है कि -"द्विज नारियों के नारी सशक्तिकरण का आन्दोलन देख लीजिए। प्रश्न और उस का उत्तर दोनों जारकर्म के पक्ष और समर्थन के हैं। द्विज अपनी जारकर्म की परम्परा को न सिर्फ जीते हैं बल्कि उसे आगे बढ़ाने में भी लगे रहते हैं। द्विज जार परम्परा का विकास यहां तक हो गया है कि अब पत्नी खुद अपने पति को उस की प्रेमिका से मिलवाने जाती है। यानी पत्नी को अपने पति के दूसरी महिला से सम्बन्ध पर कोई आपत्ति नहीं, उल्टा वह पत्नी इस से खुश रहती है। बड़ी बात यह है कि अपने पति के दूसरी महिला के साथ सम्बन्ध को जानते हुए भी द्विज पत्नी अपने उस पति के साथ सोती है। आजीवक विचारधारा में ऐसी पत्नी को वेश्या कहा जाता है।"

जो बात अहम है वह यह कि आजादी के नाम पर खुल्म- खुला जारकर्म की छुट ही जारणी मंजू के किरदार को सुंदर नहीं बल्कि असुंदर बना देती है। हर जार चाहता है कि उस को अपराधी न समझा जाए, हर जारणी चाहती है कि उसके कृत्य को आदर्श माना जाए, वह इसे अपने स्वाधीनता से जोड़कर देखते हैं। आखिर कैसे किसी स्त्री को धारा 497 से मुक्ति मिली है? मनुष्य विकसित हो कर व्यवस्थित होता है, लेकिन वह कौन हैं जो पशुओं की माफिक खुली छूट चाहते हैं?

स्त्री-मुक्ति के नेतृत्व में खामियाँ हैं, क्योंकि अच्छी स्त्री अभी नेतृत्व में नहीं है। होना यह चाहिए था कि विवाहेत्तर सेक्स की छूट न पुरुष को मिले न स्त्री को। घर की अवधारणा में यह अपराध है। लेकिन नहीं, घर बिगाड़ना था स्त्री काहे पीछे रहती, उस ने पुरुष के बराबर आकर बिगाड़ने का मुकाम हासिल कर लिया।   

सच में, इस द्विज परंपरा के सड़ांध पर मैं नहीं लिखना चाहता था लेकिन जारकर्म का प्रभाव दलित कौम के भीतर भी घुसपैठ कर चुका है। ऐसे ही कृत्यों के कारण कौम जर्जर होती जा रही है। हुआ यह कि दैनिक अखबार हिन्दुस्तान,गोरखपुर, रविवारीय अंक, 11 अगस्त 2019 के पृष्ठ-5 पर खबर छपी है कि 'सहजनवां में घर में घुसे युवक की पीट कर हत्या' घटना में सुनील कन्नौजिया पड़ोस के गांव में उस स्त्री के घर में गया था जिस का पति कमाने के लिए मुंबई गया हुआ था। स्त्री के घर के लोग उस को देख लेतें हैं और वहीं पीट-पीट कर अधमरा कर देते हैं। अंततः सुनील की मौत हो जाती है। हत्या करना अपराध है, लेकिन जारकर्म करना कानूनी रूप से जायज फिर इन जार डकैतों से लोग अपने घर और नारी की रक्षा कैसे करें? वैसे भी जारकर्म के अपराध में मुख्यतः स्त्री ही अपराधी होती है और बलात्कार के अपराध में मुख्यतः पुरुष। लेकिन उक्त घटना में एक जार की हत्या हो जाती है और जारणी निर्दोष होकर बच जाती है। हद तो तब हो जाती है जब जारणी अपने को न्यायिक सिद्ध करने के लिए अपने ससुर और देवर पर जार सुनील के पक्ष में जाकर हत्या, मारपीट का एफआईआर दर्ज कराती है। फिर, उस पति पर क्या बीतेगी जो उन को पालने के लिए दूर देश गया हुआ है? ऐसे में वह क्योंकर कमाएगा, किस के लिए कमाएगा? इस अपराध से तो दो घर बर्बाद हुए। सुनील अपने माँ-बाप का इकलौता लड़का था। विवाहित था, एक बेटी भी थी लेकिन कुछ सालों से पत्नी से दूरी बनाए हुए था। जाहिर है, इस के जारत्व से आजीज हो गई होगी लेकिन ब्रह्म-विवाह कानून विधान ने उनके घर को तहस-नहस कर दिया।

 मंजू बड़ी बेहयाई से एक तर्क गढ़ती है कि - ' क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? तो, एक बार सोने से खो कैसे जाता है? इस तर्क में जारकर्म को प्यार के नाम से जस्टीफाई किया जा रहा है। मेरा यही कहना है - एक बार सोओ या हजार बार इससे प्यार नहीं बल्कि जारकर्म का बाजार सजता है और जारकर्म में केवल हत्या या आत्म हत्या होती है। उक्त खबर को ध्यान पढ़ा जा सकता है।

यह अच्छा होता बलात्कारी और जारकर्मी पतियों के खिलाफ स्त्रियां न्यायालय में जातीं, उसी दिन असली स्त्री स्वतंत्रता का आगाज होता।

 संतोष कुमार

रिसर्च स्कॉलर 

गोरखपुर विश्वविद्यालय 

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सम्पादक

डॉ. लीना