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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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यह मीडिया तो दस फीसदी लोगों का भी नहीं है:रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार और एन डी टी वी इंडिया के लोकप्रिय एंकर रवीश कुमार से अशरफ अली बसतवी ने  यह विशेष  इंटरव्यू   किया  है जिस में उनके पत्रकारिता, करियर, सामाजिक मुद्दों के प्रति उनकी  दिलचस्पी, समाचार चैनलों की  मुस्लिम समाज की खबरों और मुद्दों के प्रति उदासीनता का मूल कारण के अलावा पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय नई पीढ़ी और आने वाले दिनों में इस क्षेत्र में कदम रखने वाले नौजवानों के लिए संदेश। वर्तमान पत्रकारिता के सामने चुनौती और उनसे निपटने के  वैकल्पिक प्रयासों की दिशा। यह और इस जैसे अन्य सवालों के जवाब जानने की कोशिश की  है। अपने  पैनल  चर्चा में अपने हर सवाल का सीधा जवाब तलब करने वाले रवीश कुमार ने बड़ी बेबाकि  से हर सवाल का खुलकर जवाब दिया है। पेश है साक्षात्कार-  

प्रश्न : आपने पत्रकारिता कब और कैसे शुरू की?

उत्तर: हमारे शिक्षक ने एक बार मुझसे कॉलेज में कहा था कि तुम्हें पत्रकारिता का पेशा अप करना चाहिए, बस यहीं से मेरी  पत्रकारिता की यात्रा शुरू हो गई । 1995-96 से ही हिंदी दैनिक जन  सत्ता' और कुछ अन्य अखबारों में लिखना शुरू कर दिया था। बाकायदा एनडीटीवी में ही आकर  रिपोर्टिंग प्रशिक्षण लिया  और काम करना सीखा ।

प्रश्न: सामाजिक  समस्याओं से संबंधित खबरों तक पहुंचने का आपका तरीका और आप की  समझ दूसरों से बिलकुल अलग है, जबकि अन्य चैनलों में आमतौर पर यह स्वभाव नहीं पाया जाता, दिल्ली की चमक-दमक के बीच आम लोगों से जुड़े आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं पर नजर रखना आपके लिए किसी चुनौती से कम नहीं है यह काम कैसे करते हैं? और यह सब कुछ करने की स्वतंत्रता आप  ने अपने चैनल से कैसे प्राप्त कर ली है?

उत्तर: हाँ मुझे खुद भी यह आश्चर्यजनक लगता है कि अगर मैं किसी दूसरे चैनल में होता तो क्या मुझे  यह सब करने की इतनी जगह मिल पाती?शायद नहीं मिलती! लेकिन पता नहीं! क्योंकि मैंने  किसी दूसरी जगह नौकरी की ही नहीं है तो विश्वास के साथ यह दावा तो नहीं कर सकता, और फिर मैं यह कैसे कह दूं कि दूसरे मुझे करने नहीं देते। लेकिन मैं भी तो यहाँ एक जगह रुक कर काम किया और एक जगह ठहर कर काम करने की बहुत सारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। आप एक ही स्थान पर  रुके रह  गए, आपने अपनी सलाहियत को लेकर कभी बारगनिंग नही  की, तो यह एक कीमत होती है। दरअसल कुछ बातें मेरी फितरत  में शामिल , यह मेरे स्वभाव में है कि हमेशा कुछ नया खोजता   रहता हूँ, लेकिन मैं कुछ पहले से तय नहीं करता। हां किसी चीज के उस   पहलू को जिसे सभी लोग देख रहे हैं में जरा इसमें अलग पहलू खोजने की कोशिश करता हूँ,किसी मंज़र  के दूसरे पहलू को देखने का मेरा यही नजरिया ही मुझे दूसरों से अलग करता है।

प्रश्न: हमने  आपको कई बार लाइव रिपोर्टिंग करते देखा है कि आप आसपास के वातावरण से प्रभावित हुए बिना और भावनाओं में आए बिना किसी का रंग अख्तियार कर लेने के बजाय, हमेशा निष्पक्ष रह कर अपने दर्शकों को बार बार यह समझाने की कोशिश करते देखे जाते हैं कि आज मंच से किए गए इस वादे और दावे को याद रखेंगे। इसका एक दृश्य हमने  28 दिसंबर 2013 को अरविंद केजरीवाल की पहले  शपथ ग्रहण समारोह की रिपोर्टिंग के समय देखा था।

उत्तर : देखिए यह भी प्रशिक्षण की वजह से ही है, ऐसे दृश्य तो हमने अपनी इस छोटी सी उम्र में  ऐसे दृश्य  बहुत देखे हैं, हम से अधिक उम्र के लोगों ने और भी देखा है। जब कोई नेता शपथ ले रहा होता है तो उस समय हर तरफ़ खुशियों व शादमानी का माहौल होता है, पार्टी कार्यकरता  के लिए खुशी का मौका होता है। ये सभी पार्टियां करती हैं। मेरा मानना ​​है कि लोगों को वोट देने के बाद से राजनीतिक पार्टियों से थोड़ा खुद को अलग कर लेना चाहिए तथा उन्हें अब एक नागरिक की भूमिका अख्तियार कर लेना चाहिए और यह  घोषणा कर देना चाहिए कि अब आज के बाद से हम किसी के समर्थक नहीं हैं, सरकार के कामकाज पर नजर रखना चाहिए फिर उसी हालत में अगले पांच साल तक रहना चाहिए, अपने आस पास होने वाले  परिवर्तन पर बारीकी से नजर रखना चाहिए देश और राज्य में होने वाले  परिवर्तन  की  समीक्षा करते रहना चाहिए । दरअसल किसी नेता को उसका शौक पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता है उसे काम करने की जिम्मेदारी दी जाती है।

लेकिन आजकल चुनाव प्रक्रिया को बहुत अधिक प्रभावशालीबनाने  के लिए अनावश्यक छोटी  छोटी योजनाओं का बैनर और पोस्टर, होरडिंग्स  लगाई जाती हैं, राजनीति में सादगी भी तो कोई चीज़ होती है आप  इसके के बजाय अपने काम के माध्यम से लोगों तक पहुँचेंगे यह भी तो संपर्क का एक माध्यम  हो सकता है। अब तो राजनीतिक रैलियों के इशतहार भी एफएम चैनलों पर दिए जाने लगे हैं। इसका क्या मतलब है? सभी पार्टियां  इस मामले में एक दूसरे से आगे  जाने की कोशिश करती देखी जाती हैं। जनता के पैसे को अगर दो अस्पताल को ठीक करने में लगा दें और उसी को नमूने के तौर पर पूरे शहर को दिखा दें तो क्या यह कम बड़ी बात होगी? लोगों को  थोड़ा खबर दार रहना सीखना चाहिए कि देश की जनता अपनी भावनाओं में राजनीति का अनुपात जितना कम रखेंगी  उसके हक़  में उतना ही अच्छा होगा।

प्रश्न: आज से ढाई साल पहले आपने न्यूज लानडरी  को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि 'मुझे ' लुटियन्स जोन  'की' लाल पत्थर पत्रकारिता  में कोई दिलचसपी नहीं है मैं एन डी टी वी  के उस ऑफर को मना कर दिया था "ऐसा क्यों? जबकि मौजूदा पत्रकारिता में परलियामेन्ट  रिपोर्टिंग को तो पत्रकारिता की मेराज माना जाता है?

उत्तर: दरअसल मेरे लिए तो 'मेराज' कोई अच्छी स्टोरी है, वह  जहाँ कहीं  भी मिले मैं उसकी तलाश में रहता हूँ, ऐसा मेरी फितरत  के खिलाफ है मुझे ऐसी जगहों पर जाकर कुछ करना पसंद नहीं है। क्योंकि इन स्थानों पर बस वही दस बारह लोगों से मिलना वहां की हलचल पर नजर रखना होता है आज किसने क्या कहा, क्या नहीं कहा आदि ... हालाँकि  यह भी पेशेवर काम है। जब मैं पुराने लोगों को देखता तो खुद से यह सवाल करता हूँ  कि क्या मैं उन्हीं के जैसा बन जाऊँ और मैं बिलकुल उनके जैसा नहीं बनना चाहता था, जहाँ यह सब होता है कि किसने क्या कहा, किसकी क्या हरकत है,किसी व्यक्तिगत रुचि क्या यह सब समझने और लिखने में मुझे कोई दिल चसपी नहीं है। आप कितने बड़े राजनेता हैं इसका सही मूल्यांकन अपके  कार्य  तय करते  है,  आइए हम जमीन पर चल कर देख लेते हैं कि आपने क्या किया है, कितना काम हुआ है। इसीलिए ऐसी जगहों पर मेरा दिल नहीं लगा, मुझे यह इच्छा नहीं होती कि मैं कार से जा रहा हूँ और लोग मुझे सलाम करें। बल्कि मेरी तो इच्छा यह है कि मुझे कम से कम लोग पहचाने नें।  एक रिपोर्टर के लिए आदर्श यही है कि वह दुनिया को देखे  दुनिया उसे  न देखे।

प्रश्न: भारतीय मुस्लिम समाज की मेन स्ट्रीम  मीडिया एवं समाचार चैनलों से शिकायत है कि उनसे संबंधित  समाचार नजर अंदाज़ कर  है , या तो बहुत कम दिया जाता है और फिर यह भी है कि इसमें नकारात्मक पहलू अधिक हावी रहता है, इसका  कारण क्या है?

उत्तर: समझने की बात यह है कि इस समस्या की जड़ में राजनीतिक हित काम करता  है।   मुस्लिम समाज हो दलित या कोई और कमजोर वर्ग सभी की मीडिया से यही शिकायत है। यही शिकायत उच्च वर्ग के लोग भी कर सकते हैं कि हमारी छवि खराब की जा रही है हालाँकि यही वर्ग मीडिया को नियंत्रित करता है उस पर अपना प्रभाव रखता है। यह स्थिति केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक खास तरह की छवि गढ़ी जाती है। लेकिन ऐसी बात नहीं है कि केवल यही एक तस्वीरहै ।   मीडिया में इन सब की निंदा करने वाले मुस्लिम लेखक भी हैं, हिंदू, सिख और ईसाई लिखने और बोलने वाले भी हैं, लेकिन छविबिगड़ने का  यह अभियान समाप्त नहीं हुआ  है. इसका  मुख्य कारण इसमें काम करने वाले लोग हैं उनके बीच वही टसल  है जो हमारे समाज में पाई पाया जाता  है, और फिर उसमें एक बड़ा रोल एडीटर  का हो जाता है कि वह कैसे अपने रिपोर्टर या लिखने वाले को गाइड करता चले  कि वह खबर लिखते समय किसी तरह की विशेष छवि न उभरने दे। सचमुच यह स्थिति बहुत दर्दनाक है इस तकलीफ को अगर  मैं  मुसलमान और दलित होता तो ज्यादा महसूस कर पाता। जब एक व्यक्ति या एक वर्ग को एक विशेष पहचान देकर अलग कर देते हैं और फिर जब बात करते हैं कि आप तो ऐसे हैं और ऐसे ही होंगे तो इससे उस समाज या व्यक्ति पर क्या  बीतती होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इस से तकलीफ तो होती है, यह लड़ाई जारी रहेगी।

प्रश्न: जब एक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार होता है तो हमारा मीडिया लगातार  समाचार प्रसारित करता है और जब वह अदालत से बाइज़्ज़त बरी होता है तो उस समय हमारे चैनलों और अख़बारों को क्या हो जाता है, अदालत से बाइज़्ज़त बरी होने वाले के साथ मीडिया खुद को क्यों नहीं खड़ा कर पाता, गिरफ्तारी के बाद घंटों पैनल चर्चा प्रसारित करने वाले चैनल निर्दोषों की सम्मानजनक रिहाई पर क्यों आपराधिक चुप्पी साध लेते हैं?

उत्तर: कुछ मामलों में जैसे अक्षर धाम और अहमदाबाद धमाकों के आरोप से जब कुछ लोग बुरी किए गए थे तो उसकी रिपोर्टिंग हुई थी, लेकिन सही  यह है कि इस तरह के मामलों को हमारी राजनीति का  ध्यान नहीं जाता  कि इस मामले को लेकर समाज के पास जाए, अगर हर घटना को हिंदू मुसलमान के नजरिए से देखने के बजाय कानून के नजरिए से देखें तो क्या ही अच्छा होता है। हाँ  निश्चित रूप से ऐसे मुद्दों को उठाने उन पर बात करने के लिए मौजूदा मीडिया में गुनजाइश  जरा कम है। कई बार मुझे भी ऐसा लगता है कि यह मीडिया तो दस प्रतिशत लोगों का भी नहीं है। यह बात आगे तब बढ़ेगी  जब भारतीय समाज के सभी लोग संयुक्त रूप से उसे लेकर आगे बढ़ें उसे चर्चा का विषय   बनाएँ, आपकी यह बात सही है कि कुछ घटनाओं में मीडिया में इसका जिक्र तो होता है लेकिन एक खामोशी नुमा होता है बात आई गई और हो गई  का मोड अपनाया जाता है, बस अपने रिकॉर्ड में दर्ज कर लेने तक के लिए ही होता है। ऐसे मौकों पर न तो मीडिया और न ही राजनीति अवसर का लाभ उठाकर समाज में सांप्रदायिक  मानसिकता के खिलाफ खड़े होते  है बाइज़्ज़त बरी होने की इन खबरों के सहारे सांप्रदायिक ताकतों पर हमला किया जा सकता था, लेकिन ऐसा होता नहीं है।

प्रश्न: मौजूदा दौर में पत्रकारिता के सामने चुनौती है?

उत्तर: हर दौर में पत्रकारिता को समस्याओं का सामना रहा, पत्रकारिता का कोई  गोल्डन  दौर कभी नहीं रहा, हर दौर में अच्छी और बुरी पत्रकारिता करने वाले लोग रहे  हैं और पत्रकारिता में हमेशा संघर्ष करने वाले भी रहे हैं। हम तो लिखना चाहते हैं लेकिन जिस मंच पर लिखना चाहते हैं वह किसी और का है, यह संघर्ष जारी रहती है। कोई ऐसा  दौर  नहीं है जिसे पत्रकारिता का मानक  ठहराया जा सके। यदि आप कोई पैमाना   बना भी लें तो प्रसारण संस्था तो कोई और चला रहा है उसके अपने हित होते हैं और जब उसके हितों प्रभावित  होंगे तो वह पैमाने भी टूटेगा कोई संस्था नहीं चाहती  कि ऐसा कोई व्यवस्था लागू हो जाए, कोई सशक्त एडिटर आ जाए  यह सब कठिनाइयां तो हैं लेकिन इसके बावजूद मैं नहीं मानता कि समाज में मीडिया की जरूरत कभी समाप्त हो जाएगी। अच्छी  बात यह है कि सभी समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद आज भी कुछ लोग सवाल करने की जगह निकाल ही लेते हैं और जनता के विश्वास को किसी न किसी स्तर में अभी भी बरकरार रखने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रश्न: आपने एक बार अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं इस पेशे में पंद्रह वर्ष गुजार लिए हैं जो अब खराब हो गया है। यह कहते हुए अपने लेंहजे में असंतोष और पीड़ा  दिखा कोई दे रही  थी  ऐसा क्यों?

उत्तर: हाँ! वास्तव में अब इस पेशे में मेरा दिल नहीं लगता है, परेशान तो हैं लेकिन बहुत विचार के बाद यह निकल कर आता है कि इसका समाधान मेरे पास नहीं है। हम अच्छा लिख ​​सकते हैं हमें अच्छा लिखने का अवसर प्रदान किया जा सकता है    लेकिन इसकाइ नफ़्रासटरिकचर हमारे पास तो नहीं है। और जब मुझे अपननी   सीमाओं का एहसास होता है तो यही ख़याल मन में आता है कि अगर मेरे पास कोई अवसर होता तो मैं उसे छोड़ कर चला जाता लेकिन मुझे राजनीति नहीं करनी है, मेरे 'मन' की बात यह है कि मेरा दिल बिलकुल भी अब इस पत्रकारिता में नहीं लग रहा है।

प्रश्न: पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय नई पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए अपका  संदेश?

उत्तर: पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बनाने के युवाओं   से मैं कहना चाहूंगा कि पढ़ें, पढ़ें और खूब पढ़ें। जो कुछ वे जानते हैं उसे कभी भी पूरा मने रोजाना  अपनी जानकारी को बढ़ाते  रहें, नई नई पुस्तकों का अध्ययन करें, लोगों से मिलें और हर खबर के दूसरे पहलू की  खोज करते रहें। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम पारंपरिक मौजूदा मीडिया का विकल्प खोजें वेबसाइट और बलागस के माध्यम से ही सही अपने विचारों और भावनाओं को आम करें बेहतर चीजों को जनता तक पहुंचाने का काम कुछ हद तक Alternative Media से किया जा सकता है। अगर दैनिक अखबारों की डेली  रिपोर्टिंग पर एक विश्लेषक अपने ब्लॉग या वेबसाइट पर प्रस्तुत कर दें तो इससे कुछ लोगों तक तो बात पहुंच जाएगी। समाज को कोई मीडिया कोई राजनीतिक दल एक दिन में नहीं बदल सकता   यह बहुत लंबी प्रक्रिया है। इस पेशे में वही लोग आएं जो दिल से आना चाहते हैं जिनका विश्वास जमाने के उतार चढ़ाव से डगमगाए  नही , वे नए नए क्षेत्रों में जाएं नए नए सबजैक्ट्स खोजें खुद जानें और फिर इसके बारे में समाज को बताएँ ये बातें एक पत्रकार के स्वभाव में होनी  चाहिए।

प्रश्न: आज से चौदह साल पहले जब मैं इस पेशे में कदम रखा था तब मेरे क्षेत्र के एक वरिष्ठ जन  मुझसे कहा था 'सुनो मियां' बिना खाए, बिना पाए और बिना सोए अगर काम करने की छमता   है तभी इस  क्षेत्र में कदम रखना?

जवाब: मैं इस तरह के किसी त्यागी  पत्रकार की इच्छा नहीं करता, जब सब लोग कमाई करते हैं जो कुछ करते हैं उसके बदले कुछ उम्मीद रखते हैं तो पत्रकार को भी यह अधिकार है। एक पत्रकार फटे हाल रहे उसके बदन पर ठीक से कपड़े न हों चप्पल फटे हुए हों यह जरूरी नहीं है। एक पत्रकार को भी अच्छा जीवन जीने का अधिकार है और उसका यह  भी कर्तव्य बनता है कि वह अपने बच्चों की अच्छी तरह परवरिश करे उनके लिए बेहतर शिक्षा व्यवस्था करे, हां  उसे भी अच्छा जीवन मिल सकता है, लेकिन हाँ इन सबके बीच वे अपने काम में दिल चसपी लेने वाला मानसिक रूप से तेज तर्रार ाोरपका निशाने बाज हो। उसे यह अच्छी तरह मालूम हो कि उसे कब और कैसे अपना तीर चलाना  है और यह करते समय ध्यान रखे कि उसका कोई नहीं है, यह समाज यह सरकारें और यह संस्थान पत्रकार के साथ नहीं हैं।  पत्रकारिता का यह सिपाही अभिमन्यू की तरह अकेले युद्ध के मैदान में घिरा हुआ है।

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सम्पादक

डॉ. लीना