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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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'जर्नलिज्म 'कमिटमेंट' है और मीडिया 'धंधा' है : पी.सांईंनाथ

हेमंतपटना।  'जर्नलिज्म 'कमिटमेंट' है और मीडिया 'धंधा' है। पत्रकार बढ़ रहे हैं ,लेकिन पत्रकारिता सिकुड़ती जा रही हैं। हिंदी अखबारों में कृषि और किसानों को दो फीसदी और अंगरेजी में एक फीसदी से भी कम कवरेज मिलता है । मनोरंजन, क्राइम और पाॅलिटिक्स मीडिया में सत्तर फीसदी से भी अधिक जगह पाते हैं।  क्राइम अगर सलमान खान या संजय दत्त जैसे सितारों से जुड़ा हो तो उसे हमारी मीडिया में मनोरंजन की तरह परोसा जाता है।  पूरे देश में मैं अकेला रूरल एडिटर/रिपोर्टर था। मेरे बाद कोई नहीं है। मैं जिस 'हिंदू' अखबार में था,अब वह अखबार भी बदल गया है। वह पहले वाला 'हिंदू' नहीं रह गया है”।सुप्रसिद्ध पत्रकार पी सांईंनाथ जब मीडिया के बारे अपनी राय जाहिर कर रहे थे ,तो उन्हें सुन रहे लोगों के सामने एक चमकती हुई दुनिया का अंधेरा उजागर हो रहा था।  

पटना में शुक्रवार को जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान में सांईंनाथ ने अपनी लंबी तकरीर में खेती-किसानी पर संकट,किसान आत्महत्या, भूमि अधिग्रहण और माओवाद पर बातें कीं. अखबार ,न्यूज चैनल व सोशल मीडिया के चरित्र पर चर्चा की। बिहार मे बिताये दिनों को याद किया। अपने अनुभव साझा किये।  उन्होंने संस्थान के सभागार में करीब डेढ़ घंटे और निदेशक श्रीकांत के कमरे में आधा घंटा तक तक अपनी बात रखी।  सांईंनाथ ने कहा, जिस सोशल मीडिया को 'पीपुल्स स्पेस'समझा जा रहा है ,उसमें भी खास तरह के लोगों, सवर्णों का दबदबा है।  आप आरक्षण के पक्ष में बात करके देखिए,आप पर चौतरफा हमले होने लगेंगे। विमर्श से अधिक गालियां पड़ेंगी। आप गौर करें तो मीडिया आपको भगवा रंग में रंगी नजर आयेगी। किसी न्यूज चैनल में एक भी दलित तबके से आया व्यक्ति न्यूज एंकर नहीं है।  ऐसा क्यों है?आज मीडिया का डेमोक्रेटाइजेशन की जरूर है।  क्योंकि इसे रेगुलेट करनेवाली कोई मशीनरी नहीं है। यह पूरी तरह मालिकों की मरजी से चल रहा है।
माओवाद पर अपना नजरिया साफ करते हुए सांईंनाथ ने कहा,रणवीर सेना के गुंडे अगर गरीबों पर हमला करते हैं, तो उसका जवाब देना गरीबों का अधिकार ही नहीं कर्तव्य है।  मैं गांधीवादी नहीं हूं, लेकिन मेरी नजर में हिंसा से सारे मामले नहीं सुलझाये जा सकते हैं। हिंसा का रास्ता एक ऐसा रास्ता है जिसमें कोई नहीं जीतता.माओवादियों की तमाम हिंसा पर राज्य की हिंसा भारी पड़ती है। हिंसा का खामियाजा तो सबसे अधिक गरीब ही भुगतते हैं।  

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सम्पादक

डॉ. लीना