यह इंदिरा जी की हत्या की खबर थी, जिसे धीरे-धीरे रिलीज किया जा रहा था
नागेन्द्र प्रताप/ 1984 में वह आज ही की तारीख थी जब लखनऊ से पटना जाना तय हुआ था... पाटलिपुत्र टाइम्स के लिए। मैं सुबह-सुबह जागरण के दफ्तर पहुंचा, यह सोचकर कि बीमारी का आवेदन देकर निकल जाऊंगा पंजाब मेल से। गेट पर तिवारी नाम का गार्ड था। उसे बताया कि ये लिफाफा पकड़ो और आद्या जी (समाचार सम्पादक आद्या प्रसाद सिंह) को दे देना...बोल देना बहुत तेज बुखार है...
हम बात कर ही रहे थे कि अंदर से ओंकार बड़ी तेजी से आया और बड़े नाटकीय अंदाज में कुछ इस तरह बोला (जो यहां इस मौके पर लिख नहीं सकता) कि हंसी भी आई, गुस्सा भी। ओंकार चपरासी था और बहुत ही नाटकीय किस्म का प्राणी। उसे झिड़क ही रहा था कि अंदर से टेलीप्रिंटर ऑपरेटर (शायद रामजी नाम था) एक छोटा सा कागज का टुकड़ा लिए भागा-भागा आया... वह टेलीप्रिंटर मैसेज/फ़्लैश था जिसपर सिर्फ इतना लिखा था...''देश के सर्वोच्च नेता को गोली मारी गई"...सन्देश की भाषा बता रही थी कि कुछ बड़ा अनर्थ हो चुका है। तब टेलीप्रिंटर पर सन्देश इसी तरह संयत भाषा में धीरे-धीरे आगे बढ़ते थे...ऐसे मामलों में कोई अंधी होड़ या दौड़ नहीं होती थी, आज की तरह।
यह इंदिरा जी की हत्या की खबर थी, जिसे धीरे-धीरे रिलीज किया जा रहा था। तब तक शायद दस-सवा दस या कुछ और ज्यादा बज चुके थे। तिवारी के हाथ से छुट्टी वाली चिट्ठी का लिफाफा वापस खींच, थोड़ी देर के लिए उधार मांगी गई बड़े भईया की स्कूटर स्टैण्ड पर लगाकर अंदर भागा, तब तक इतने तार आ चुके थे कि सब कुछ साफ होने लगा था। न्यूज रूम में तब तक कोई नहीं आया था। बुलेटिन निकलना ही था...टेलीफोन पर आपसी बात हुई और सब कुछ तय हुआ। मैंने पहला फोन रिपोर्टिंग टीम के वरिष्ठतम साथी वीरेंद्र सक्सेना को किया था। सम्पादक जितेन्द्र मेहता जी उस दिन कानपुर में थे। सप्लीमेंट की तय्यारी हो चुकी थी। मेहता जी का वहीं से फोन आया था।
खैर, न्यूज रूम में दो तरह की खबरें/शीर्षक तय्यार थे। 1 बजे के आसपास पीटीआई से फोन आया था। बड़े सधे और संयत स्वर में उधर से बताया गया कि 'इंदिरा जी अब नहीं रहीं'... यह नारायण साहब (तत्कालीन ब्यूरो चीफ) का फोन था। तब हर बड़ी खबर एजेंसी से इसी तरह कन्फर्म की जाती थी। यह सही है कि सब कुछ बहुत साफ होते हुए, सारी खबरें तय्यार होने के बावजूद जब नारायण साहब ने कन्फर्म किया तो मेरा गला भी भर आया था...कुछ सेकंड के लिए ही सही आवाज बंद सी हो गई थी। (यह भी संयोग ही है कि बाद में पटना हिंदुस्तान में काम करते हुए राजीव गांधी की हत्या की खबर का फोन भी मैंने ही रिसीव किया था...उस दिन हत्या के फ़्लैश के साथ-साथ यूएनआई से फोन भी आया था।)
खैर, मेरी पटना यात्रा स्थगित हो चुकी थी। टिकट रद्द कराने की भी फुर्सत नहीं मिली। सप्लीमेंट निकला...तब तक शहर तेजी से रंग बदलने लगा था। सबसे पहली आग (मेरी जानकारी में) बगल की जनपथ मार्केट में एक सरदार की दुकान में लगाई गई थी। सबसे पहली हत्या 'स्वतंत्र भारत' अखबार के मुख्यद्वार के बाहर विधान सभा मार्ग पर एक सरदार की हुई थी, जिसके लिए अखबार का शीर्षक जिंम्मेदार माना गया था, जिसने सीधे-सीधे बताया था की हत्या करने वाले सिख थे... और भी बहुत कुछ हुआ था... बाद में तो बहुत कुछ हुआ... आमतौर पर शांत रहने वाला लखनऊ पहली बार जलता दिखा था।
उसके बाद के दस दिन भयानक थे। मैं फाइनली 9 नवम्बर को पंजाब मेल से पटना गया था। उसके बाद की कहानी तो बहुत लम्बी है। इस 9 नवम्बर को लखनऊ छूटने के 35 साल पूरे हो जाएंगे। बाकी कहानी फिर कभी।