कौशल किशोर / लखनऊ। बेबाक, बेलौस शख्सियत, तीखी असहमतियों, आलोचनाओं को भी पचा कर मुस्कराते रहने वाले, अपने आलोचक को सर्वाधिक प्रिय मानने वाले, अपनी उपस्थिति से ही सबको ऊर्जस्वित करने की क्षमता से संपन्न मुद्राराक्षस लखनऊ में अपनों से रुबरू थे। उनके जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर लखनऊ के जयशंकर सभागार में २० जून दिन शनिवार को उन्हें सुनने, उनसे मिलने, उनके बारे में अपनी यादें बांटने तमाम लोग जुटे थे। वे आज 82 साल के हो गये।
सबने अपने-अपने ढंग से अपनी बातें कहीं। वक्ताओं ने कहा कि साहित्य और समाज में जो मजबूत उपस्थिति मुद्राराक्षस ने बनायी है, वह उनकी दृढ़ता, उनके स्वाभिमान और उनके व्यापक अध्ययन के कारण ही संभव हो सकी है। वे अनप्रेडिक्टेबल जरूर रहते हैं लेकिन यही उनके व्यक्तित्व की एक विशिष्टता बन जाती है, क्योंकि यह चौंकाती भी है और मुग्ध भी करती है। कोई भी आसानी से यह अनुमान नहीं लगा सकता कि वे कब कैसा व्यवहार करेंगे। जब आप उनसे कठोरता की उम्मीद करते हैं, वे अत्यंत सरल होकर पेश होते हैं और जब आप अनसे प्रशंसा की उम्मीद करते हैं, वे बरस पड़ते हैं। यह उनकी शख्सियत का अप्रत्याशित व्यवहार ही उन्हें बार-बार विवादों में भी ढकेलता है लेकिन वे इससे कभी डरते नहीं, वे हर परिस्थिति का मुकाबला करते हैं। वे केवल लिखते ही नहीं, लड़ते भी हैं। यहींं उनका व्यक्तित्व प्रथम श्रेणी के मनुष्य का व्यक्तित्व होता है, यही उन्हें अपने समकालीनों से अलग भी करता है।
मुद्राराक्षस पर ढेर सारी बातें हुईं, और जब उन्हें कुछ कहने को कहा गया तो वे फिर सबकी प्रत्याशा को ठेंंगा दिखाते हुए कुछ ऐसा बोल गये जो वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति ने नहीं सोचा होगा। मैं क्या बोलूं, बड़ा अजब लग रहा हैं, बहुत कुछ इस तरह कहा गया जो मुझ पर केंद्रित था, अब मैं क्या कहूं। हम कोशिश करके भी अपनेपन से दूर नहीं जा पाते। मैं अरसे से अपने को दुहरा रहा हूं, यह कष्टकर भी है और सुखद भी है, मजे ही मजे हैं। आप सोच रहे होंगे एक विचित्र असत्य बोल रहा है। मैं एक असत्य बहुत मुश्किल से बोल पाऊंगा कि मैं कहां हूं। ये पहला मौका है जब मैं बिल्कुल बोल नहीं पा रहा हूं। अजब लग रहा है। अब मुझसे न बुलवाइये। ये चीजें वहां ले जाकर खड़ा करेंगी, जहां मैं हूं, मैं नहीं भी हूं। वे बोले और भी बहुत कुछ और मुस्कराते हुए खामोश हो गये। किसी ने समझा, थकान में होंगे, किसी ने समझा ये ढाई घंटे डटकर बैठे रहना क्या कम है, किसी ने आगे भी मार्गदर्शन की उत्कंठा जतायी। घर जाते समय रास्ते में मैंने पूछा कि क्या आप सचमुच बोल नहीं पा रहे थे या आप की स्मृति पर कुछ उम्र का असर है। उन्होंने कहा, हो सकता है लेकिन सब कुछ बड़ा ओवरह्वेल्मिंग था। मैंने प्रतिप्रश्न किया तो क्या आप भावुक हो गये थे? वे बोले हो सकता है। मैंने कहा, ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि आप भावुकता में कुछ न बोल पायें, जिसके पास तर्क की लाठी हो, भावुकता से उसको क्या लेना-देना? वे बोले, हो सकता है। कुछ देर चुप रहे, फिर अचानक बोले, यार कार्यक्रम में एक कमी रह गयी। क्या? मैं उत्सुक था। मेरा जन्म दिन और बिना ह्विस्की के? मैंने तुरंत त्रुटि सुधारी और उन्हें घर छोड़ आया।
उनकी एक पेंटिंग मशहूर चित्रकार राजीव मिश्र ने बनायी थी। उन्होंने ही उन्हें भेंट की। मशहूर आलोचक वीरेंद्र यादव ने याद किये मुद्राजी के साथ के लंबे दिन। आपातकाल के एक उत्पीड़ित के रूप में वे लखनऊ आये। शांतिभंग उपन्यास लिखा। वह आपातकाल की भयावहता पर हिंदी में लिखी गयी अनूठी और प्रभावित करने वाली रचना है। उन्होंने मुद्राजी को लिखे नामवर के पत्रों का संदर्भ देते हुए और अपने ही एक लेख, जो मुद्राजी के खिलाफ था, उनके व्यक्तित्व का विध्वंसक था, का जिक्र करते हुए उन पर मुद्रा की अप्रत्याशित प्रतिक्रिया का उल्लेख किया और कहा कि किस तरह मुद्राजी अपनी तीखी से तीखी आलोचना के प्रति सहिष्णु बने रहते हैं, यह अद्भुत है।
रंगमंच से जुड़े रहे लेखक उर्मिल कुमार थपलियाल ने कहा कि मुद्राजी से आप असहमत हो सकते हैं, उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, पर उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। प्रसिद्ध चिंतक रमेश दीक्षित ने कहा कि मुद्रा जी ने हमेशा सत्ताओं को ठेंगे पर रखा। उन्होंने कविताएं भी लिखीं हैं, शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ है, ये चीजें भी सामने आनी चाहिए। तद्भव के संपादक और कथाकार अखिलेश ने उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं की बारीक पड़ताल करते हुए कहा कि वे जब बोलते हैं तब उनके विचारों में,उनकी भाषा में गहरी ऊर्जा, गहरा ताप दिखायी पड़ता है। शक्ति केंद्रों से टकराने का जैसा हौसला मुद्राजी में है, वह उनके जैसे इंसान में ही हो सकता है। सामाजिक कार्यकर्ता डा. राकेश ने उन्हें बुद्ध, कबीर और गालिब का समुच्चय बताया और उनके विचार की ऊर्जा एवं उनके स्वाभिमान की शक्ति से सबको परिचित कराया। वरिष्ठ उपन्यासकार रवींद्र वर्मा ने कहा कि सतत जागरूकता है तो शरीर भले दुर्बल हो जाय लेकिन मस्तिष्क की प्रखरता बरकरार रहती है। हमें या लखनऊ को ज्यां पाल सार्त्र नहीं चाहिए, हम चाहते हैं कि हमारे लिए मुद्राजी, मुद्राजी ही रहें।
कथाकार और कथाक्रम के संपादक शैलेंद्र सागर ने मुद्राजी के लेखन में विविधता को अप्रतिम बताया। उन्होंने मुद्राजी द्वारा संपादित कथाक्रम के दलित विमर्श अंक का जिक्र करते हुए कहा कि आज भी उसकी मांग आती रहती है। कथाकार शकील सिद्दीकी ने कहा कि असहमति के विवेक को बनाये रखना उनके व्यक्तित्व की बड़ी विशेषता है। सामाजिक कार्यकर्ता वंदना मिश्र ने बताया कि यहां भले ही मुद्राजी पर किसी पत्रिका का विशेषांक न निकला हो लेकिन पाकिस्तान में एक पत्रिका के दो अंक उन पर निकले हैं। मुद्राजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अशोक मिश्र, अजय सिंह, नीरज सिंह, दयानंद पांडेय, आतमजीत सिहं, के के चतुर्वेदी व सुभाष राय ने भी अपनी बात रखी। कार्यक्रम में जुगुल किशोर जी, शिवमूर्ति जी, विजय राय, किरन सिंह, सुभाष कुशवाहा, केके वत्स, राजेश कुमार , बी एन गौर , राम किशोर, श्यामांकुरम, महेंद्र भीष्म, संध्या सिंह, निर्मला सिंह , विमल किशोर , कल्पना पाण्डेय , आदियोग , अरुण सिंह, सतीश चित्रबंशी , विजय माथुर , वीर विनोद छाबरा ,दयानाथ निगम और अन्य तमाम गणमान्य लोग मौजूद थे। संचालन किया लेखक और कवि कौशल किशोर ने। मुद्राजी पर अपनी टिप्पणियों से सबको बांधे रखा । कहा कि मुद्राजी का लेखन नेहरू माडल से मोदी माडल तक सबका क्रीटीक रचता है। धन्यवाद ज्ञापन किया लेखक, कवि भगवान स्वरुप कटियार ने।
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