राजेश कुमार/ आजकल इन दोनों फिल्मो ने भारतीय दर्शको के बीच ग़दर काट रखा है। ये लोगो के जेब और दिमाग दोनों पर जमकर हाथ साफ़ कर रहे है। मुन्नी के गोरे रंग को देखकर करिश्मा का पिता कहता है कि जरूर यह लड़की किसी ब्राह्मण की होगी और जब मुन्नी को गोश्त खाते देखता है तो कहता है कि यह लड़की क्षत्री जाति की होगी। फिल्म के माध्यम से यह बताने कि कोशिश की जा रही है कि गोश्त केवल क्षत्री लोग खाते है, जबकि हकीक़त ये है कि सब लोग खाते है। ब्राह्मण भी जम कर खाते है। और आज से ब्राह्मण लोग गोश्त नहीं खा रहे है, हजारो साल से खा रहे है। चाहे तो शास्त्र के पन्ने उलट कर देख ले। और ये भी जान ले, रंग पर किसी की कॉपी राईट भी नहीं होता। आज गोरे ब्राह्मण ही नहीं काले रंग के भी खूब पाए जाते है। ये ब्राह्मणवादी नजरिया है कि ब्राह्मण गोरे होते है और दलित काले ।
' बाहुबली ' में नायक का पिता बचपन में गन्दप्पा के साथ समान बर्ताव करता है, उसके हाथ का पानी भी पीता है जब कि गन्दप्पा दलित है। और उसी के पुत्र बाहुबली के पैर को गन्दप्पा अपने सर पर रखता है तो वो मना नहीं करता है। जो भैसा को बलि न दे कर अपने को प्रगतिशील साबित करता है, उसे गन्दप्पा के सर पर पैर रखने में कोई संकोच नहीं होता है। अर्थात बाहुबली इस मान्यता में विश्वास करता है कि शुद्र का स्थान क्षत्री के पैर के नीचे है और उसका काम ही है सेवा करना। गन्दप्पा अपनी गुलामी को बड़े गर्व से कहता है कि पंद्रह पीढ़ियों से बाहुबली के खानदान की सेवा करता रहा है और आगे भी करता रहेगा।यही तो है ब्राह्मणवाद! और दोनों फिल्म इस परम्परा को बड़ी चालाकी से निभा रही है ।
बाहुबली की जिस आदिवासी लोगो से युद्ध हो रही है और जिस तरह उसे पराजित दिखाया गया है, वो भी उसी मानसिकता से की गयी है। उसे असभ्य ,जंगली और बुद्धिहीन दर्शाया गया है। उसकी भाषा भी आंचलिक रखी गयी है।
फिल्म देखने से गुरेज नहीं होनो चाहिए लेकिन विवेक खो जाये तो चिंता होती है। थोडा डर भी लगता है ।
https://www.facebook.com/profile.php?id=100000155414226&fref=nf