धारा के विरुद्ध चलने वाला नाटककार
लखनऊ / सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘अलग दुनिया ‘ व भारतेंदु नाट्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधान मे दिनांक 19 मार्च 2017 को भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ के बी ऍम शाह प्रेक्षागृह में आयोजित समारोह में वरिष्ठ नाट्य लेखक राजेश कुमार को दूसरा जुगल किशोर स्मृति पुरस्कार दिया गया । समारोह की अध्यक्षता कर रहे भारतेंदु नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक राज बिसरिया ने कहा कि रंगमंच विचार से बनता है, यह वेशभूषा की नुमाइश नहीं है। चाहे आप रंगमंच के किसी भी रूप में काम कर रहे हो, लेकिन रंगमंच का विचारात्मक होना जरूरी है। आज रंगकर्म में टकराव का वातावरण है और यह एक - दूसरे की इज़्ज़त से ही कम हो सकता है। हमें एक -दूसरे की बात सुननी चाहिए, भले ही हम उससे सहमत हो या न हो। चर्चित कवि नरेश सक्सेना ने नाटक की भूमिका को प्रतिपक्ष की तरह निभाने पर जोर दिया। समसामयिक दौर में रंगमंच की भूमिका को प्रखर और वैचारिक स्तर पर तीव्र होने को कहा । बीच का कोई रास्ता नहीं होता । रंगमंच को तय करना होगा कि किधर जाना है। सत्ता की तरफ या जनता की तरफ । दिल्ली से आये राष्ट्रीय नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक देवेंद्र राज अंकुर ने कहा कि राजेश कुमार ने अपने लेखन से समाज को आईना दिखाने का काम किया है । इनके नाटकों में व्यवस्था का विरोध है, इसलिए मुख्यधारा के रंगमंच में वो स्थान नहीं मिल पाया है, जिसके ये वाजिब हक़दार हैं। सूर्यमोहन क़ुलश्रेष्ठ ने राजेश कुमार के लेखन पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि राजेश कुमार ने ‘सत भासे रैदास ‘ नाटक में रैदास की क्रन्तिकारी छवि को दिखाने का प्रयास किया है। यही नहीं , उन्होंने तफ्तीश जैसा नाटक लिखा जिसमें एक समुदाय विशेष को लेकर समाज के नजरिये को बखूबी दर्शाने की कोशिश की गयी है। धर्म के पाखंड पर लिखा गया नाटक ‘ शुद्धि ‘भी काफी प्रासंगिक है। इप्टा के महासचिव राकेश ने इन्हें रंगमंच के प्रति काफी सजग, जागरूक और गंभीर नजरिया वाला नाटककार बताया। पुरस्कृत नाटककार राजेश कुमार ने कहा कि एक समय रंगमंच विपक्ष की भूमिका में था लेकिन आज प्रतिरोध की ताकत कम हुई है। इसे आंदोलन का रूप देना होग।
अलग दुनिया के महासचिव के के वत्स ने कहा कि जो कहते हैं कि हिंदी में नाटकों का अभाव है या नाट्य लेखन की परंपरा क्षीण होती जा रही है , नाटककार राजेश कुमार उनके लिए जवाब हैं। लगभग 24 नुक्कड़ नाटक और 18 पूर्णकालिक नाटकों के लेखक राजेश कुमार के नाटक केवल कागजों में दर्ज नहीं है, देहरादून -लखनऊ-दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में उनके मंचन की लगातार ख़बरें आती रहती है। इसके अलावा शाहजहांपुर, भागलपुर, सीतापुर, रीवा, कटनी जैसे छोटे शहरों-कस्बों में भी कथ्य और विचार को लेकर इनके नाटक एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है।
यह पुरस्कार सन 2015 में दिवंगत हुए रंगकर्मी और भारतेंदु नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक जुगल किशोर की स्मृति में पिछले साल शुरू किया गया था। पहला पुरस्कार इलाहाबाद के अनिल रंजन भौमिक को मिला था। राजेश कुमार के नाम का चयन करते हुए पुरस्कार की चयन समिति का मानना था कि राजेश कुमार धारा के विरुद्ध चलकर भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लानेवाले नाटककार हैं। उन्होंने अपने नाट्य जगत में उपेक्षित और उत्पीड़ित लोगों के प्रति गहरी पक्षधरता दिखाई है। समय और समाज से करीबी रिश्ता होने के कारण स्त्री, दलित समेत सभी शोषित समाज इनके नाटकों में रचा-बसा है। इनके नाटक केवल इन पर संवेदनात्मक रुख ही नहीं रखता बल्कि उनकी मुक्ति के लिए गहरे तौर पर खुल कर मोर्चा लेता हुआ दिखता है।
पटना में जन्मे और इनदिनों काफी समय से लखनऊ में रह रहे 59 वर्षीय राजेश कुमार कहते हैं कि ' मुझे ख़ुशी हो रही है कि रंगमंच की जिस धारा को एक लंबे समय से नजरअंदाज की जा रही है, उसे इस पुरस्कार के बहाने वो मान्यता दी जा रही है, जिसके वे हक़दार हैं।' हाशिये के समाज को नाटक के केंद्र में लाने के लिए नुक्कड़ नाटक की जरूरत पड़ी तो राजेश कुमार ने लंबे समय तक नुक्कड़ों-चौराहों पर मुहिम के तहत नाटक किया और जब प्रोसिनयंम थिएटर को अभिजन से विलग कर आम दर्शकों की भागीदारी की जरूरत महसूस की तो मंच पर भी नए सौन्दर्य शास्त्र के साथ प्रस्तुत करने में कोई संकोच नहीं किया।
लगभग दो दर्जन नुक्कड़ नाटकों का लेखन कर चुके हैं। नुक्कड़ नाटक 'हमें बोलने दो ‘ और 'जनतंत्र के मुर्गे ' प्रकाशित है। 'नाटक से नुक्कड़ नाटक तक 'और 'मोर्चा लगाता नाटक' नुक्कड़ नाटक पुस्तिकाओं का संयुक्त संपादन भी इन्होंने किया है। एकल नाटक संग्रह ' शताब्दी की परछाईयां ' प्रकाशित है।उनके पूर्णकालिक नाटक 'आंबेडकर और गांधी', 'शुद्धि ' ,'हवनकुंड ' , 'गांधी ने कहा था' , 'तफ्तीश ', 'मार पराजय ', 'सुखिया मर गया भूख से ', ने अपने अलग अंदाज़ एवं तेवर के कारण रंग जगत में एक अलग पहचान बनाई हैं। उनके नाटक 'द लास्ट सैल्यूट' को फ़िल्मकार महेश भट्ट काफी समय से विभिन्न नगरों में करते रहते हैं। 'साड्डा अड्डा' और 'मुक्कद्दरपुर का मजनूँ ‘, जैसी फिल्में भी उनके नाटकों से प्रेरित रहे हैं। राजेश कुमार अपने नाटकों में अक्सर उन विषयों को उठाते हैं जो रंगमंच पर कम ही दिखते रहे हैं। उनके नाटक में विचार प्रधान होते हैं और समाज के अंतर्विरोधों से मन के अंतर्द्वंदों को वे नाटक के मुहावरे में बड़े कौशल से अभिव्यक्त करते हैं। वे हमें उद्वेलित करते हैं और अक्सर ये सवाल भी उठाते हैं कि आखिर हम किस समाज में रह रहे हैं।
पुरस्कार राजेश कुमार के लिए आकस्मिक नहीं हैं। प्रतिबद्ध रंगकर्म करने के लिए 2007 में 'नई धारा रचना सम्मान ', 2008 में साहित्य कला परिषद् , दिल्ली की ओर से नाट्य लेखन के लिए 'मोहन राकेश सम्मान ' , 2009 में 'राधेश्याम कथावाचक सम्मान ', 2012 में दून घाटी रंगमंच , देहरादून द्वारा ' नाट्य रत्न सम्मान', और सेण्टर ऑफ़ दलित आर्ट एंड लिटरेचर , नई दिल्ली द्वारा 'प्रथम दलित अस्मिता सम्मान', और 2015 में सेतु सांस्कृतिक केंद्र, वाराणसी द्वारा 'सेतु राष्ट्रीय नाट्य सम्मान'उन्हें प्राप्त हो चुका है।
राजेश कुमार समसामयिक रंगकर्म पर कहते हैं कि भूमंडलीकरण और नव उदारवाद ने केवल किसानों-मजदूरों और आदिवासियों को ही अपनी जमीन से नहीं उखाड़ा है, बल्कि संस्कृति कर्मियों को भी अपनी जड़ों से विलग कर दिया है। उपभोक्तावाद ने रंगकर्मियों के जनता से रिश्ते को प्रभावित किया है। लेखन हो या रंगकर्म , सब महानगरों तक केंद्रित हो गया है। लोगों के बीच अलगाव इस कदर बढ़ गया है कि वे किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के जीवन को न जानते हैं, न जानने की जरूरत महसूस करते हैं। बढ़ते हुए व्यक्तिवाद को ख़त्म कर रंगमंच को किसान-मजदूर-दलित आदिवासी के बीच जाकर जानना होगा। कमरे में बैठकर केवल कल्पना का सहारा लेकर एकांगी तरीके से कोई कृति रच भी ली गयी तो वह जनपक्षीय नहीं हो सकती है।
भूमंडलीकरण ने पूँजी के आधार पर समाज के लोगों के बीच जो वर्गभेद उत्पन्न किया है, सामंतवाद ने वर्णव्यवस्था को यथावत रखते हुए जातिगत श्रेष्ठता का जो कुचक्र रचा है, उसे तोड़ने के लिए रंगकर्मियों को न केवल डिक्लास होना होगा बल्कि अपने आप को डिकास्ट भी करना होगा।