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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हत्यारों को कठघरे में कौन खड़ा करेगा?

पुण्य प्रसून बाजपेयी / तो गौरी लंकेश की हत्या हुई। लेकिन हत्या किसी ने नहीं की। यह ऐसा सिलसिला है, जिसमें या तो जिनकी हत्या हो गई उनसे सवाल पूछा जायेगा, उन्होंने जोखिम की जिन्दगी को ही चुना। या फिर हमें कत्ल की आदत होती जा रही है क्योंकि दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी के कत्ल का जब हत्यारा कोई नहीं है तो फिर गौरी लंकेश की हत्या के महज 48 घंटो के भीतर क्या हम ये एलान कर सकते हैं कि अगली हत्या के इंतजार में शहर दर शहर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। पत्रकार, समाजसेवी या फिर बुद्दिजीवियों के इस जमावड़े के पास लोकतंत्र का राग तो है लेकिन कानून का राज देश में कैसे चलता है ये हत्याओ के सिलसिले तले उस घने अंधेरे में झांकने की कोशिश तले समझा जा सकता है। चार साल बाद भी नरेन्द्र दामोलकर के हत्यारे फरार हैं। दो बरस पहले गोविंद पंसारे की हत्या के आरोपी समीर गायकवाड को जमानत मिल चुकी है । कलबुर्गी की हत्या के दो बरस हो चुके है लेकिन हत्यारो तक पुलिस पहुंची नहीं है। कानून अपना काम कैसे कर रही है कोई नहीं जानता। तो फिर गौरी लंकेश की हत्या जिस सीसीटीवी कैमरे ने कैद भी की वह कैसे हत्यारों को पहचान पायेगी। क्योकि सीसीटीवी को देखने समझने वाली आंखें-दिमाग तो राजनीतिक सत्ता तले ही रेंगती हैं। और सत्ता को विचारधारा से आंका जाये या कानून व्यवस्था के कठघरे में परखा जाये। क्योंकि दाभोलकर और पंसारे की हत्या को अंजाम देने के मामले में सारंग अकोलकर और विनय पवार आजतक फरार क्यों हैं। और दोनों ही अगर हत्यारे है तो फिर 2013 में दाभोलकर की हत्या के बाद 2015 में पंसारे की हत्या भी यही दोनों करते हैं तो फिर कानून व्यवस्था का मतलब होता क्या है। महाराष्ट्र के पुणे शहर में दाभोलकर की हत्या कांग्रेस की सत्ता तले हुआ। महाराष्ट्र के ही कोल्हापुर में पंसारे की हत्या बीजेपी की सत्ता तले हुई। हत्यारों को कानून व्यवस्था के दायरे में खड़ा किया जाये। तो कांग्रेस-बीजेपी दोनों फेल है। और अगर विचारधारा के दायरे में खड़ा किया जाये तो दोनो की ही राजनीतिक जमीन एक दूसरे के विरोध पर खडी है। 

यानी लकीर इतनी मोटी हो चली है कि गौरी लंकेश की हत्या पर राहुल गांधी से लेकर मोदी सरकार तक दुखी हैं। संघ परिवार से लेकर वामपंथी तक भी शोक जता रहे हैं। और कर्नाटक के सीएम भी ट्वीट कर कह रहे हैं, ये लोकतंत्र की हत्या है। यानी लोकतंत्र की हत्या कलबुर्गी की हत्या से लेकर गौरी शंकर तक की हत्या में हुई। दो बरस के इस दौर में दो दो बार लोकतंत्र की हत्या हुई। तो फिर हत्यारों के लोकतंत्र का ये देश हो चुका है। क्योंकि सीएम ही जब लोकतंत्र की हत्या का जिक्र करें तो फिर जिम्मेदारी है किसकी। या फिर हत्याओ का ये सिलसिला चुनावी सियासत के लिये आक्सीजन का काम करने लगा है। और हर कोई इसका अभयस्त इसलिये होते चला जा रहा है क्योंकि विसंगतियों से भरा चुनावी लोकतंत्र हर किसी को घाव दे रहा है। तो जो बचा हुआ है वह उसी लोकंतत्र का राग अलाप रहा हैं, जिसकी जरुरत हत्या है। या फिर हत्यारो को कानूनी मान्यता चाहे अनचाहे राजनीतिक सत्ता ने दे दी है। क्योंकि हत्याओं की तारीखों को समझे। अगस्त 2013 , नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या। फरवरी 2015 गोविन्द पंसारे की हत्या। अगस्त 2015 एमएम कलबुर्गी की हत्या। 5 सितंबर 2017 गौरी लंकेश की हत्या। गौरतलब है कि तीनों हत्याओं में मौका ए वारदात से मिले कारतूस के खोलों के फोरेंसिक जांच से कलबुर्गी-पानसारे और दाभोलकर-की हत्‍या में इस्‍तेमाल हथियारों में समानता होने की बात सामने आई थी। बावजूद इसके हत्यारे पकड़े नहीं जा सके हैं। तो सवाल सीधा है कि गौरी लंकेश के हत्यारे पकड़े जाएंगे-इसकी गारंटी कौन लेगा? क्योंकि गौरी लंकेश की  हत्या की जांच तो एसआईटी कर रही है, जबकि दाभोलकर की हत्या की जांच को सीबीआई कर चुकी है, जिससे गौरी लंकेश की हत्या के मामले में जांच की मांग की जा रही है। तो क्या गौरी लंकेश की हत्या का सबक यही है कि हत्यारे बेखौफ रहे क्योकि राजनीतिक सत्ता ही लोकतंत्र है जो देश को बांट रहा है । 

या फिर अब ये कहे कि कत्ल की आदत हमें पड़ चुकी है क्योंकि चुनावी जीत के लिये हत्या भी आक्सीजन है। और सियासत के इसी आक्सीजन की खोज में जब पत्रकार और आरटीआई एक्टीविस्ट निकलते है तो उनकी हत्या हो जाती है। क्योंकि जाति, धर्म या क्षेत्रियता के दायरे से निकलकर जरा इन नामों की फेरहिस्त देखे। मोहम्मद ताहिरुद्दीन,ललित मेहता,सतीश शेट्टी,अरुण  सावंत ,विश्राम लक्ष्मण डोडिया ,शशिधर मिश्रा, सोला रंगा राव,विट्ठल गीते,दत्तात्रेय पाटिल, अमित जेठवा, सोनू, रामदास घाड़ेगांवकर, विजय प्रताप, नियामत अंसारी, अमित कपासिया,प्रेमनाथ झा, वी बालासुब्रमण्यम,वासुदेव अडीगा ,रमेश अग्रवाल ,संजय त्यागी । 

तो ये वो चंद नाम हैं-जिन्होंने सूचना के अधिकार के तहत घपले-घोटाले या गडबड़झालों का पर्दाफाश करने का बीड़ा उठाया तो विरोधियों ने मौत की नींद सुला दिया। जी-ये लिस्ट आरटीआई एक्टविस्ट की है। वैसे आंकड़ों में समझें तो सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद 66 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है ।159 आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले हो चुके हैं और 173 ने धमकाने और अत्याचार की शिकायत दर्ज कराई है । यानी इस देश में सच की खोज आसान नहीं है। या कहें कि जिस सच से सत्ता की चूलें हिल जाएं या उस नैक्सस की पोल खुल जाए-जिसमें अपराधी और सत्ता सब भागीदार हों-उस सच को सत्ता के दिए सूचना के अधिकार से हासिल करना भी आसान नहीं है।

दरअसल, सच सुनना आसान नहीं है। और सच को उघाड़ने वाले आरटीआई एक्टविस्ट हों या जर्नलिस्ट-सब जान हथेली पर लेकर ही घूमते हैं। क्योंकि पत्रकारों की बात करें तो अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की रिपोर्ट कहती है कि भारत में पत्रकारों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा नहीं मिल पाती। भ्रष्टाचार और राजनीति तो खतरनाक बीट हैं । 1992 के बाद 27 ऐसे मामले दर्ज हुए,जिनमें पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी । तो गौरी लंकेश के हत्यारों को सजा होगी-इसकी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन-एक तरफ सवाल वैचारिक लड़ाई का है तो दूसरी तरफ सवाल कानून व्यवस्था का है। क्योंकि सच यही है कि बेंगलुरु जैसे शहर में अगर एक पत्रकार की घर में घुसकर हत्या हो सकती है तो देश के किसी भी शहर में पत्रकार-आरटीआई एक्टिविस्ट की हत्या हो सकती है-और उन्हें कोई बचा नहीं सकता। यानी अब गेंद सिद्धरमैया के पाले में है कि वो दोषियों को सलाखों के पीछे तक पहुंचवाएं। क्योंकि मुद्दा सिर्फ एक हत्या का नहीं-मीडिया की आजादी का भी है। और सच ये भी है कि मीडिया की आजादी के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स की 2107 की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम रैकिंग कहती है कि भारत का 192 देशों में नंबर 136वां है । और इस रैंकिंग का आधार यह है कि किस देश में पत्रकारों को अपनी बात कहने की कितनी आजादी है। और जब आजादी कटघरे में है तो हत्यारे कटघरे में कैसे आयेंगे।

(पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार, 06/09/2017को प्रकाशित )

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सम्पादक

डॉ. लीना