रवीश कुमार। नावों के निर्माता कौन होते होंगे ? उन्होंने नावों का विज्ञान कहाँ से सीखा होगा ? लकड़ी की नावें महिंद्रा या सुज़ुकी की नहीं होतीं फिर भी इनके ग्राफिक्स डिज़ाइनरों की तैयार कारों से बेहतर होती हैं । कभी नाव को छूकर देखियेगा । काठ होते हुए भी पत्थर की बनी लगती हैं । नावों के निर्माताओं का कोई नाम नहीं जानता मगर समंदर किनारे इनकी बनाई नावें नज़र न आए तो समंदर और नदी का ब्रांड फीका हो जाए ।
इन नावों का योगदान कोई नहीं जोड़ता । इनकी वजह से लाखों लोगों को मछली मिलती हैं । करोड़ों का कारोबार देकर भी नावें तमाम विमर्श से गायब हैं । जबकि देश भर में लाखों लोग नावों का परिवहन के रूप में इस्तमाल करते हैं । जिन्हें चुनावी कवरेज पर निकले रिपोर्टर पिछड़ेपन की निशानी बता ख़ुद विकास के अर्थशास्त्री समझने लगते हैं ।
केरल का बैकवाटर, गेटवे आफ इंडिया, बनारस में गंगा, डल झील का शिकारा ये सब नावों के कारण ही तो गुलज़ार हैं । दूर से बची खुची किसी नदी में जब नाव दिख जाती है तब यक़ीन सा हो जाता है कि वहाँ जीवन होगा । समंदर का किनारा नावों के कारण भरोसेमंद लगता है । इनके होने से लगता है कि समंदर में कोई आता जाता है । कोई समंदर को जानता है ।
पश्चिम बंगाल के मंदारमुनी बीच का विस्तार किनारे सुस्ता रही नावों के बिना और भी निर्जन लगता । मैं खचाखच नावों की तस्वीरें उतारने लगा । नाव कला पर कोई किताब है या कोई उस्ताद होगा मुझे नहीं पता लेकिन इन नावों को देखकर मन में एक किताब बनने लगती है । लोग इनके भरोसे कितनी साहसिक यात्राएँ कर गए । समंदर से लड़ गए । जिस समंदर को पार करने के लिए मोटरवाला बड़ा सा पुल बनाता है उस पुल के नीचे ये नावें खेलती गाती घूमती रहती हैं । कहने को हार्स पावर हैं मगर मोटर यान बनाने वालों को नावों की शक्ति से कोई पैमाना क्यों नहीं मिला कभी जानना ज़रूर चाहूँगा ।
घूमते फिरते उस सवाल का जवाब भी मिल गया । कई बार सोचता था कि नावों को समंदर में कैसे उतारा जाता होगा । पहले कैसे उतारते होंगे । धकेल कर ले जाने से रेत पर लकड़ी घिस सकती है या किसी चीज़ से दरार आ जाती होगी । पर कभी नहीं सोचा था कि नावों की डोली उठती होगी । सुबह सुबह जब कई मछुआरों को कंधे पर लाद नाव को ले जाते देखा तो लगा कि उसके मायके ले कर जा रहे हैं । नाव तो समंदर की बेटी है । अदभुत दृश्य था । मछुआरे कहार में बदल गए थे । इतनी आसानी से नाव को कंधे पर उठा लिया जैसे कोई वज़न ही न हो ।
कभी किसी अख़बार को या वेबसाइट को नावों पर कॉलम शुरू करना चाहिए । चैनलों पर ऑटोमोबिल पर कई शो मिलेंगे लेकिन उनमें भी नावों की कलाकारी पर बात नहीं होती । गी भी तो महँगे यॉट का ही बखान होने लगेगा । पूरे देश भर में नावों की कलात्मकता को लेकर कितने किस्से बिखरें होंगे लेकिन सब अनसुने । कोई मास्टर होगा जिसकी नाव की धूम होती होगी । कोई तो होगा जिसे नावों में गहरी दिलचस्पी होगी । अगर आपको नावों पर कोई अच्छा ब्लाग मिले तो बताइयेगा । अरे भाई कार लाँच रिपोर्ट करने वालों नावों से प्रोफ़ाइल गिरता है तो बड़े बड़े समुद्री जहाज़ों पर ही रिपोर्ट कर दो । वैसे अमिताभ घोष ने अफ़ीम सागर में समुद्री जहाज़ और बड़ी नावों का अदभुत ज़िक्र किया है । अगर कोई नावों की पत्रकारिता करना चाहता है तो पढ़ सकता है । आखिर हम सबने एक बार तो नाव बनाई ही होगी । काग़ज़ की नाव या काग़ज़ पर पेंसिल की रेखाओं से बनी नाव ।
(फोटो सहित, आलेख रवीश जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)