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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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दो कौड़ी की फिल्में भी सौ करोड़ क्लब में ...!!

मीडिया आज बेहयाई से घटिया फिल्मों को भी तथाकथित सौ करोड़ क्लब में शामिल कराने का ठेका ले रहा है....

तारकेश कुमार ओझा / जमाने के हिसाब से कह सकते हैं कि अमर शहीद खुदीराम बोस व भगत सिंह .यदि आज होते , तो हमारे राजनीतिज्ञ उनकी शहादत को भी विवादों व सवालों के घेरे में ला सकते थे। उसी तरह गुजरे जमाने की तमाम घटिया फिल्में यदि आज रिलीज हुई होती, तो आज के  प्रचार माध्यम अपने कारनामों से उन्हें कथित सौ करोड़ क्लब में जरूर शामिल करा देते। बस जरूरत उन्हें फिल्म को सुपर - डुपर हिट कराने की सुपारी देने की थी।

मीडिया खास कर चैनल्स आज जिस बेहयाई से घटिया फिल्मों को भी तथाकथित सौ करोड़ क्लब में शामिल कराने का ठेका ले रहा है. उसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। नई रिलीज होने वाली फिल्मों की समीक्षा पत्र - पत्रिकाओं में पहले भी हुआ करती थी। इसका एक खास पाठक वर्ग हुआ करता था। समीक्षा में आलोचक रिलीज होने वाली फिल्मों की कमियों व खासियतों की चर्चा किया करते थे। लेकिन अपनी पसंद - नापसंद दर्शकों पर थोपने की कोशिश बिल्कुल नहीं होती थी।

90 के दशक में चैनलों का प्रसार बढ़ने पर फिल्मों की समीक्षा नए अंदाज में शुरू हुई, लेकिन यहां भी समीक्षक रिलीज होने वाली फिल्म के  मजबूत और कमजोर पक्ष व अभिनेताओं के अभिनय की चर्चा मात्र ही करते थे। लेकिन पिछले एक दशक में चैनलों ने जैसे किसी फिल्म को जबरदस्ती हिट कराने का ठेका ही लेना शुरू कर  दिया है। दो कौड़ी की फुटपथिया फिल्मों की भी इस प्रकार आक्रामक मार्केटिंग की जा रही है, कि मानो दर्शकों को संदेश दिया जा रहा हो कि तुमने यदि यह फिल्म नहीं देखी, तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ गया समझो। अपने इस धंधे को चमकाने के लिए चैनलों ने सौ करोड़  क्लब का फंडा चला रखा है। फिल्म रिलीज हुई नहीं कि बंपर कमाई , सारे रिकार्ड तोड़े के जुमले के साथ रिलीज होने वाले दिन ही उसे सौ करोड़ फिल्म में शामिल करा दिया जाता है। किसी फिल्म के रिलीज वाले दिन ही कोई फिल्म सफलता के सारे रिकार्ड कैसे तोड़ सकती है, यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया। बेशक नई रिलीज होने वाली फिल्म की चर्चा करने में कोई बुराई नहीं है। यदि इसके प्रचार के एवज में किसी माध्यम को विज्ञापन मिलता है, तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। लेकिन फिल्म व इसके स्टार और निर्माता - निर्देशकों का भोंपू बन जाना, रात - दिन बगैर प्रसंग के फिल्म की बार - बार चर्चा करना और फिल्म के स्टार्स का स्टूडिया में बैठा कर घंटों इंटरव्यू लेना तो दर्शकों पर फिल्म को थोपने जैसा ही है।

कौन सी फिल्म अच्छी है और कौन नहीं, यह दर्शक बेहतर जानते हैं। 80 के दशक में राजश्री की नदिया के पार बगैर किसी शोर - शराबे के सुपर हिट हुई थी। क्योंकि दर्शकों ने उसे पसंद किया था। लेकिन आज उल्टी बयार बह रही है। यह किसी एक चैनल का नहीं बल्कि सारे चैनलों का हाल है। कल तक यही लोग कथित बाबाओं का भी इसी प्रकार प्रचार किया करते थे। बाबा लोग फंसने लगे तो उनकी बखिया उधेड़ने में जुट गए।  अभी कुछ दिन पहले ही चैनलों पर आमिर खान की धूम थ्री का आक्रामक प्रचार चैनलों पर देख रहा था। रिलीज वाले दिन तो एक चैनल ने हद ही कर दी, उसके एंकर ने उस दिन को ही धूम डे घोषित कर दिया। यही नहीं रिलीज वाले दिन ही फिल्म की जबरदस्त रिकार्ड तोड़ सफलता का ढिंढोरा पीटते हुए उसे सुपर हिट करार दे दिया गया। इस बेशर्मी पर सिर ही पीटा जा सकता है। कह सकते हैं ऐसी बेशर्मी देखी नहीं कहीं.... 

तारकेश कुमार ओझा

संपर्कः 09434453934

 

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सम्पादक

डॉ. लीना