लाजपत आहूजा के संपादन में इस पुस्तक को लिखा है, लेखक लोकेन्द्र सिंह, दीपक चौकसे और परेश उपाध्याय ने
डॉ. गजेन्द्र सिंह अवास्या/ भारत में पत्रकारिता का एक गौरवशाली इतिहास है। समाज जागरण से लेकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता की चेतना जगाने में पत्रकारों एवं समाचारपत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। भारत में पत्रकारिता के विजयी प्रसंगों में से एक है-‘रतौना आन्दोलन’। गो-संरक्षण के जुड़ा यह आन्दोलन वर्ष 1920 में मध्यप्रदेश के सागर जिले के समीप रतौना नामक स्थान से शुरू हुआ, जिसे प्रखर संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के कलम ने शीघ्र ही राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया। पत्रकारिता के सशक्त भूमिका के कारण यह आन्दोलन अपने परिणाम को प्राप्त कर सका। तत्कालीन मध्यभारत प्रान्त में अंग्रेजों को पहले बार पराजय का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार को अपने निर्णय को वापस लेना पड़ा। जिस जगह प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश के क़त्ल की योजना थी, आज वहां गोवंश की नस्ल सुधार का बड़ा केंद्र है। जहाँ गोवंश के खून की नदी बहनी थी, वहां आज इतना दुग्ध उत्पादन हो रहा है कि आस-पास के लोग शुद्ध दूध पी रहे हैं। इस सम्पूर्ण विवरण को हमारे सामने लेकर आती है, पुस्तक ‘रतौना आन्दोलन : हिन्दू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध’।
पुस्तक का प्रकाशन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ने किया है। मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व जनसंपर्क अधिकारी एवं विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिसचिव लाजपत आहूजा के संपादन में इस पुस्तक को लिखा है, लेखक लोकेन्द्र सिंह, दीपक चौकसे और परेश उपाध्याय ने। यह एक शोधपूर्ण पुस्तक है। पुस्तक में इस आन्दोलन के समर्थन में रतौना से रंगून तक और लखनऊ से लाहौर तक आयोजित हुई सभाओं का जिक्र है। आन्दोलन के भूमिका और परिणाम के साथ ही यह पुस्तक आन्दोलन के प्रभाव को भी पाठकों के सामने लाती है। इस आन्दोलन पर इससे पूर्व बहुत विस्तार से कभी लिखा नहीं गया है। कुछ आलेख एवं संक्षिप्त टिप्पणियाँ जरूर प्रकाशित होती रही हैं। यह पहली पुस्तक है, जो इस महत्वपूर्ण आन्दोलन को विस्तार से देश-समाज के सामने लेकर आई है।
पुस्तक में विस्तार से उन मुस्लिम पत्रकारों का भी विवरण है, जिन्होंने इस आन्दोलन की अगुवाई की। माखनलाल चतुर्वेदी ने स्वयं लिखा है कि इस गो कत्लखाने का सबसे पहला विरोध जबलपुर से प्रकाशित उर्दू समाचारपत्र ‘ताज’ के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन ने किया। बाद में, ब्रिटिश सरकार ने इसके लिए उन्हें जेल में भी बंद कर दिया था। इसी तरह सागर के पत्रकार भाई अब्दुल गनी ने भी आगे रहकर पत्रकार के रूप में और आंदोलनकर्ता के रूप में कत्लखाने का विरोध किया। पुस्तक में बताया गया है कि हिन्दू-मुस्लिम समुदाय ने जब मिलकर इस कत्लखाने का विरोध किया तो उसके कारण स्थानीय स्तर पर एक सामाजिक समरसता एवं सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बन गया। इस वातावरण का प्रभाव यह रहा कि स्थानीय स्तर पर पूर्व से संचालित अन्य कत्लखाने स्वतः ही बंद कर दिए गए।
पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैं। पहले अध्याय में अंग्रेज सरकार की महाकत्लखाने की योजना पर प्रकाश डाला गया है। दूसरे और तीसरे अध्याय में गोवध के विरुद्ध आवाज उठाने वाले मुस्लिम पत्रकार मौलवी ताजुद्दीन एवं भाई अब्दुल गनी की भूमिका पर लिखा गया है। चौथे अध्याय में बताया गया है कि कैसे यह आन्दोलन सामाजिक समरसता का प्रतीक बन गया। पांचवे अध्याय में ब्रिटिश सरकार की पराजय का जिक्र है। छठे अध्याय में दादा माखनलाल चतुर्वेदी के समाचार पत्र ‘कर्मवीर’ की भूमिका पर सामग्री है। इस अध्याय में उस समय कर्मवीर में प्रकाशित समाचार, आलेख, अपील और अन्य सामग्री को पुनः प्रकाशित किया गया है। सातवें अध्याय में रतौना प्रकरण के सन्दर्भ में माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता पर किये गए शोध अध्ययन को शामिल किया गया है। अंतिम अध्याय ‘परिशिष्ट’ है, जिसमें रतौना के विरोध में दिया गया भाषण, विस्मृत की स्मृति और चित्रों में रतौना : कल और आज, को शामिल किया गया है। पुस्तक में कुल 182 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य 200 रुपये है। आप इसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रकाशन विभाग से खरीद सकते हैं।
यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जो आज की पत्रकारिता को दिशा दे सकती है। गो-हत्या और गो-संरक्षण के विषय आज की पत्रकारिता का प्रबोधन यह पुस्तक कर सकती है। भारत के पत्रकारीय इतिहास, आन्दोलन की पद्धति-प्रकृति और सामाजिक मुद्दों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। कुलमिलाकर यह पुस्तक इतिहास के एक स्वर्णिम पृष्ठ को हमारे सामने प्रस्तुत करती है।
(समीक्षक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)