रमेश यादव। गाँव की जनता अख़बार पढ़कर और टीवी देखकर वोट नहीं देती। प्राइवेट चैनलों की पहुँच शहरी क्षेत्रों, उससे सटे हुए क़स्बों तक सीमित है। सुदूर तक अभी भी वंचित हैं। दूरदर्शन की पहुँच भी सभी गाँवों में नहीं है। जहाँ है, वहां सभी के पास नहीं है। जनता किसको वोट देती है ? क्यों देती है ...? इसका निर्णय वह कैसे लेती ? इसका मनोज्वैज्ञाविक विश्लेषण और परीक्षण करने में टीवी और अख़बार फ़ेल रहे हैं। अपना विश्लेषण वो जाति और धार्मिक हवा पर केन्द्रित रखते हैं। बहस, समाचार और विश्लेषण को जनवादी नज़रिए से देखने की बजाय,विज्ञापन सो होने वाले मुनाफ़े से करते हैं। जिससे जितना विज्ञापन मिलता है, उसके पक्ष में उतनी हवा बनाते हैं,जो कम विज्ञापन देते है, अख़बार उलटकर देख लीजिए, कितना जगह पाते है। जो विज्ञापन नहीं देते वो कवरेज क्षेत्र से बाहर होते हैं....!
चुनाव के वक़्त संवाददाताओं को सख़्त आदेश होता है कि फलाने पार्टी /नेता/ उम्मीदवार को कवर करना है, ढेमाके को नहीं करना है। प्रमाण के लिए कम्युनिस्ट और छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का चुनावी कवरेज का अध्ययन कीजिए ....! और हाँ ! एक बात और किस पार्टी को अधिक कवरेज देना है । किन दो पार्टियों को बराबर का कवरेज देना है। किस नेता को कब,कहाँ और कितना जगह देनी है । यह सब ऊपर से यानी हाई कमान से निर्धारित किया जाता है। इसका पालन सभी संस्करणों के संपादकों को सख़्ती से करना पड़ता है। यहाँ हाई कमान का मतलब है,अख़बार के मालिकान-बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट। मीडिया में सब जगह फ़िक्सिंग है। सिर्फ़ क्रिकेट में ही थोड़ी न है, जिसे ये छापते हैं। अपना फ़िक्सिंग, सिक्रेट रखते हैं।