दोनों भाषाओं में वो क्या कर रहे हैं, ये देखना बेहद दिलचस्प
राकेश/ जिन बड़े समूहों के `मीडिया प्रोडक्ट’ हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हैं, वो क्या कर रहे हैं, ये देखना बेहद दिलचस्प है। इन समूहों के अंग्रेजी अखबार अपनी सुरुचि संपन्न लिबरल छवि को बचाने के लिए प्रयासरत दिखाई देते हैं, वहीं हिंदी के अखबार पाठकों को टोकरी भर-भरकर गोबर परोस रहे हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स के पहले पन्ने ही टॉप हेडलाइन में रोजाना कोई ना कोई ऐसी खबर जरूर होती है, जिसका मकसद बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति को आगे बढ़ाना होता है। नवभारत टाइम्स की वही खबर अगर आप टाइम्स ऑफ इंडिया में ढूंढने जाएंगे तो उसका अता-पता नहीं मिलेगा।
आज की मिसाल आपके सामने रख रहा हूं। क्रिकेटर रोहित शर्मा के फिटनेस को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता शमा मोहम्मद ने ट्वीट किया। आईटी सेल इसे हिंदू-बनाम मुसलमान बनाने में जुट गया। नवभारत टाइम्स ने इस खबर को पहले पन्ने के कॉर्नर टॉप पर तीन कॉलम में छापी। हेडलाइन भी पर्याप्त नमक मिर्च लगाकर बनाई गई “रोहित पर कांग्रेस नेता के बिगड़े बोल, पार्टी से मिली फटकार“
सनसनी बढ़ाने के लिए एक गुमनाम प्रवक्ता को कांग्रेस का `नेता’ बना दिया गया और जटमेंट पास करते हुए बयान को `बिगड़े बोल’ करार दिया गया। अब ये देखना बनता है कि इतनी `ज़रूरी’ खबर का टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्या किया? पूरा अखबार खंगाल डाला लेकिन खबर कहीं नज़र नहीं आई। समझना महत्वपूर्ण है कि एक मीडिया समूह के दो अखबारों के काम करने के तरीके में इतना फर्क क्यों है।
गोबर पट्टी अर्थव्यस्था में बड़ा योगदान करे ना करे लेकिन सरकार बनवाने में उसका सबसे बड़ा रोल है। इसलिए उसे जाहिल बनाये रखना सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है। बीजेपी के आईटी सेल के साथ हिंदी के सभी बड़े अखबार रात-दिन इस प्रोजेक्ट में जुटे हैं। पीएमओ से लेकर पार्टी के मीडिया सेल तक हर जगह मॉनीटरिंग भी हिंदी अखबार और हिंदी चैनलों की होती है, अंग्रेजी पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं देता है।
अंग्रेजी अखबारों अपना पाठक वर्ग है, जो एक सीमा से ज्यादा कचरा परोसे जाने पर भड़क सकता है। उसके पास फैक्ट चेक करने के अपने साधन है और सूचना प्राप्त करने के विकल्प भी खुले हैं।
अंग्रेजी का पाठक देश की हालत पर चिंतित रहता है लेकिन आमतौर पर वोट डालने नहीं जाता। चुनाव वाली छुट्टी को वीक एंड के साथ क्लब करके मुंबई वाले पिकनिक मनाने निकल जाते हैं। कमोबेश यही हालत दूसरे बड़े शहरों में भी होती होगी, इसलिए अंग्रेजी के अखबार में कुछ भी छप जाये सरकार को फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन गोबर पट्टी हमेशा गोबर पट्टी बनी रहे, ये चिंता बहुत बड़ी है। हिंदी के अखबार इस चिंता से अवगत हैं और बीजेपी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। जहर की खुराक से किसका फायदा और किसका नुकसान है, ये सोचने वाली बात है।