.... ये वही मीडिया संस्थान थे, जिन्होंने डब्लूएचओ द्वारा दी गई मानवाधिकारों का ख्याल रखने की सलाह को प्रकाशित करने से परहेज किया था...
प्रमोद रंजन/ फरवरी, 2020 में जब अखबारों में दुनिया में एक नए वायरस के फैलने की सूचना आने लगी और मेरे सहकर्मियों के बीच इसकी चर्चा होने लगी तो मैंने इन खबरों के संबंध में प्रमाणिक सूचनाएं पाने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन की वेबसाइट का रूख किया था।
यह वह समय था, जब हम मज़ाक-मज़ाक में कहा करते थे कि शायद आने वाले समय में हाथ न मिलाकर, एक दूसरे को नमस्कार करना होगा। उस समय कौन जानता था कि जल्दी ही वह दिन आने वाला है, जब ऐसे नियम बना दिए जाएंगे, जिसमें मास्क नहीं पहनने पर दंडित किए जाने का प्रावधान होगा।
उस समय तक कार्यालय में उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक्स पंच मशीन लगाए जाने का जिक्र आने पर हम इसके औचित्य और दुष्परिणामों पर चर्चा किया करते थे। उस समय कौन जानता था कि मोबाइल फोनों में एक जासूस-एप रखना आवश्यक कर दिया जाएगा और, बायोमैट्रिक्स मशीन तो कौन कहे, हम हर प्रकार के सर्विलांस के लिए राजी हो जाएंगे।
मेरे मित्रों का विशाल संसार हिंदी पट्टी की पत्रकारिता, समाज-कर्म और अकादमियों में फैला है, लेकिन इनमें एकाध को छोड़कर कोई भी नहीं है, जो इनके दूरगामी प्रभावों को लेकर चिंतित हो।
एक शहर में चेहरे की पहचान करने वाली कैमरे सड़कों पर लगा दिए गए हैं, नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए कैमरे लगे ड्रोनों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
हमारी हिंदी पट्टी में सवाल उठाने वालों की इतनी कमी क्यों है? यह कमी की ध्वनि हमारी भाषा में भी झलकती है। इसमें ऐसे शब्दों का टोटा है, जो इस सर्वसत्तावाद सर्विलांस के खतरे को ठीक से व्यक्त कर सके। क्या इसकी जड़ें हमारे किसी छुपे हुए संस्कार में है?
एक बीमारी आई, जिसे महामारी कहा गया और हम पर कथित “विशेषज्ञता” और “वैज्ञानिक-तथ्यों” की बमबारी की जाने लगी। हम घबराकर घरों में दुबक गए, लेकिन क्या हमें इस बम-बारी के स्रोत और उद्देश्यों की ओर नहीं देखना चाहिए था? हमें बताया गया कि दुनिया भर में यही हो रहा है। लेकिन इंटरनेट के जमाने में यह जानना हमारे लिए संभव नहीं था कि दुनिया में कहीं भी अपने नागरिकों पर ऐसा कहर नहीं ढाया जा रहा है।
भारत के विश्वगुरू होने का सबसे अधिक दावा हिंदी पट्टी से उठता है, जिसके आधार हममें से कुछ वेदों में तो कुछ बौद्ध दर्शन में तलाशते हैं। हमने यह क्यों नहीं कहा कि हमें दूसरों का पिछलग्गू नहीं बनना है। हमें कहा गया कि यह बीमारी जानलेवा है, और हमने मान लिया। हम यह देखने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे कि इसी हिंदी पट्टी में टीबी, चमकी बुखार, न्यूमोनिया, मलेरिया आदि से मरने वालों की संख्या कितनी है। एक अनुमान के मुताबिक इन बीमारियों से सिर्फ हिंदी पट्टी में हर साल 5 से 7 लाख लोग मरते हैं।
हमें बताया गया कि यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है, लेकिन हम यह क्यों नहीं देख रहे कि इसका आर (R) फैक्टर (संक्रमण-दर) टीबी से पांच गुणा कम है। हमें कहा गया कि इससे बहुत सारे लोग मर रहे हैं। हमने यह देखने की कोशिश क्यों नहीं की कि इन्हीं कुछ महीनों में हमारे आसपास कितने लोग कोविड से मरे और कितने लोग लॉक-डाउन से?
हमें कहा गया कि यह खतरनाक है, क्योंकि यह ‘वायरस’ से होता है और लाइलाज है। हमने क्यों यह सवाल नहीं उठाया कि हिंदी पट्टी के सैकड़ों गरीब बच्चों को मारने वाला चमकी बुखार (एईएस) एवं जापानी इंसेफ्लाइटिस (जेई) भी वायरस से होता है और यह भी लाइलाज है। कोविड-19 की अधिकतम मृत्यु दर (CFR) हमें 3 प्रतिशत से कम बताई गई, जबकि इन बुखारों में मृत्यु दर 30 प्रतिशत से भी अधिक है। हमने क्यों नहीं पूछा कि गरीबों को मारने वाली बीमारियों से संबंधित आंकड़ों को छुपाने के जो आरोप भारत सरकार पर रहे हैं, उनका सच क्या है?
हम यह सवाल क्यों नहीं उठा रहे कि न्यूमोनिया, इंफ्लुएंजा और हृदय-घात आदि से मरने वालों की संख्या को क्यों कोविड-19 की मौतों में जोड़ा जा रहा है? इन भ्रामक आंकड़ों से किनके खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा है?
हमें कहा जा रहा है कि यह विश्व स्वास्थ संगठन के दिशानिर्देर्शों पर हो रहा है। तो हम उनसे यह क्यों नहीं पूछ रहे कि इस संगठन की विश्वसनीयता कितनी है? क्या यह झूठ है कि इस संगठन पर बिग फर्मा के हितों का ख्याल रखने के आरोप हैं?
इस संबंध में जर्मनी में शोधरत मेरे एक मित्र रेयाज-उल-हक एक मेल लिखा, जो लिखा है, उसे यहां दे देना प्रासंगिक होगा। उन्होंने मेरा ध्यान इस ओर दिलाया है कि “गरीब देशों में होने वाली इन बीमारियों की विश्व स्वास्थ संगठन आदि द्वारा की जाने वाली उपेक्षा की वजह यह है कि पश्चिमी देशों ने इन बीमारियों और उनकी वजहों पर कमोबेश क़ाबू पा लिया है। साफ़ पानी की आपूर्ति, पोषण और पर्याप्त भोजन और स्वस्थ्य जीवन शैली, मज़बूत स्वास्थ्य सेवाएँ और इलाज की सुविधा से युक्त ये देश अब हैज़ा, टीबी आदि से परेशान नहीं होते। मलेरिया और यहाँ तक कि एड्स भी अब कोई बड़ी मुश्किल नहीं है इन देशों के लिए। लेकिन वे उन बीमारियों से डरते हैं जिन पर इनकी कोई पकड़ नहीं है। इसलिए ये संक्रामक सार्स और कोरोना से डर जाते हैं, क्योंकि अभी इनके पास उसका कोई उपाय नहीं है। चूंकि इन पश्चिमी देशों का दुनिया में दबदबा है, इनकी प्राथमिकताएँ सब लोगों की प्राथमिकताएँ बन जाती हैं। इसलिए अब कोरोना सबके लिए ख़तरा है। एक बार इसका टीका और इलाज इनको मिल जाने दीजिए, फिर कोरोना से कौन मरता और जीता है दुनिया में, इनको इसकी कोई परवाह भी नहीं होगी। ..आज यह यह यूरोप और अमेरिका की बीमारी है। जब तक यह चीन तक सीमित थी, इनको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था।”
हम उनसे क्यों नहीं पूछ रहे कि इन यूरोपीय देशों की समस्याओं को आपने हमारे सिर पर क्यों थोप दिया?
इसके अलावा, हम उनसे यह भी तो पूछ सकते हैं कि आप सोशल-मीडिया पर कथित तौर पर कथित ‘इंफोडेमिक’ फैलाने वालों पर कार्रवाई कर रहे हैं, लेकिन उन मीडिया संस्थानों पर क्यों कोई कार्रवाई नहीं कर रहे, जो विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा कही गई बातों को चुनिंदा रूप में प्रकाशित करते हैं?
पिछले चार महीने से डबल्यू.एच.ओ. कोविड-19 के संबंध में रोजना प्रेस बीफिंग करता है। इस वर्चुअल प्रेस बीफ्रिंग का प्रसारण उसके मुख्यालय, जेनेवा (स्विटज़रलैंड) से उसके सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर होता है, जिसमें दुनिया भर से पत्रकार भाग लेते हैं। इस ब्रीफिंग के दौरान संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने जब-जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ की है, तब-तब भारत के समाचार-माध्यमों में प्रसन्नता से खिली हुई खबरें विस्तार से प्रसारित हुई हैं।
30 मार्च को किसी भारतीय पत्रकार (उनका नाम फोन नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण ठीक से सुना नहीं जा सका था) ने इस प्रेस ब्रीफिंग में डबल्यू.एच.ओ. के पदाधिकारियों से कहा कि “आपको ज्ञात होना चाहिए कि भारत लॉकडाउन के दौरान अपने प्रवासी मजदूरों के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने को लेकर अभूतपूर्व मानवीय संकट देख रहा है। मैं यह जानता हूं कि ...आपको किसी देश विशेष पर टिप्पणी करना पसंद नहीं है,... लेकिन यह एक अभूतपूर्व मानवीय संकट है। हमारी सरकार को आपकी क्या सलाह होगी?”
चूंकि इस दौरान भारत में गरीबों-मजदूरों के ऊपर जिस प्रकार की अमानवीय घटनाएं घट रहीं थीं, और उसकी जो छवियां सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आ रहीं थीं, उसने सबको मर्माहत और चौकन्ना कर दिया था। लाखों की संख्या में मजदूर, जिनमें बच्चे, बूढ़े महिलाएं (जिनमें बहुत सारी गर्भवती महिलाएं भी थीं) सभी शामिल थे, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल निकल पड़े थे, जिन्हें रोकने के लिए जगह-जगह सीमाएं सील की जा रहीं थीं। हजारों लोग अलग-अलग शहरों में से अपने गांवों के लिए निकलना चाह रहे थे, लेकिन पुलिस उन पर डंडे बरसा रही थी। ऐसा लग रहा था कहीं गृह-युद्ध जैसे हालात न पैदा हो जाए!
डबल्यू.एच.ओ. के अधिकारी इससे संबंधित प्रश्न आने पर खुद को रोक नहीं पाए। डबल्यू.एच.ओ के एग्ज़ीक्युटिव डायरेक्टर माइकल जे. रयान ने इस प्रश्न के उत्तर में लॉकडाउन का समर्थन किया लेकिन यह भी कहा कि देशों को अपने विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए सख्त या हल्का लॉकडाउन लगाना चाहिए और हर हाल में प्रभावित लोगों के मानवाधिकार का सम्मान करना चाहिए। माइकल रयान के बाद संगठन के डायरेक्टर जनरल डॉ. टेड्रोस ने भी भावुकता भरे शब्दों में कहा कि “मैं अफ्रीका से हूं, और मुझे पता है कि बहुत से लोगों को वास्तव में अपनी रोज की रोटी कमाने के लिए हर रोज काम करना पड़ता है। सरकारों को इस आबादी को ध्यान में रखना चाहिए।... मैं एक गरीब परिवार से आता हूं और मुझे पता है कि आपकी रोजी-रोटी की चिंता करने का क्या मतलब है ! सिर्फ जी.डी.पी. के नुकसान या आर्थिक नतीजों को ही नहीं देखा जाना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि गली के एक व्यक्ति के लिए इसका (लॉकडाउन का) क्या अर्थ है !..मेरी यह बात सिर्फ भारत के बारे में नहीं है,यह दुनिया के सभी देशों पर लागू होता है।”
विश्व स्वास्थ संगठन के इस बयान को भारतीय मीडिया में कहीं जगह नहीं मिली।
लेकिन इस बयान के बाद भारत सरकार सक्रिय हुई और लॉकडाउन के दौरान उठाए गए कथित कदमों को प्रेस ब्रीफिंग में रखने के लिए डबल्यू.एच.ओ पर दबाव बनाया। परिणामस्वरूप 1 अप्रैल, 2020 की प्रेस ब्रीफिंग में डब्लूएचओ प्रमुख डॉ. टेड्रोस ने भारत सरकार द्वारा जारी किए गए राहत पैकेज के बारे में जानकारी दी। यह वह पैकेज था, जिसे भारत सरकार पांच दिन पहले 26 मार्च को ही घोषित कर चुकी थी।
टेड्रोस ने कहा कि “भारत में, प्रधानमंत्री मोदी ने 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर के पैकेज की घोषणा की है, जिसमें 800 मिलियन वंचित लोगों के लिए मुफ्त भोजन, राशन; 204 मिलियन गरीब महिलाओं को नकद राशि हस्तांतरण और 80 मिलियन घरों में अगले 3 महीनों के लिए मुफ्त खाना पकाने की गैस शामिल है।”..इसके अलावा इंडिया टुडे के पत्रकार अंकित कुमार के एक प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि भारत में लॉकडाउन के परिणामों के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन “जो जोखिम में हैं उन पर लॉकडाउन के प्रभावों को सीमित करने के लिए भारत ने बड़ा प्रयास किया है।”
अगले दिन भारत के सभी हिंदी-अंग्रेजी समाचार माध्यम इस खबर से अटे पड़े थे कि डबल्यू.एच.ओ. ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की है, और कहा है प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोरोना के खिलाफ उठाए गए कदम अच्छे हैं। अनेक न्यूज चैनलों ने डबल्यू.एच.ओ. के वक्तव्य की रिर्पोटिंग करते हुए यहां तक कहा कि “कोरोना वायरस को कैसे रोका जाए इसके लिए पी.एम. मोदी और उनके विशेषज्ञों की एक टीम लगातार काम कर रही है। 21 दिन के लॉकडाउन का फैसला भी पी.एम. मोदी ने अपनी इसी टीम की सलाह पर लिया है। प्रधानमंत्री हर रोज करीब 17-18 घंटे काम कर रहे हैं। कोरोना के खिलाफ संघर्ष में विश्व स्वास्थ संगठन भी पी.एम. मोदी और भारत की तारीफ कर चुका है।”
ये वही मीडिया संस्थान थे, जिन्होंने डब्लूएचओ द्वारा दी गई मानवाधिकारों का ख्याल रखने की सलाह को प्रकाशित करने से परहेज किया था।
लॉकडाउन से दुनिया के अनेक देशों की बर्बादी के बाद अब विश्व स्वास्थ संगठन कह रहा है कि उसने लॉकडाउन की सलाह नहीं दी थी।
हम अपनी सरकार से क्यों नहीं पूछ रहे हैं कि भारत जैसे गरीबों की विशाल जनसंख्या वाले देश में, जहां अधिकांश लोग रोज की रोटी कमा कर खाते हैं, वहां लॉकडाउन का मतलब क्या होगा, अगर आपको यह पता नहीं था, तो आपके निर्देशों के सही साबित होने की क्या गारंटी है?
स्वीडन, जापान, तंजानिया, बेलारूस, निकारगुआ, यमन आदि देशों ने या तो बिल्कुल लॉकडाउन नहीं किया, या फिर ऐसे नियम बनाए, जिनसे नागरिकों की स्वतंत्रता कम से कम बाधित हो। भारत इस राह पर क्यों नहीं चला?
हम क्यों नहीं पूछ रहे कि जब कई देशों ने मास्क को जनता के लिए आवश्यक नहीं बनाया है और कोविड-19 के अधिक फैलने के कोई प्रमाण नहीं हैं, तो आपके पास इसके लिए कौन-सा ‘वैज्ञानिक’ आधार है? हम क्यों नहीं पूछ रहे हैं कि क्या यह वायरस निशाचर है, जो आपने रात का कर्फ्यू लगाया है? इसका क्या वैज्ञानिक आधार है? आप क्यों भय को बरकरार रखना चाहते हैं?
आप कहते हो कि आपको भारत की जनता पर भरोसा नहीं है। यह अशिक्षित, अविवेकी, अराजक है, यूरोप की तरह सभ्य नहीं है। आपके पास इसके पक्ष में क्या प्रमाण हैं? क्या यह सच नहीं है कि देशव्यापी लॉकडाउन से पहले ही भारत में लोगों ने बाहर निकलना बहुत कम कर दिया था। लॉकडाउन से पहले ही कम सवारी मिलने के कारण सैकड़ों ट्रेनें कैंसिल करनी पड़ीं थीं। यह देशवासियों के उस अनुशासन और विवेक का परिचायक था। इसके बावजूद उनपर लॉकडाउन क्यों थोपा गया?
हमें यह सवाल भी अवश्य ही उठाना चाहिए कि सच जानने के हमारे जन्मसिद्ध अधिकार को किस एक्ट के तहत बाधित किया जा रहा है?
हम क्यों नहीं पूछ रहे कि इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन से क्या रिश्ता है?
कोविड-19 से संबंधित डबल्यू.एच.ओ. की जिस प्रेस बीफ्रिंग का जिक्र मैंने आरंभ में किया, उसमें 10 अप्रैल, 2020 को स्विटज़रलैंड की एक न्यूज वेबसाइट ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ के संपादक और सह-संस्थापक बेन पार्कर ने बिल गेट्स के बारे में एक सवाल पूछा था। डबल्यू.एच.ओ. के पदाधिकारियों ने उनके प्रश्न का उत्तर जिस तत्परता से दिया, वह तो देखने लायक था ही, साथ ही प्रश्नकर्ता के बारे में पड़ताल से यह भी संकेत मिलता है कि कितने-कितने छद्म रूपों से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के पक्ष में खबरों के प्रसारण को सुनिश्चित किया जा रहा है।
बेन पार्कर ने पूछा थ कि “हम बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, वैक्सीन और आईडी 2020 नामक एक डिजिटल पहचान परियोजना के आसपास बहुत-सी अफवाहों और कांस्पीरेसी थ्योरी देख रहे हैं। क्या आप इन नई भ्रामक सूचनाओं पर नजर रख रहे हैं तथा इन्हें हटाने के लिए कुछ कर रहे हैं?”
इस प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि हम बिल एंड मिलिंडा गेटस फाउंडेशन के कृपापूर्वक समर्थन के लिए आभारी हैं। हम निश्चित रूप से उस प्लेटफार्म को देखेंगे, जिसका आपने उल्लेख किया है। हम लगातार भ्रामक सूचनाओं से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं तथा उन्हें हटाने के लिए डिजिटल क्षेत्र की कई कंपनियों के साथ काम कर रहे हैं।
बेन पार्कर के सवाल पर डॉ. टेड्रोस ने भी अपनी बात विस्तार से रखी और गेट्स की प्रशंसा के पुल बांध दिए। उन्होंने कहा कि “मैं अनेक वर्षो से बिल और मिलिंडा को जानता हूं। ये दोनों मनुष्य अद्भुत हैं।..मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि इस कोविड-19 महामारी के दौरान उनका समर्थन वास्तव में बड़ा है। हमें उनसे वह सभी सहायता मिल रही है, जिनकी हमें आवश्यकता है। हमारा साझा विश्वास है कि हम इस तूफान को मोड़ सकते हैं। .. गेट्स परिवार के योगदान से दुनिया परिचित है, उन्हें प्रशंसा और सम्मान मिलना ही चाहिए (जोर हमारा)।”
प्रश्नकर्ता बेन पार्कर के बारे में गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि उनका “दुनिया भर में मानवीय संकटों से प्रभावित लाखों लोगों की सेवा में स्वतंत्र पत्रकारिता” का संस्थान ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ मुख्य रूप से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन के पैसे से चलता है। वह उनका सबसे बड़ा डोनर है। इसके एवज में प्रश्नकर्ता बेन पार्कर टिवीटर से लेकर अपनी वेबसाइट तक पर बिल गेट्स के पक्ष में कथित ‘फैक्ट चेकिंग’ में सक्रिय रहते हैं, ताकि गेट्स परिवार को बदनामी के गर्त से बाहर निकाला जा सके।
भारत में भी इस कथित महामारी के दौर में ऐसी कथित फैक्ट चेकिंग संस्थाएं विदेशी अनुदान से तेजी से बढ़ रही हैं। हमें स्वयं से यह पूछना चाहिए कि सच और झूठ का यह घालमेल इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? क्या इसके लिए सिर्फ सरकार जिम्मेवार है, या हम स्वयं अपनी गुलामी के अनुबंध पर लगातार हस्ताक्षर करते जा रहे हैं?
[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास में रही है। ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ और ‘शिमला-डायरी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। संपर्क : +919811884495, janvikalp@gmail.com]