जिस विश्वविद्यालय में कभी विद्यार्थी हुआ करता था, आज कार्यवाहक कुलपति के पद पर आसीन है संजय द्विवेदी
मनोज कुमार/ वो एक दुबला-पतला सा लड़का। आंखों में सपने लिए दूर एक कस्बानुमा शहर से भोपाल चला आया था। उत्तरप्रदेश के कस्बानुमा बस्ती शहर के इस लड़के के भीतर आग थी। इसी आग के कारण वह पत्रकारिता की पढ़ाई करने चला आया था। जैसा कि होता है युवा मन में आमूलचूल परिवर्तन की आग होती है। यह आग उसके भीतर भी थी। सपना था तो पत्रकारिता में मुकाम बनाने का। यह इसलिए भी कि संजय द्विवेदी नाम के इस लड़के का रिश्ता उस प्रदेश से था जहां पत्रकारिता पेशा नहीं, परम्परा के रूप में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। बाबूराव पराड़कर और गणेषशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता को पढ़ते, देखते और सुनते हुए संजय के मन में कुछ करने की लालसा थी। सपना था। पत्रकारिता की औपचारिक डिग्री लेने के बाद अपने साथियों के साथ वह भोपाल के अखबारों में सबक सिखता रहा। संजय के भीतर आग के साथ सपने भी थे तो उसके लक्ष्य बड़े थे। वह कुछ अलग करने की लालसा में आगे निकल जाना चाहता था। निकला भी। बस्ती से भोपाल और भोपाल से दिल्ली, मुंबई होते हुए रायपुर बिलासपुर को उसने अपना मुकाम बना लिया। अखबारों में वह संपादक की श्रेणी में जा बैठा। बिलासपुर में स्वदेश के श्रीगणेष करने का श्रेय भी संजय के हक में था तो भास्कर और हरिभूमि जैसे सुपरिचित अखबारों में वह पहली पंक्ति में अपना स्थान बनाया। हौले हौले संजय के सपने जमीन पर उतर रहे थे। वह कागज की दुनिया से कैमरे के सामने जा खड़ा हुआ। जी छत्तीसगढ़ में एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ काम करते रहे।
यथा नाम तथा गुण की कहावत संजय पर खरी उतरती है। वह हवा के रूख को भांप लेते हैं। उसे लगा कि मीडिया का भविष्य वैसा नहीं है, जैसा उसने सोचा था। मीडिया की दुनिया को अलविदा कहकर वह अकादमिक की ओर मुड़ गए। पहले कुछ दिनों तत्कालीन कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अध्यापन करने के बाद जिस विश्वविद्यालय से सफर शुरू हुआ था, वहीं पहुंच गए। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में बतौर प्राध्यापक नियुक्त हो गए। लगातार 10 वर्षों तक जनसंचार विभाग के मुखिया रहने के बाद इसी विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक कुलसचिव बने रहने का गौरव भी पाया। जिस विश्वविद्यालय में वह कभी विद्यार्थी हुआ करता था, आज कार्यवाहक कुलपति के पद पर आसीन है। संजय की कामयाबी उनके अपने लोगों को कभी नहीं रूचा। जब तब उसके रास्ते में कांटें बोते चले गए। लेकिन जिद्दी संजय भी उन्हें धता बताकर आगे और आगे बढ़ते गए। अभी वह उम्र के जिस पड़ाव पर है और जिन पदों प रवह रह चुके हैं अथवा बने हुए हैं, लोगों की तकलीफ का बड़ा कारण है। उसके समकालीन लोग उसकी कामयाबी से इसलिए खफा हैं कि वे उस मुकाम को हासिल नहीं कर सके।
जो लोग संजय को निकट से नहीं जानते हैं। उनके लिए संजय एक पहेली भी है। संजय मीठा बोलते हैं। कुशल प्रवक्ता हैं और नियमित लिखते हैं। एक पत्रकार, एक अकादमिक होने के साथ वे एक कामयाब पीआरओ भी हैं। प्यार और पी आर संजय की पूंजी है। उन पर संघ का करीबी होने की छाप है। यह सच भी है लेकिन यह भी सच है कि उनके रिश्ते सभी राजनीतिक दलों से है। वे पत्रकार के रूप में प्रतिबद्ध हैं लेकिन संघ की विचारधारा उनकी निजी है। इसका असर उनके रिश्ते पर नहीं पड़ता है। पत्रकारिता के गुरुओं को वे पूरा सम्मान देते हैं। अपने अनुजों का, अपने विद्यार्थियों का खयाल रखते हैं। समवय के लोगों के साथ वे तो दोस्ताना रहना चाहते हैं लेकिन उन्हें संजय रास नहीं आते हैं। वे कई बार आपस में चर्चा में कहते हैं- जो मिला, ईश्वर और बड़ों की कृपा से। मैं अपने शत्रुओं पर अपना समय खर्च नहीं करता हूं। इतने समय में मैं कुछ अच्छा पढ़ लूं, कुछ अच्छी बातें कर लूं। यही मेरे लिए सार्थक और उपयोगी होगा।
संजय मेरे अनुज की तरह हैं। मैं बहुत ज्यादा जानने का दावा नहीं कर सकता लेकिन इतना कह सकता हूं कि वे जिसे सम्मान देते हैं तो दिल से। संजय की खूबिया खूब है तो कुछ कमियां भी है। हवा के रूख को पहचान कर वे अपना रास्ता तय कर लेते हैं। सम्पर्कों का लाभ उठाने में कभी पीछे नहीं रहे लेकिन किसी का नुकसान कर आगे बढ़ने में उनकी रूचि नहीं रही। स्वयं की ब्राडिंग करने में वे कभी चूकते नहीं हैं। विद्यार्थियों के वे हमेशा से प्रिय रहे हैं। उनकी सभा-संगत या किसी पहल को संजय का ना केवल समर्थन मिलता है बल्कि खुले हाथों से उनकी आर्थिक मदद भी करते हैं। एक छात्र से कार्यवाहक कुलपति तक पहुंचने के रास्ते में संजय को कंटक भरे रास्तों से गुजरना पड़ा है। खासतौर पर बीते डेढ़-पौने दो साल तो जैसे बुरे स्वप्न की तरह था। कलाम साहब की उस वाक्य को भी संजय जीते हैं। उन्होंने कहा था-सपने खुली आंखों से देखो। आज खुली आंखों से देखा हुआ सपना संजय का सच हो गया। यह सब लिखते हुए निजी तौर पर मैं इसलिए प्रसन्न हूं कि दो साल पहले मैंने इसी विश्वविद्यालय के कुलपति बनाये गए मेरे अग्रज जगदीश उपासने पर लिखा था कि "उपासने हो जाना सरल नहीं है" तो इस बार अपने अनुज की उपलब्धि पर लिखते हुए उतनी ही प्रसन्न्ता महसूस कर रहा हूं कि एक सपने का सच हो जाने जैसा है संजय का कार्यवाहक कुलपति बन जाना। यह भी संयोग है कि ज ब उपासनेजी कुलपति बने थे तो पत्रकार जगत में उनका स्वागत हुआ था तो संजय द्विवेदी के कार्यवाहक कुलपति बनाये जाने पर भी ऐसा ही स्वागत हुआ है। प्रोफेसर संजय द्विवेदी के सामने चुनौतियों का पहाड़ है लेकिन मुझे पता है कि वे भरोसे को कायम रखेंगे। बधाई संजय।
(लेखक मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार और शोध पत्रिका “समागम” के संपादक हैं)