लेखक-पत्रकार डॉ ध्रुव कुमार की पुस्तक "बौद्ध धर्म और पर्यावरण "
संजय कुमार/ वर्तमान दौर में पर्यावरण के समक्ष संकट और ग्लोबल वार्मिंग से पूरी दुनिया चिंतित है । अनेक देशों में बढ़ते औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और जनसंख्या विस्फोट के कारण भूमंडलीय तापमान में वृद्धि हो रही है। रही सही कसर मानव की आधुनिक जीवन शैली ने पूरी कर दी है। नतीजा सबके सामने है- कहीं जलवायु परिवर्तन का संकट है, तो कहीं जल संसाधन की कमी हो रही है। कहीं रेगिस्तान बढ़ रहा है, तो कहीं जंगल कट रहे हैं। कहीं वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां काल कवलित हो रही है तो कहीं पशु-पक्षी के नस्ल खत्म हो रहे हैं।
प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश न सिर्फ अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं बल्कि धरती और पर्यावरण को बचाए रखने के ठोस उपाय की तलाश भी कर रहे हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए अब लोग अतीत में झांक कर इसका हल तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। अतीत के प्रेरक प्रसंगों से वर्तमान और भविष्य को स्वच्छ, सुंदर और सुखद बनाने की कोशिश निरर्थक भी नहीं है जल, मृदा सहित अन्य प्राकृतिक उपादानों को सुरक्षित रखने की कोशिश में हमारी दृष्टि बौद्ध वांड्मय पर टिक जाती है। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में इसे एक सकारात्मक कदम माना जा सकता है।
अभी हाल में प्रभात प्रकाशन से चर्चित लेखक-पत्रकार डॉ ध्रुव कुमार की एक पुस्तक आई है "बौद्ध धर्म और पर्यावरण । "आश्चर्य है कि आज 21वीं सदी में जिस प्रदूषण और प्राकृतिक संतुलन (एनवायरमेंटल बैलेंस ) की बात की जा रही है, चिंता व्यक्त की जा रही है, संतुलन बनाए रखने के उपाय किए जा रहे हैं, अनेक प्रयास हो रहे हैं, इन सभी बिंदुओं पर गौतम बुद्ध ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व पथ प्रशस्त कर दिया था, नियम बना दिए थे । इन नियमों का न सिर्फ उन्होंने स्वयं अनुपालन किया बल्कि भिक्षु संघ, भिक्षुओं, नागरिकों और श्रेष्ठ जनों को भी इसे अपनाने को प्रेरित किया ।
बुद्ध ने भौगोलिक, प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण को शुद्ध रखने पर तो बल दिया ही, भवन निर्माण में भी पर्यावरण और पारिस्थितिकी शुद्धता को रेखांकित किया।
नौ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक से गुजरते हुए गौतम बुद्ध की एक युगांतकारी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं । उन्होंने भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों के रहन-सहन, सोच, पूजा पद्धति, वर्तमान और भविष्य सबको प्रभावित किया । उनके प्रभामंडल से अमीर-गरीब, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष, शहरी-ग्रामीण यहां तक कि पशु-पक्षी कोई भी अछूता नहीं रहा ।
पुस्तक के लेखक का का मानना है कि गौतम बुद्ध ने स्वयं अपने को प्रकृतिमय कर लिया था। प्रकृति की गोद लुंबिनी वन में जन्म लिया, बोधगया में निरंजना नदी के किनारे पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त की, मृगों से पूर्ण हरे-भरे वन ऋषिपत्तन मृगदाय सारनाथ में धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया और प्रकृति की गोद में साल वृक्षों के नीचे कुशीनगर में शरीर का त्याग किया।
कहते हैं जिस व्यक्ति का जन्म जिस वातावरण में होता है वह जीवन भर उसी वातावरण को पसंद करता है यही कारण है कि वह जीवन भर वे स्वयं भिक्षुओं के साथ आम्रवन, वेणुवन, सिसिपावन, न्यग्रोध वन, जम्बु वन, लट्ठिकावन आदि में ही रहे। उन्होंने संपूर्ण उपदेशों के लगभग दो तिहाई उपदेश श्रावस्ती के जेतवनराम और पूर्वाराम विहार में ही दिए ।
इस पुस्तक के जरिए गौतम बुद्ध की प्रकृति के साथ आत्मीयता रिश्ते को बहुत ही सहजता के साथ महसूस किया जा सकता है।
बौद्ध धर्म एवं पारिस्थितिकी संतुलन अध्याय में धम्मपद की एक गाथा में बुद्ध अपने उपदेश में कहते हैं - बुद्धिमान लोगों का उत्पन्न होना सुखकर है और सद्कर्म का वाचन- श्रवण, मनन-पालन सुखदाई है । लोगों का समग्र रूप से एक साथ रहना, समस्या पर विचार करना और निराकरण से उपाय खोजना सुखकर है। और सबसे अधिक सुखदायी है कि सभी मिलकर अपने-अपने मन, वचन और कर्म के दोषों, राग, द्वेष, लोभ, अभिमान,आलस्य, प्रमाद आदि को त्याग कर अपने-अपने चित्त के मैल को निकालकर प्रदूषण मुक्त समाज का निर्माण करें । जैसे सोनार सोने को और लोहार लोहे को तपा कर उसके मैल-मुर्चा को नष्ट कर देता है और साफ सोने और लोहे से सुंदर, आकर्षक आभूषण और औजार तैयार करता है।
बुद्ध का संपूर्ण जीवन-दर्शन प्रकृति और प्राणी मात्र के बीच बेहतर तालमेल का उत्कृष्ट उदाहरण है। "कृषि और पर्यावरण के बारे में गौतम बुद्ध के विचार " अध्याय में स्वस्थ पारिस्थितिकी के विषय में बुद्ध द्वारा उपदिष्ट दो गाथाएं उद्धरणीय है ।
बुद्ध ने कहा है कि स्थावर या जगम , दीर्घ या महान, मध्यम या छोटू, सूक्ष्म या स्थूल, आंखों से दिखाई देने वाले या आंखों से दिखाई न देने वाला, जो दूर है या निकट, जो जन्म ले चुके हैं या जन्म लेंगे, वे सभी प्राणी सुखी हो।
इस स्थिति के लिए सभी प्राणियों की रक्षा को अपने में इस प्रकार की करुणा करो, जैसा कि एक मां अपने पुत्र की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करके करती है।
गौतम बुद्ध ने इन्हीं जीवन मूल्यों के आधार पर ऐसे समाज के निर्माण का प्रयास किया था जिसमें सभी प्राणी सुखी हों, सभी क्षमावान हो, सभी का कल्याण हो और कभी कोई दुखी न हो ।
गौतम बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होंने " सुत्तनिपात"में गायों की सुरक्षा की आवश्यकता पर बल दिया । उन्होंने गोपालन के सद्गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया । उनके अनुसार गाय वनस्पतियों के बढ़ने और मनुष्यों को भोजन और बल देने में सहायता प्रदान करती है। इसलिए उन्होंने लोगों से गौ हत्या नहीं करने को कहा । ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ब्राह्मण मूल ग्रंथों ने बौद्ध धर्म की शिक्षा को धार्मिक रंग दे दिया । "सुत्तनिपात" में गाय की हत्या करने वालों के लिए अगले जन्म में भयानक दुष्परिणाम की चेतावनी दी गई है । गौतम बुद्ध ने प्राणियों के संरक्षण के लिए प्रकृति संरक्षण एवं पारिस्थितिकी विज्ञान के लिए आयामों की ओर सक्रियता जारी रखें । उन्होंने पेड़ पौधे, झील-सरोवर, वन-उपवन, पर्वत श्रृंखला आदि की स्वच्छता के लिए क्रांतिकारी अभियान चलाया। ।
इस बहुआयामी विषय पर विचार करने के लिए बौद्ध वांड्मय स्त्रोतों से परिपूर्ण है। बौद्ध वांड्मय में राजगृह के वेणुवन, अन्य विविध उपवन, जलाशय, छोटी-बड़ी गरम जलधारा, प्रकृति प्रदत पर्वत मालाओं का योगदान रहा है । इसमें बुद्धकालीन पर्यावरण चेतना तथा पारिस्थितिकी विज्ञान की गाथा स्वणाक्षरों में उल्लेखनीय है ।
बुद्ध वनों और वृक्षों को काटने के पूरी तरह खिलाफ थे। उन्होंने वृक्ष काटने मात्र पर पाराजिक नामक अपराध से उत्पन्न होने का नियम बनाया । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वृक्ष और वनस्पतियों का छेदन गौतम बुद्ध को अभीष्ट नहीं था क्योंकि वनो और वन वृक्षों से पर्यावरण पूर्णत : परिशुद्ध रहता है और समाज को वन प्रभूत संपदायें भी प्राप्त होती हैं। बुद्ध ने वृक्षारोपण की प्रशंसा करते हुए कहा कि उद्यानों में तथा वनों में वृक्ष लगाने वाले, नदियों पर पुल बनाने वाले, यात्रियों के लिए उपाश्रय (धर्मशाला) बनाने वाले, प्रपान बना कर जल पिलाने की व्यवस्था करने वाले तथा कुआं खुदवाने से पुरुषों के पुण्य अहर्निश बढ़ते हैं ।
" गौतम बुद्ध की अहिंसा नीति और पर्यावरण की संरक्षा" शीर्षक से चौथे अध्याय में लेखक ने गौतम बुद्ध के जल की शुद्धता को बनाए रखने संबंधी उनके विचारों को सामने लाने की कोशिश की है। " जल ही जीवन है" इस लोकोक्ति को ध्यान में रखकर भगवान बुद्ध ने जल की शुद्धता को बनाए रखने का उपदेश दिया। उद्पनों , तड़ागों और कूपों के जल को परिशुद्ध करने की अनुज्ञा उन्होंने सर्वत्र प्रदान की।
माना जाता है कि गौतम बुद्ध ने वैदिक यज्ञों का जो विरोध किया, उसके मूल में यज्ञयूप के निर्माण के लिए वृक्षों की कटाई थी। " कूट दंत सूत्र " में यह वर्णित है कि कुंटदंत, जो भौतिकी यज्ञ कराता था उसमें, यज्ञकूप के निर्माण के लिए वृक्ष काटे जाते थे, किंतु गौतम बुद्ध ने आध्यात्मिक यज्ञ का निरूपण किया, उसमें वृक्षों की कटाई नहीं थी ।
पुस्तक के अन्य अध्यायों " बौद्ध चिंतन में जीव जगत" "बौद्ध साहित्य में पर्यावरण" जैविक रक्षा और बौद्ध भैषज्य" " अभिधर्म कोश : एक अध्ययन " और " बौद्ध धर्म दर्शन : एक विज्ञान" मे भी प्रकृति और प्राणी मात्र के घनिष्ठ संबंध को बौद्ध धर्म - दर्शन के आलोक में रेखांकित किया गया है ।
इस पुस्तक के जरिए लेखक डॉ ध्रुव कुमार ने यह बताने का प्रयास किया है कि आज विश्व जिस पर्यावरण सुरक्षा को लेकर चिंतित है, ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध ने इस मर्म को समझा और इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने अपने अनुयायियों के माध्यम से इसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास भी किया । उन्होंने दुनिया को यह बताया कि जीवन और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं।
गौतम बुद्ध वर्षा ऋतु छोड़कर वर्ष के शेष महीने वनों और कंदराओं में विहार करते थे। उन्होंने पेड़-पौधों को भी सजीव माना। पर्यावरण संरक्षण नितांत आवश्यक है और इस कार्य में सबों की भागीदारी सुनिश्चित हो, यह पुस्तक इसके पुरजोर वकालत करता है।
पुस्तक- बौद्ध धर्म और पर्यावरण
लेखक- डॉ ध्रुव कुमार
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ- 152
मूल्य- 300 रु मात्र