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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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इतनी इनायतें इतने करम

नरेंद्र मोदी को रवीश कुमार की खुली चिठ्ठी

प्रिय नरेंद्र मोदी जी,

नया क्या लिखूं। बहुत सोचा कि आपको कुछ लिखूं लेकिन लिखूं तो कुछ नया लिखूं। एक हफ्ते से आपकी सरकार के एक साल पूरे होने पर लेख छप रहे हैं। आपने अच्छा किया चीन चले गए। बिजनेस अखबारों में तो बाकायदा सांप-सीढ़ी वाले ग्राफिक्स से बताया जा रहा है कि आपने क्या किया और क्या नहीं। जिस लेख में केवल तारीफ है उसके अंत में बड़बोले नेताओं के सांप्रदायिक बयान का ज़िक्र है ताकि संतुलन बना रहे, जिस लेख में बहुत आलोचना है उसके अंत में आपकी लगन का ज़िक्र है ताकि आप नाराज़ न हो जाएं। मुझे इन तमाम लेखों को पढ़ते हुए पता चल गया है कि आपके नियंत्रण में कौन है और आप किसके नियंत्रण में हैं। ये वही लोग हैं सर, जो पहले के प्रधानमंत्रियों की सालगिरह पर लिखा करते थे। आदत है सो लिखे ही जा रहे हैं। इतना तो लिख ही दिये हैं कि सारे लेखों को पढ़ते-पढ़ते आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब 16 मई 2016 आ गया।

भाई लोगों ने मुझे लिखने के लिए कोई डिपार्टमेंट नहीं छोड़ा है जिसके बहाने मैं आपकी सरकार की आलोचना या सराहना करूं। अगली बार सर मैं जनवरी में ही मई वाला मैटर लिख दूंगा। जो भी हो, मैं 16 मई के उपलक्ष्य पर छपे उन तमाम लेखों से गुज़रते हुए महसूस कर रहा हूं कि आपने चुनाव के दौरान उम्मीदों का जो पहाड़ खड़ा किया था उसके नीचे आप नहीं बल्कि ये लेखक दबे हैं। आपका कर्तव्य बनता है कि उम्मीदों के पहाड़ों के नीचे दबे इन प्रहरी-नागरिकों को बाहर निकालें। उन्हें बतायें कि आप कैसे निकल गए हैं। इस मामले में योग से उन्हें मदद मिल सकती है। मैं उनकी जगह होता तो इस बात का शुक्रिया अदा करता कि आपकी वजह से कम से कम एक साल तो उम्मीदों और खुशफ़हमियों में गुज़रा। सभी निराश नहीं है पर एक भी लेखक ऐसा नहीं मिला जो पूरी तरह खुश हो या पूरी तरह नाराज़। ग्लास आधा ख़ाली आधा भरा वाला मामला लगता है।

आपका वक्त न बर्बाद हो इसलिए मैंने कई लेखों के सार आपको बता दिया है। सर, मैं इन लेखों को पढ़ते हुए यह समझ गया कि कुछ भी बन जाऊं, प्रधानमंत्री तो नहीं बनूंगा। आपने सही किया है कि किसी प्रेस सलाहकार को नहीं रखा है वर्ना वो रोज़ कतरनों की फ़ाइलें लेकर आ जाता और पढ़ने के लिए मजबूर करता। क्या पता सलाहकार नहीं रखना भी इन सलाहों की बढ़ती संख्या का एक कारण हो। जो भी हो सर, मैं अपने ऊपर लिखे गए इतने आर्टिकल नहीं पढ़ सकता। लोकप्रियता रहे या गिरे लेकिन इतना पढ़ना पढ़े तो अच्छा है कि प्रोफेसर ही बन जायें। अच्छी बात यह है कि इन लेखकों ने आपको पिछले एक साल के ही चश्मे से देखा है। चश्मे का ज़िक्र मैं आपके सामने छत्तीसगढ़ के कलेक्टर के चश्मा पहनने पर फटकार वाली बात के लिए नहीं कर रहा हूं।

तो मैं एक साल पूरा होने पर क्या लिखूं। वैसे भी 16 मई की तारीख़ आपके लिए सामान्य हो चुकी है। आप इससे बहुत दूर जा चुके हैं। चीन यात्रा पर ह्वेनसांग के गांव में जो अपने गांव से आपके गांव आया था। आप ल्युटियन दिल्ली से नार्मल हो चुके हैं। पत्रकारों को बुलाकर चाय पी लेते हैं तो अचानक उनके बीच चले जाते हैं। ग़ैर ल्युटियन पत्रकार होने के नाते मैं यह सब सुनकर महसूस कर रहा हूं कि आप भी अपने तरीके से ल्युटियन दिल्ली को नार्मल कर रहे हैं। सेल्फ़ी को आपने राष्ट्रीय संस्कृति का हिस्सा बनाकर उसका जो भारतीयकरण किया है उससे आने वाली पीढ़ियां गौरवान्वित महसूस करेंगी। बशर्ते कोई कोई वेद-पुराण से सेल्फ़ी के होने का आदिम प्रमाण न ले आए।

आपकी सेल्फ़ी को बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं पावर सेल्फ़ी कहती हैं। ये होती है बात। आप हमेशा प्रोटोकोल में नहीं रहते हैं। आप प्रोटोकोल मुक्त प्रधानमंत्री हैं। किसी बच्चे की कान पकड़ सकते हैं तो मूर्ति के साथ सामान्य पर्यटक की तरह फोटो खिंचा सकते हैं। व्हाट्स अप और फेसबुक पर टेरेकोटा वाली मूर्तियों को देखते हुए आपकी कई तस्वीरें छपी हैं। उन तस्वीरों के टैगलाइन पढ़ते हुए आपको भी ख़ूब हंसी आएगी। इससे एक बात तो साफ है कि आपको लेकर लोगों में डर कम होता जा रहा है। वे अपने प्रधानमंत्री का आदर करते हैं तो आलोचना भी कर सकते हैं। निंदा कर सकते हैं तो ठिठोली भी कर सकते हैं। बस बीच-बीच में ये तेल के दाम वाले पुराने ट्वीट मज़ा ख़राब कर देते हैं। अब दाम तो बढ़ने ही हैं तो क्यों न आप इन ट्वीट को डिलिट ही करा दें। आल-अकाउंट डिलिट।

एक साल बीत जाने के बाद भी सोशल मीडिया में आपके प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ है। फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स अप की शुरुआत आप ही से होती है। रोज़ कोई न कोई कुछ न कुछ ठेले रहता है। आप कई लोगों की हास्य प्रेरणा बने हुए हैं। आपने दैनिक जागरण को दिए इंटरव्यू में कहा है कि संसद में हास्य विनोद को मिस करता हूं। यह सही बात है सर। हर बात पे तनातनी से मुझे भी प्रॉब्लम होती है। आपकी इस कमी को सोशल मीडिया ने सही से पूरी कर दी है। इतने लतीफ़े और कार्टून बनते हैं कि पूछिये मत। इससे पता चलता है कि आप लोकप्रिय हैं। आपकी लोकप्रियता गिरी होती तो कार्टून नहीं बनते। इसका मतलब यह है कि लोग आपको लेकर नार्मल होने लगे हैं। सर, ये वाला प्वाइंट भी मेरा ओरिजनल है।

कोई आपकी हर लिखावट को मिलाकर देख रहा है कि आप ही लिख रहे हैं या कोई और लिख रहा है। आप जहां-जहां लिखते हैं वहां-वहां की तस्वीर खींच लेते हैं। वो राहुल गांधी की उस तस्वीर के बाद कंफ्यूज़ हो गए हैं जिसमें वे फोन से विजिटर्स बुक पर मैसेज कॉपी कर रहे हैं। सुलेख हैंडराइटिंग तो खत्म ही गई है सर। हर कोई टैबलेट और फोन पर लिख रहा है। आप अभी भी कलम से लिख सकते हैं। एक दिन रजिस्टर को भी आन-लाइन कर दीजिएगा। बड़े-बड़े नेता आई पैड पर टाइप कर या टाइप करवा कर म्यूज़ियम या आश्रम को सेंड कर देंगे। आइये, देखिये और होटल जाकर ईमेल कर दीजिए। ईज़ आफ राइटिंग भी तो हो सकती है।

एक और बात सर, आपसे पहले के प्रधानमंत्रियों को टीवी पर देखता था तो यही सोचता रहता था कि कोई अर्जेंट काम हो, भांजा-भतीजा बात ही करना चाहता हो तो कैसे बात करता होगा। दस साल मैंने मनमोहन सिंह जी को बिना फोन के देखा जबकि उनकी सरकार हर हाथ में फोन पहुंचाने का दावा करती है। कम से कम आपके हाथ में फोन देखकर मेरा ये वाला टेंशन कम हो गया है। मेरा ये वाला प्वाइंट एकदम ओरिजनल है सर। किसी ल्युटियन लेखक ने इस पक्ष का ज़िक्र नहीं किया है।

सर, हर किसी का साल अच्छा बुरा होता है। आप लोगों का खाता खुलवा रहे हैं और लोग हैं कि आपका बहीखाता खोल रहे हैं। यहां तारीफ़ छपती है तो वहां उस तारीफ़ की पोल खुलती है। कोई बात बिना दो बात के होती ही नहीं है। अच्छा है इससे बातों को अकेलापन नहीं होता होगा। एक पहलू में कुछ और दूसरे पहलू में कुछ और होता होगा। बातें भी आपस में बतियाती होंगी। सुन री तू ऐसी है, नहीं री मैं ऐसी हूं।

मैं जानता हूं सरकार के एक साल पुरे होने के उपलक्ष में अभी पार्टी टाइम है। आपने भी सही ट्वीट किया है। उन तस्वीरों को देखकर लगता है कि कल गुज़रा ही नहीं, बल्कि आज से गुज़रना शुरू हुआ है। इतने दिनों में आप एक नार्मल राजनेता और प्रधानमंत्री हो गए हैं। लोग भी आपको लेकर नार्मल हो रहे हैं। कुछ भी नहीं बदला है कहने वालों को यह बदलाव दिखना चाहिए। उम्मीद है ये लोग अगले साल तक आपको लेकर नार्मल हो जाएंगे। आंकड़ों के नए-नए पहाड़ के आगे समस्याओं के शाश्वत वजूद को नकारने लगेंगे। सत्ता सबको सामान्य बनाये और सामान्य सत्ता के लिए सामान्य ही रहें यही कामना है। कल्पित आधार पर यह सारगर्भित लेख नहीं लिखा है। मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें। पत्रकार के तौर पर नहीं, एक नागरिक के तौर पर।

भारत का एक मजाकिया नागरिक
रवीश कुमार

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग - कस्बा से साभार )

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सम्पादक

डॉ. लीना