पत्रकार खुलेआम पार्टी का प्रचार कर रहे हैं तो प्रोडक्ट का प्रचार क्यों न करें
रवीश कुमार/ अमर उजाला के भीतरी पन्ने पर भाजपा सांसद को ब्लैक मैजिक कूकर का विज्ञापन देखा तो कुछ दिन पहले पन्ने पर छपे रिलायंस जियो के विज्ञापन में प्रधानमंत्री की तस्वीर वाला प्रसंग कौंध गया। प्रधानमंत्री देश के नेता होता हैं तो लोकसभा का भी तो नेता होते हैं। उन्हीं में से एक वे होते हैं। जब सांसद मौज से विज्ञापन कर रहे हैं तो उन पर क्यों बंदिश हो। सवाल तो बस इतना है कि यह विज्ञापन उन्होंने किया है अर्थात उनकी जानकारी में छाप दिया गया या कंपनी ने मंज़ूरी की ज़रूरत ही न समझी।
भाजपा सांसद किरण खेर सांसद बनने से पहले से फ़िल्मी जगत की हस्ती रही हैं। हेमा मालिनी को तो हम कब से विज्ञापन में देख रहे हैं। वे भी कई बार पहले पन्ने पर आ ही चुकी होंगी।भारत रत्न और सांसद सचिन तेंदुलकर भी विज्ञापन करते हैं। उस कमाई से ओलंपिक जीत आए खिलाड़ियों को बी एम डब्ल्यू कार भी देते हैं फिर भी भारत रत्न का विज्ञापन करना अटपटा लगता है। बेहतर है कि इस पर कोई ठोस रास बनाई जाए। लोकसभा की स्पीकर ही व्यवस्था दें। सांसदों का भी पक्ष सुना जाए।
मोदी सरकार के पहले से सांसद विज्ञापन करते रहे हैं। इसलिए किसी एक दल के सांसदों या प्रधानमंत्री के विज्ञापन में आने का सवाल नहीं है। प्रतिरोध का एक ही उदाहरण मिलता है जब रेल मंत्री ममता बनर्जी की तस्वीर का इस्तमाल एक चप्पल बनाने वाली कंपनी ने अपने विज्ञापन में कर लिया था। बीजेपी ने तब के प्रधानमंत्री से भी सवाल पूछ लिया था। ममता ने तो केस करने की धमकी दे दी थी। विज्ञापन देने वाली कंपनी ने माफी भी मांग ली। जब रेल मंत्री के लिए नैतिक अनुमति नहीं है तो प्रधानमंत्री की भी कुछ तो प्रतिक्रिया होनी चाहिए। वैसे भी इस मसले को नैतिकता के भरोसे छोड़ने ती जगह नियम से ही देखा जाना चाहिए। बीजेपी ने तब क्यों विरोध किया था और अब क्यों नहीं कर रही,नियम के अभाव में हर कोई ऐसी छूट का लाभ उठाने का प्रयास करता है। इसलिए नैतिकता की जगह नियम स्पष्ट किये जाएँ।
एक संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि सेलिब्रेटी विज्ञापन की ज़िम्मेदारी लेंगे। माल ख़राब निकला तो उन्हें सज़ा हो सकती है।क्या यह पाबंदी सांसदों पर भी लागू होगी? क्या समिति ने इस पर भी सोचा है? चुनावी विज्ञापनों के बारे में क्या राय बनी है? पंद्रह लाख काला धन लाने वाली बात को जुमला कह देना क्या क़ानूनी अपराध होगा?
शायद डाक्टरों को अपना और किसी दवा का विज्ञापन करने की अनुमति नहीं है।पत्रकारों पर भी कोई क़ानूनी पाबंदी है या सिर्फ नैतिकता वाली। आजकल के पत्रकार अपने चैनल, शो, इंटरव्यू, स्टोरी और लेख का दिन भर विज्ञापन करते रहते हैं। लेकिन मैं साबुन तेल की बात कर रहा हूँ। मुझे कूकर और दंत मंजन का विज्ञापन करने का बड़ा मन करता है। पता नहीं दफ्तर से अनुमति मिलेगी या नहीं लेकिन कमर के पास कूकर रखकर चलते हुए बोलने का मन करता है कि दिमाग़ से भी ज़्यादा तेज़ पका दे मेरा ललमुनिया कूकर। ख़बर पकाने के लिए क़लम नहीं, ले आइये ललमुनिया कूकर। दिमाग़ साफ़ हो तो दाँत अपने आप साफ हो जाता है। चिरकुट मंजन दाँत ही नहीं दिमाग़ भी साफ कर देता है। रवीश कुमार की पहली पसंद। ललमुनिया कूकर ओर चिरकुट मंजन। मज़ा आता और हमें भी कुछ उचित मार्ग से लाभ मिल जाता!
By the way- मेरा कहना है कि जब पत्रकारिता का सत्यानाश हो गया तो अंतिम संस्कार भी हो जाना चाहिए। पत्रकार खुलेआम पार्टी का प्रचार कर रहे हैं तो प्रोडक्ट का प्रचार क्यों न करें। यह सवाल अब पत्रकार से पूछना बंद हो जाना चाहिए कि संकट कैसे दूर होगा। यह सवाल संस्थानों से पूछा जाना चाहिए। लोगों से भी कह देना चाहिए कि पत्रकारिता को बचाने की ज़िम्मेदारी एक पत्रकार की नहीं है। पाठक और दर्शक की भी है। क्या आप किसी सरकार का मूल्याँकन करते समय इस बात को महत्व देते हैं कि उसके दौर में पत्रकारिता या किसी एक पत्रकार की क्या हालत थी। नहीं तो फिर कैसे पता कि आप सही जानकारी के आधार पर सरकार का मूल्याँकन कर रहे हैं।कुछ लोग उम्मीद का सहारा लेकर एकाध पत्रकारों का भावनात्मक दोहन करते रहते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि कुछ बचे हुए पत्रकार क्यों बचे हुए हैं? आप उनका इम्तहान क्यों नहीं लेते जो नहीं बचे हुए हैं लेकिन ख़म ठोकर संस्थानों की व्यवस्था में बचे हुए हैं। उनसे कहिए कि आपसे जब उम्मीद नहीं है तो हम कोई अख़बार क्यों ख़रीदें और कोई चैनल क्यों देखें?
(रवीश कुमार जी के ब्लॉग क़स्बा से साभार)