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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हिंदी का स्वाभिमान बचाने समाचार-पत्रों का शुभ संकल्प

लोकेन्द्र सिंह/ समाचार माध्यमों में अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हिंदी के लिए सुखद अवसर है कि मध्यप्रदेश के हिंदी के समाचार-पत्रों ने हिंदी के स्वाभिमान की सुध ली है। कथित सरल हिंदी और बोलचाल की भाषा के नाम पर हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी शब्दों की अवैध घुसपैठ को रोकने का पवित्र संकल्प प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों स्वदेश, नईदुनिया, दैनिक नईदुनिया, नवभारत, हरिभूमि, पीपुल्स समाचार, राज एक्सप्रेस, दबंग दुनिया, राष्ट्रीय हिन्दी मेल, अग्निबाण, न्यूज एक्सप्रेस-जबलपुर एक्सप्रेस समूह एवं उनकी न्यूज एजेन्सी ईएमएस और समय जगत ने लिया है।

हिंदी का स्वाभिमान बचाने के इस आंदोलन का सूत्रधार स्वदेश समाचार पत्र बना है। स्वदेश के पवित्र संकल्प और आग्रह को स्वीकार कर इस आंदोलन में एक के बाद एक सभी प्रमुख समाचार पत्र आ रहे हैं। यह चिंता केवल स्वदेश की नहीं है, बल्कि अपनी भाषा को बचाने का कर्तव्य सबका है। अब यह संकल्प प्रत्येक समाचार पत्र को स्वयं ही आगे ले जाना होगा। स्वदेश मात्र उत्प्रेरक की भूमिका में है। इस शुभ संकल्प का बीजारोपण 6 नवम्बर को भोपाल के रवीन्द्र भवन में स्वदेश के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर हुआ। 'हिन्दी समाचार माध्यमों में भाषा की चुनौती' विषय राष्ट्रीय विमर्श में विद्वानों ने हिंदी को विद्रूप करने के षड्यंत्र और उसके खतरों की ओर जब स्पष्ट संकेत किया तब मध्यप्रदेश के उक्त समाचार पत्रों ने हिंदी की अस्मिता के लिए उठकर खड़ा होने का यह संकल्प लिया। हिंदी समाचार पत्रों का यह संकल्प ऐतिहासिक और अनुकरणीय है। बड़े पत्रकारिता संस्थान, जो लगभग कारोबारी समूहों में बदल चुके हैं, उन्हें भी राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व के इस आंदोलन को स्वीकार करना चाहिए। यह हमारी पहचान से जुड़ा मुद्दा भी है।

यह सर्वविधित है कि हिंदी के समाचार माध्यमों में अंग्रेजी शब्दों का बढ़ता प्रयोग भारतीय मानस के लिए चिंता का विषय बन गया है। विशेषकर, हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का चलन अधिक गंभीर समस्या है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी समाचार पत्रों की भाषा से नवयुवक अपनी भाषा सुधारते थे। समाचार पत्र सूचना और अध्ययन सामग्री देने के साथ-साथ समाज को भाषा का संस्कार भी देते थे। कोई शब्द शुद्ध है या अशुद्ध, जब यह प्रश्न खड़ा होता था, तब समाचार पत्रों के पन्नों में देखा जाता था कि वह कैसे लिखा गया है? आज स्थिति यह नहीं है। सामान्य व्यक्ति के अंतर्मन में यह बात गहरे बैठ गई है कि समाचार पत्र शुद्ध भाषा उपयोग नहीं कर रहे हैं। समाचार पत्रों में भाषा का घालमेल है। पाठकों की इस धारणा को 'विश्वसनीयता का संकट' मानकर समाचार माध्यमों को गंभीरता से चिंतन-मंथन करने की आवश्यकता है। हमें यह आत्ममुग्धता छोडऩी होगी कि हम पाठकों की सुविधा के लिए आम बोलचाल की भाषा का उपयोग करते हैं। अखबार को पठनीय बनाते हैं। सरल भाषा में खबर लिखते हैं ताकि सामान्य जन को समझ आ सके। भले ही हम न माने,लेकिन सच यह है कि सामान्य जन अपेक्षा कर रहा है कि हम सम्यक भाषा का उपयोग करें। हिंदी में खबर लिखें, 'हिंग्लिश' में नहीं। आज हम कोई भी हिंदी का समाचार पत्र उठाकर देखें, शीर्षक से लेकर खबर की अंतिम पंक्ति तक अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ पाते हैं। हालांकि इसे अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ कहना ठीक नहीं, यह शब्द अपने आप नहीं आए,हमने इन्हें माथे पर बिठाया है। दरअसल, हम औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हैं। हम यह मान बैठे हैं कि यह देश अंग्रेजी के शब्दों को आसानी से समझता है, अपनी मातृभाषा को ठीक से नहीं पहचानता है। कुछ समाचार पत्रों के मालिकों की यह दलील एक बार मान भी लें कि भारत की संतति अपनी हिंदी को ठीक से नहीं चीन्ह पा रही है। अब यहाँ सवाल है कि उसे हिंदी के विराट स्वरूप से परिचित कराने का दायित्व किसका है? आज अखबारों का जिस तरह का चरित्र हो गया है,उससे तो भारत का सामान्य आदमी अपनी भाषा भूलेगा ही? इसलिए मध्यप्रदेश के प्रमुख समाचार पत्र जब यह शुभ संकल्प ले रहे हैं कि वे अंग्रेजी के शब्दों को बाहर का रास्ता दिखाएंगे, तब सकारात्मक बदलाव की एक आहट सुनाई देती है। अंग्रेजी के महिमामंडन और अपनी अनदेखी से दु:खी होकर एक कोने में खुद को समेटकर बैठी हिंदी थोड़ा मुस्काई है। उसे भरोसा है कि उसके हिंदी पुत्र अब उसका मान बढ़ाएंगे। औपनिवेशिक मानसिकता की बाढ़ में बहकर आई अंग्रेजी शब्दों के अपशिष्ट को उसके आँचल से हटाएंगे। उम्मीद है कि प्रदेश के ये समाचार पत्र अपने संकल्प पर अडिग़ रहेंगे। उक्त सभी समाचार पत्रों ने यदि ईमानदारी से अपने संकल्प को निभाने का प्रयास किया, तब निश्चिय ही सकारात्मक बदलाव संभव है और उनका यह प्रयास पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएग। हिंदी जगत में भी आदरभाव के साथ इस संकल्प का सदैव स्मरण किया जाएगा। इस सबके बावजूद हिंदी समाचार पत्रों का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मभाषा के संवाहक बनें।

'स्वदेश' की राष्ट्रहित की पत्रकारिता को 50 वर्ष पूर्ण होने पर उसके प्रधान संपादक राजेन्द्र शर्मा कहते हैं- 'स्वदेश ने राष्ट्रभाषा की रक्षा में एक पहल करने की कोशिश की है, जिसे सब ओर से उत्साहित समर्थन प्राप्त हो रहा है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उसके संकल्प को हिंदी पत्रकारिता ने अपना संकल्प बना लिया है। इस पहल की फलश्रुति यह है कि अब हिंदी की अस्मिता पर हो रहे वीभत्स आक्रमण का सामना करने की चुनौती हिन्दी के समाचार-पत्रों और अन्य माध्यमों ने स्वयं स्वीकार करने का निर्णय किया है। हिंदी और देश की चिंता बढ़ाने की वर्तमान स्थिति को बदलने  के लिए भोपाल के प्रमुख समाचार पत्रों ने जो प्रतिबद्धता प्रकट की, वह आनंदित करने वाली है।' उन्होंने बताया कि इस आयोजन के पहले 'स्वदेश' की ओर से भोपाल से प्रकाशित होने वाले कुछ समाचार पत्र समूहों के संचालकों और संपादकों से चर्चा कर उनसे निवेदन किया गया था कि, अब समय आ गया है कि जब हिंदी के समाचार-पत्र ही, अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की रक्षा के लिए एकजुट होकर खड़े हों और साफ-सुथरी और जन सामान्य के लिए बोधगम्य हिंदी को बचाने और बनाए रखने की मुहिम में जुट जाएं। हिन्दी समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का अविवेकपूर्ण और फूहड़ ढंग से होने वाला उपयोग, हिंदी के कथित बड़े समाचार पत्रों की ऐसी शर्मनाक दुर्गति कर रहा है कि उन्हें हिंदी का समाचार पत्र कहना या मानना भी अनुचित प्रतीत होता है। कुछ समाचार पत्र तो इस काम को पूरी तरह सोच विचार कर, एक स्पष्ट उद्देश्य के साथ अंजाम दे रहे हैं, किन्तु अधिकांश केवल देखा-देखी में ही, बिना विचारे ही इसके शिकार हो रहे हैं। 'स्वदेश' ने उन सबको टटोला तो सबके मन में पीड़ा थी, वे स्थिति को बदलने को आतुर थे-इसलिये जब उनके सामने यह विचार रखा कि वे अपने समाचार-पत्र की वाणिज्यिक रणनीति 'हिंदी' के आधार पर बनाएं और ऐसी साफ-सुथरी हिन्दी लेकर पाठकों के पास जाएं कि उनका समाचार पत्र बच्चों को सही हिंदी का ज्ञान देगा, उनकी भाषा बिगाड़ेगा नहीं। उनके बच्चों और हिंदी के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करेगा। श्री शर्मा ने बताया- 'हमें यह कहते हुए प्रसन्नता है कि अपने प्रारंभिक दौर में हमने जिनसे भी संपर्क किया, उनमें से किसी ने भी असहमति प्रकट नहीं की। इस पवित्र संकल्प के लिए इन सबका अभिनंदन और अभिवादन। परन्तु यह संख्या यहीं रुकने वाली नहीं है, हर हिंदी समाचार पत्र इस पवित्र यज्ञ में अपनी आहुति समर्पित करने के लिये तत्पर रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं। हम सबसे अनुरोध करेंगे।' 

'हिन्दी समाचार माध्यमों में भाषा की चुनौती' विषय पर राष्ट्रीय विमर्श में केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, वरिष्ठ साहित्यकार एवं अक्षरा के संपादक कैलाशचंद्र पंत (भोपाल), वरिष्ठ पत्रकार प्रभु जोशी (इंदौर), अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति मोहनलाल छीपा (भोपाल), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी (नईदिल्ली), संस्कृति विभाग मध्यप्रदेश के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव (भोपाल), मध्यप्रदेश राष्ट्रीय एकता समिति के उपाध्यक्ष रमेश शर्मा (भोपाल) और देवपुत्र पत्रिका के प्रधान संपादक कृष्ण कुमार अष्ठाना ने अपने उद्बोधन में हिंदी की वर्तमान दशा की ओर संकेत करने के साथ-साथ उसे बाजारवाद के षड्यंत्र से बाहर निकालने का मार्ग भी प्रशस्त किया। यदि सबके मंतव्य को सामूहिक रूप से व्यक्त करना हो, तब कवि दुष्यंत के भाव और शब्द उधार लेने होंगे। सब विद्वानों का मत था- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।' प्रदेश के हिंदी समाचार पत्रों का यह शुभ संकल्प ऐसा ही भगीरथी प्रयास है, जिससे गंगा का प्रवाह संभव है।

समाचार माध्यमों में हिंदी का स्वरूप बिगाडऩे के लिए राष्ट्रीय एकता समिति के उपाध्यक्ष रमेश शर्मा ने माक्र्स के पुत्रों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि जिन दिनों दुनिया में मार्क्स का बोलबाला था, तब भी स्वयं मार्क्स का मानना था कि भारत की समाज रचना ऐसी है कि यहां वर्ग संघर्ष की स्थिति नहीं है, यहां अगर कभी संघर्ष होगा तो जाति और भाषाई आधार पर होगा। मार्क्स वादियों ने 1942 में अंग्रेजों का साथ दिया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद योजनापूर्वक समाचारपत्रों में आ गए। वे जानते हैं कि समाचारपत्र केवल संवाद प्रक्षेपण का ही साधन नहीं है, बल्कि जनमत भी बनाते हैं। इसलिए उन्होंने योजनाबद्ध ढंग से भारतीय भाषाओं पर हमला करना शुरू किया। इनका मूल उद्देश्य भारतीय संस्कृति पर हमला करना है। उन्होंने ध्यान दिलाया कि आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान जिन तत्कालीन समाचार पत्रों का रहा था, आज वे सब बंद हो चुके हैं। लेकिन आजादी के पूर्व जितने भी अंग्रेजों के समर्थक समाचार पत्र थे, वे आज भी चल रहे हैं तथा स्वतंत्र भारत में अंग्रेजियत लाने की मुहिम जारी रखे हुए हैं। वहीं, इंदिरा गांधी कला केन्द्र सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने अपने वक्तव्य में हिंदी के अनन्य सेवक माधवराव सप्रे द्वारा 1906 से 1908 के बीच लिखे गए लेखों को पढऩे की सलाह श्रोताओं को दी। उन्होंने कहा कि उस समय भाषा को लेकर सप्रेजी की चिंता भी वैसी ही थी, जैसी आज हम सबकी है। जोशी ने कहा कि संचार माध्यमों से हमारी अपेक्षा तो ठीक है, किन्तु समाज में भी अच्छी भाषा का वातावरण बनाना चाहिए। समाज ही परिवर्तन ला सकता है। आज मोबाइल और इंटरनेट के माध्यम से स्लेग लेंग्वेज एवं शोर्ट कट भाषा का प्रयोग बढ़ रहा है। यह समाज की भाषा बन गई, फिर क्या होगा? समाज की भाषा में सुधार लाए बिना मीडिया की भाषा में सुधार संभव नहीं है।

आज हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते प्रचलन के लिए संस्कृति विभाग के सचिव एवं साहित्यकार मनोज श्रीवास्तव ने अमेरिका के प्रभाव को प्रमुख कारण बताया। उन्होंने कहा कि आज हिन्दी में अंग्रेजी का बढ़ता प्रचलन गुलामी के कारण नहीं, बल्कि अमरीकी प्रभाव के कारण है। आर्थिक पूंजीवाद ने भाषाई परिवर्तन किए हैं। अब खिचडी भाषा भी नहीं, बल्कि चटनी भाषा बन रही है। वहीं, हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति मोहनलाल छीपा ने समाज से आग्रह किया कि भाषाई गड़बड़ी करने वाले समाचार पत्रों का बहिष्कार किया जाना चाहिए। यकीनन यह एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा। समाज की आड़ लेकर हिंदी में अनावश्यक अंग्रेजी के शब्दों को ठूंसने वाले समाचार पत्रो को आईना दिखाने का काम समाज ही बखूबी कर सकता है। समाज की यह जिम्मेदारी है कि वह अखबारों को बताए कि उसे किस प्रकार की भाषा और किस प्रकार की सामग्री चाहिए। हिंदी में हो रहे घालमेल पर यदि पाठक अंगुली उठाने लगेगा, तब प्रत्येक समाचार पत्र अपनी भाषा ठीक करने के लिए मजबूर हो जाएगा। यदि डॉ. जोशी और श्री छीपा के आग्रह को समाज स्वीकार कर ले तब उक्त समाचार पत्रों को बड़ा सहयोग मिलेगा, जिन्होंने हिंदी को बचाने का संकल्प लिया है। इस राष्ट्रीय विमर्श में वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार प्रभु जोशी ने विचारोत्तेजक उद्बोधन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि हम हिन्दी बोलने वालों ने ही हिन्दी की हत्या की सुपारी ली हुई है। अंग्रेजी का व्यवसाय अब इंग्लैंड नहीं, बल्कि अमेरिका और डब्लूटीओ कर रहा है। जब कोई गुलाम बनने को आतुर हो, तो फिर युद्ध पोतों की क्या आवश्यकता? उन्होंने ध्यान दिलाया कि परिवर्तन सत्ता केंद्रित होते हैं। कांग्रेस शासन ने एक सर्कुलर जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि हिंदी को सरल बनाने के लिए उसमें अंग्रेजी शब्द शामिल किए जाएं। उस सर्कुलर के कारण हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ा। उन्होंने कहा कि आज ऐसी स्थिति बन गई है कि भाषा की शुद्धता की नहीं, बल्कि भाषा को बचाने की बात प्राथमिक है। क्या आप जानते हैं कि बीसवीं सदी में सारी अफ्रीकी भाषाएं नष्ट कर दी गईं। हमारे यहां भी भाषा का व्याकरण खत्म कर उसे लूली लंगडी बनाने का षड्यंत्र चल रहा है। भाषा पर अंतिम हमला एफडीआई ने किया है, उसकी शर्त है, हिंदी को रोमन बनाना। इसलिए जिन अखबारों ने एफडीआई लिया है, वे हिन्दी की बात सुनेंगे ही नहीं। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अपहरण का युग है। राष्ट्रीय विमर्श में हिंदी जगत के प्रमुख हस्ताक्षर कैलाशचंद्र पंत ने कहा कि इस समय स्पष्टत: दो धाराएं  चल रही हैं, एक है जिसे राष्ट्रवादी कहा जाता है, किन्तु मैं उसे सांस्कृतिक धारा कहता हूं और दूसरी है आयातित गौरांग महाप्रभु धारा, जो गोरी चमड़ी के प्रति आसक्त होती है। आजादी के पूर्व इस धारा के प्रतिनिधि राजा राममोहन राय ने तो एक बार कहा भी था कि अंग्रेजों का आना भारत के हित में है। किन्तु इसके विपरीत उस समय सांस्कृतिक पहचान की दूसरी धारा भी प्रवाहित होती रही।

गाल के केशव चन्द्र सेन ने गुजरात के स्वामी दयानंद सरस्वती से आग्रह किया कि वे अपने प्रवचन संस्कृत के स्थान पर हिंदी में दें। लोकमान्य तिलक ने महाराष्ट्र के बुद्धिजीवियों की एक बैठक बुलाई और प्रश्न किया- कोई राष्ट्रभाषा होना चाहिए, अथवा नहीं? और हो तो कौन-सी हो? सर्वसम्मत स्वर आया कि राष्ट्रभाषा अनिवार्य और वह केवल हिंदी ही हो सकती है। उन्होंने बताया कि हिंदी के लिए समर्पित पत्रकारों महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त,बालकृष्ण शर्मा नवीन और गणेश शंकर विद्यार्थी का उल्लेख करते हुए कहा कि इन सबके सामने राष्ट्र की सही तस्वीर थी। आज कुछ समाचार पत्रों द्वारा तो हिंदी से बलात्कार किया जा रहा है। सांस्कृतिक पहचान को मिटाने का प्रयत्न होता रहा है।

बहरहाल, यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हिंदी के समाचार पत्रों के सम्मुख न केवल हिंदी के स्वाभिमान का प्रश्न है, बल्कि समूचे देश की सांस्कृतिक पहचान का भी प्रश्न खड़ा है। मध्यप्रदेश के हिंदी समाचार पत्रों ने अपनी भाषा को बचाने और उसे समृद्ध करने का जो संकल्प लिया है, उसके साथ अन्य अस्मिताओं के प्रश्न भी जुड़े हुए हैं। इसलिए इस संकल्प को सभी संस्थानों को अपने समाचार पत्रों के पन्नों पर उतारना होगा। कहते हैं कि शुभ संकल्पों को पूरा करने में प्रकृति भी सहायक सिद्ध होती है। इसलिए भरोसा किया जा सकता है कि हिंदी के स्वाभिमान के इस यज्ञ में सभी समाचार पत्रों की पवित्र आहुतियाँ भाषाई और सांस्कृतिक वातावरण को स्वच्छ करेंगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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डॉ. लीना