Menu

 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

Print Friendly and PDF

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के स्मृति दिवस पर स्मृति सम्मान की घोषणा

मध्यवर्गीय व्यक्तिवाद के खिलाफ लगातार लड़ते रहे वाल्मीकि कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध की परंपरा से जोड़कर वाल्मीकि जी को देखना चाहिए: प्र्रो. मैनेजर पांडेय, ईश्वर और आस्तिकता के घोर विरोधी थे वाल्मीकि जी: बजरंग दलित साहित्य के लिए साहित्यिक मूल्य के बजाए जीवन मूल्य को कसौटी बनाया वाल्मीकि ने: प्रो. तुलसी राम

नई दिल्ली ।  गलदश्रु भावुकता और श्रद्धालुओं की फूल मालाओं से ख़बरदार रहकर ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनात्मकता को समझा जा सकता है। मध्यवर्गीय अवसरवाद के खि़ला़फ उनकी कहानियों में जो प्रतिरोध दर्ज हुआ है-उसे देखा जाना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रविवार(25 नवंबर ) को आयोजित संयुक्त स्मृति सभा में ये विचार व्यक्त किये गए।

स्कूल आफ सोशल साइंसेज में दलित साहित्य कला केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित सभा में प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध को याद करते हुए प्रतिरोध की उस साहित्यिक परंपरा को रेखांकित किया जिसकी बुनियाद पर ओमप्रकाश वाल्मीकि और विशेष तौर पर दलित रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। वाल्मीकि की भाषा को उन्होंने उल्लेखनीय बताया।

सभा को कुल 11 वक्ताओं ने संबोधित किया। अध्यक्षता करते हुए प्रो. विमल थोराट ने वाल्मीकि जी के साथ अपनी सुदीर्घ वैचारिक निकटता को भावपूर्ण शब्दों में याद करते हुए कहा कि जाति व्यवस्था आज भी मौजूद है, अभी बहुत सारे सवाल सुलझे नहीं हैं, सामाजिक क्रांति चाहने वालों के लिए ओमप्रकाश एक जरूरी लेखक थे, उनका लेखन और उनके विचार आगे भी प्रासंगिक रहेंगे, उनसे आंदोलन को मजबूत बनाने का हौसला मिलता है। उन्होंने हर वर्ष वाल्मीकि जी के स्मृति दिवस पर स्मृति सम्मान देने की घोषणा भी की।

इसके पहले बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि मिथकों की फिसलन भरी राह के प्रति वाल्मीकि जी की रचनात्मक सचेतनता बेहद महत्वपूर्ण है। ईश्वरवाद और आस्तिकता से उनका घोर विरोध था। वे उन्मादी राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के विरोधी थी। उन्होंने ओमप्रकाश जी की अप्रकाशित रचनाओं को एकत्र कररचनावली प्रकाशित करने का प्रस्ताव दिया।

‘घुसपैठिए’ समेत वाल्मीकि की तीन कहानियों पर अपनी बात को केंद्रित करते हुए जेएनयू के शोध छात्र मार्तण्ड प्रगल्भ ने कहा कि मध्यवर्गीय दलित अधिकारी ;घुसपैठिएद्ध के अंतद्र्वंद्व और मेडिकल के दलित छात्र की आत्महत्या के बीच इस कहानी को जिस तरह रचा गया है वह मध्यवर्गीय विरोध-वादी नैतिकता के खिलाफ लेखक के असंतोष की दास्तान बन जाती है। व्यक्ति और लेखक के विचार में अंतर भी हो सकता है और कई बार रचना का अर्थ लेखक की घोषित मंशा से ‘स्वतंत्र’ भी हो सकता है। मार्तण्ड के मुताबिक, वाल्मीकि की कहानियों को जातिगत उत्पीड़न के सिंगिल फ्रेम में रखकर देखने के बजाय हमें हिंदी की अपनी आलोचनात्मक दृष्टि का विकास करना चाहिए और ओमप्रकाश जी की उस कथात्मक अंतदृष्टि को पहचानना चाहिए जो मध्यवर्गीय दलित व्यक्तिवाद के खिलाफ निरंतर संघर्षरत रही है।

प्रो. चमनलाल ने वाल्मीकि की कहानियों में अभिव्यक्त यथार्थ के स्वरूप की अर्थ गांभीर्य को रेखांकित करते हुए उन्हें सच्चा यथार्थवादी लेखक बताया। प्रो. तुलसीराम ने कहा कि हिंदी की रचनाओं में दलित पात्रों के लुम्पेनाइजेशन के विरोध में वाल्मीकि ने जिस साहस से लगातार संघर्ष किया, वह स्मरणीय है। इस प्रसंग में उन्होंने प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी को याद किया। उन्होंने कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि मानते थे कि दलित साहित्य को साहित्यिक मूल्य के बजाय जीवन मूल्य की कसौटी पर देखना चाहिए।

स्मृति सभा में डा. रामचंद्र ने कहा कि उन्होंने सिर्फ दलितों के लिए ही नहीं लिखा है, बल्कि पूरे समाज को बेहतर बनाने के लिए लिखा है।

कवि-कथाकार अनीता भारती ने कहा कि उन्होंने समता और बंधुत्व के सपनों के साथ लिखा और अत्याचार व प्रताड़ना से लड़ने के लिए प्रेरित किया। चित्रकार सवि सावरकर ने कहा कि उन्हें सिर्फ अंबेडकर तक सीमित नहीं रखना चाहिए, उनकी परंपरा बुद्ध और अश्वघोष से जुड़ती है। कवि जयप्रकाश लीलवान, दिलीप कटारिया और प्रो. एसएन मालाकार ने भी सभा को संबोधित किया। सभा के अंत में एक मिनट का मौन रखा गया। (सुधीर सुमन की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति)

 

Go Back

Comment

नवीनतम ---

View older posts »

पत्रिकाएँ--

175;250;e3113b18b05a1fcb91e81e1ded090b93f24b6abe175;250;cb150097774dfc51c84ab58ee179d7f15df4c524175;250;a6c926dbf8b18aa0e044d0470600e721879f830e175;250;13a1eb9e9492d0c85ecaa22a533a017b03a811f7175;250;2d0bd5e702ba5fbd6cf93c3bb31af4496b739c98175;250;5524ae0861b21601695565e291fc9a46a5aa01a6175;250;3f5d4c2c26b49398cdc34f19140db988cef92c8b175;250;53d28ccf11a5f2258dec2770c24682261b39a58a175;250;d01a50798db92480eb660ab52fc97aeff55267d1175;250;e3ef6eb4ddc24e5736d235ecbd68e454b88d5835175;250;cff38901a92ab320d4e4d127646582daa6fece06175;250;25130fee77cc6a7d68ab2492a99ed430fdff47b0175;250;7e84be03d3977911d181e8b790a80e12e21ad58a175;250;c1ebe705c563d9355a96600af90f2e1cfdf6376b175;250;911552ca3470227404da93505e63ae3c95dd56dc175;250;752583747c426bd51be54809f98c69c3528f1038175;250;ed9c8dbad8ad7c9fe8d008636b633855ff50ea2c175;250;969799be449e2055f65c603896fb29f738656784175;250;1447481c47e48a70f350800c31fe70afa2064f36175;250;8f97282f7496d06983b1c3d7797207a8ccdd8b32175;250;3c7d93bd3e7e8cda784687a58432fadb638ea913175;250;0e451815591ddc160d4393274b2230309d15a30d175;250;ff955d24bb4dbc41f6dd219dff216082120fe5f0175;250;028e71a59fee3b0ded62867ae56ab899c41bd974

पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना