कैलाश दहिया/ यह अच्छी बात है कि सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों के दिमाग पकड़ में आ रहे हैं। मैंने 02 फरवरी, 2021 को फेसबुक पर अपनी निम्नलिखित पोस्ट डाली थी...
"'दलित साहित्य आंदोलन' को समझने के तत्व :
1. महान मक्खलि गोसाल को महावीर और बुद्ध ने क्यों कोसा?
2. सद्गुरु रैदास के छाती चीर कर जनेऊ दिखाने का क्या रहस्य है?
3. कबीर साहेब ने काशी क्यों छोड़ा? और
4. महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर पर जूते-चप्पल क्यों चलाए गए?
जिस दिन आप इन सवालों के जवाब खोज लेंगे, उसी दिन से आप को 'आजीवक साहित्य आंदोलन और उस की दिशा' समझ में आ जाएगी।"
इस पोस्ट पर अधिकांश दलित लेखकों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वैसे, मेरी इसी पोस्ट पर ही नहीं बल्कि अधिकांश पोस्टों पर दलित चुप्पी साध कर बैठ गए हैं। बावजूद इस के बीच-बीच में कुछ मुंह निकाल ही देते हैं। एच. एल. दुसाध ऐसे ही तांक-झांक करने वालों में से हैं। मेरी इस पोस्ट पर दुसाध ने कुछ यूं लिखा :
"आप धर्म वीर के योग्य शिष्य हैं. जिस तरह मंडल उत्तर काल बहुजनों की गुलामी लगातार करीब आते देख कर भी धर्मवीर जार- सत्ता की थ्योरी विकसित करने में निमग्न रहे वैसे ही आप हो. कल देश को बेचने वाले बजट से जहां संपूर्ण बहुजन समाज उद्भ्रांत है वहां आप हजारो साल पूर्व के गड़े मुर्दे...."(1)
अच्छा हुआ कि दुसाध ने अपनी जुबान खोली, अन्यथा किसी को पता भी नहीं चलता कि इन के दिमाग में क्या भरा है। बताया जा रहा है, ऐसे बोलने वाले यह अकेले नहीं हैं। ऐसी सोच रखने वाले तथाकथित दलित लेखकों को लंबी लिस्ट है। इन के इस कथन, 'जिस तरह मंडल उत्तर काल बहुजनों की गुलामी लगातार करीब आते देख कर भी धर्मवीर जार- सत्ता की थ्योरी विकसित करने में निमग्न रहे वैसे ही आप हो।'(2) अब इन्हें कैसे समझाया जाए, क्या इन्हें पता नहीं कि बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मंत्री पद से इस्तीफा क्यों दिया था? इन सहित सभी दलित लेखकों को पता होना चाहिए, डॉ. अंबेडकर हिंदू कोड के माध्यम से विवाह में तलाक की व्यवस्था ही चाह रहे थे। क्या वजह थी कि इस पर द्विजों ने डॉ. अंबेडकर का विरोध किया था? असल में यह जार ही होता है जिसे तलाक के नाम से बुखार आ जाता है। पता नहीं दुसाध क्यों डर रहे हैं? इन्हें पता होना चाहिए कि 'जारकर्म का सिद्धांत' कार्ल मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' से आगे का सिद्धांत है। इसी से दलित और गरीबों की मुक्ति की राह निकलनी है। अगर समाज में जारकर्म पसरा हो तो समाजवाद और पूंजीवाद दोनों फेल पड़े रहते हैं। वैसे इन्हें एक काम दिया जा सकता है, ये 'डाइवर्सिटी पर जारकर्म का प्रभाव' विषय पर अध्ययन कर लें।
दुसाध का यह कहना कि 'देश को बेचने वाले बजट से जहां संपूर्ण बहुजन समाज उद्भ्रांत है वहां आप हजारो साल पूर्व के गड़े मुर्दे...."(3) इन की इस बात पर बताया जा सकता है, दलित के लिए समाजवाद और पूंजीवाद दोनों ही अच्छे साबित हो सकते हैं। लेकिन, इस देश में तो ब्राह्मण का वाद चल रहा है। इस से पार पाने का इन के पास क्या उपाय है? यह तो डायवर्सिटी के नाम पर इस ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था में ही कुछ पाने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। इन की ऐसी मानसिकता पर यही कहा जा सकता है 'बाप ने मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज।' उधर, आजीवक के नाम से ही वर्णवादियों से अपनी लंगोट संभाले नहीं संभल रही, ये 'गड़े मुर्दे' की बात कह रहे हैं! इन के इस कथन पर डॉ. भूरेलाल चक्रवर्ती जी ने सही ही लिखा है, क्या जारकर्म की संस्कृति, जिस के अंतर्गत दलित बहन-बेटियों के साथ क्रूरता बर्बरता बरती जा रही है, जार व्यभिचार और बलात्कार किए जा रहे हैं, का विरोध करना पूर्व के गड़े मुर्दे उखाड़ना है...?'(4) वैसे इन से पूछा जा सकता है, डायवर्सिटी से करोड़पति बने किसी दुसाध के पल्ले बुधिया पड़ गई तो उस की क्या हालत होगी? इन के पास इस महामारी का कोई इलाज है?
उधर, पता चलता है कि यह कोई डायवर्सिटी मिशन चलाते हैं और दलित साहित्य के नाम पर इसी डाइवर्सिटी पर रद्दी के भाव ढेरों किताबें लिख मारी हैं। पता नहीं इन की किताबों को कौन पढ़ता है? पूछा जा सकता है, यह किस तरह की डायवर्सिटी चाहते हैं? इन के कथन से तो पता चलता है ये जारकर्म की डायवर्सिटी चाहते हैं। यहां प्रसंगवश बताया जा सकता है, एक बातचीत में वरिष्ठ साहित्यकार सूरजपाल चौहान जी ने बताया था- ''रमणिका गुप्ता ने एक बार दलित विषय को ले कर हजारीबाग, झारखंड में एक सम्मेलन किया था। जिस में दलितों के साथ-साथ गैर दलित भी थे। एक नामचीन दलित लेखक रमणिका गुप्ता के पीछे पड़ा रहा। लेकिन रमणिका गुप्ता ने उसे घास तक नहीं डाली। उस ने आक्रोश में चौहान जी से कहा, 'यह रमणिका गुप्ता राजेंद्र यादव और गैर दलितों के साथ तो सो जाती है लेकिन मेरे साथ नहीं सो रही।''' जान जाइए, दुसाध की डाइवर्सिटी भी कुछ ऐसी ही है।
इन के कथन 'आप धर्म वीर के योग्य शिष्य हैं।' इस के लिए हार्दिक आभार। मेरे लिए यह गर्व की बात है कि इन्होंने मुझे डाॅ.साहब का योग्य शिष्य माना है। इन के इस कथन पर डॉ. भूरेलाल चक्रवर्ती जी ने लिखा, 'शिष्य योग्य हो या अयोग्य, हम अपने ऐतिहासिक आधार पर स्वतन्त्र और मौलिक चिंतन को विकसित कर ने वाले अपने महापुरुषों के शिष्य हैं। इस में कुछ भी छुपाने वाली बात नहीं है... डा. धर्मवीर का दर्शन ऐतिहासिक आधार पर विकसित हुआ है। बिना इतिहास बोध के कोई आंदोलन नहीं चलता और न ही बिना इतिहास बोध के कोई कौम आगे बढ़ती है।'(5) इस कथन पर इन की तरह से किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। वैसे, ये बोलते भी तो क्या? फिर, इन से पूछा जा सकता है, मैं तो डॉ. धर्मवीर का योग्य शिष्य हूं, ये अपनी बताएं कि किस की सीख में हैं? इसे दलितों का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए जो अपने महान दार्शनिक की नहीं सुन रहे। वैसे यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। दलितों का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है। दलितों ने अपने महान चिंतकों सदगुरु रैदास और कबीर साहेब की कहां सुनी? महान मक्खलि गोसाल को तो ये बिसरा ही बैठे। फिर, डॉ. धर्मवीर भी तो गोसाल, रैदास और कबीर की परंपरा में हैं, ये उन की कहां सुनने वाले हैं!
अगर किसी को दलितों के गुलामी के कारण ढूंढने हों तो उसे दलितों की सोच और इन की मानसिकता में ढूंढना चाहिए। किसी ने इन्हें गुलाम नहीं बनाया हुआ, ये खुद ही गुलाम बने हुए हैं। अब दुसाध के बारे में क्या बताया जाए, यह कोई अलग थोड़े हैं। इन्हें जारकर्म का पक्ष लेने की क्या जरूरत पड़ गई? दलितों को खबर होनी चाहिए, जारकर्म का पक्ष लेना ही ब्राह्मण की गुलामी करना होता है। फिर, ये चले हैं डाइवर्सिटी की बात करने! पूछा जा सकता है ये किस से डाइवर्सिटी मांग रहे हैं? क्या इन्हें पता नहीं कि दलित साहित्य की लड़ाई ही जारकर्म के खिलाफ है। यह जारकर्म ही हैं जिस की वजह से दलित सदियों से गुलाम बने रहे। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये राजेंद्र यादव के एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी चेले की सीख में हों, जिस की कथा-कहानियां तब तक पूरी नहीं होती जब तक उन में जारकर्म का तड़का ना लग जाए। क्या दुसाध को पता नहीं कि सद्गुरु रैदास क्या कहते हैं :
"रैदास पीव इक सकल घट, बाहर भीतर सोइ।
सब दिस देखउ पीव-पीव, दूसर नाहीं कोई।।"(6)
फिर, इन्हें पता होना चाहिए, कबीर साहेब अपनी लाठी से जार की कमर ही तोड़ देते हैं। फिर पता नहीं, इन को कैसे भ्रम हो गया है कि इन की तुलना महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर से की जा रही है! इन की मानसिक रुग्णता का हमारे पास कोई इलाज नहीं है। ऐसों के लिए ही कबीर साहेब कह गए हैं, 'कूकर सम भूंकत फिरै, सुनी सुनाई बात।'(7) फिर, धर्मवीर तो आज के कबीर हैं। अच्छा होगा, ये जिस 'साइको' नामक ग्रंथि से पीड़ित हैं उसे अपने दिमाग से बाहर निकाल फेंके, वरना आगरे के पागलखाने में एक पागल और बढ़ जाएगा। जो अपनी दाढ़ी के बाल नोचते हुए डायवर्सिटी-डायवर्सिटी चिल्लाता दिखाई देगा।
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संदर्भ :
1, 2, 3- मेरी 02 फरवरी, 2021 की फेसबुक
पोस्ट पर HL Dusadh Dusadh का कमेंट।
4, 5 - मेरी 02 फरवरी, 2021 की फेसबुक
पोस्ट पर भूरे लाल चक्रवर्ती जी का कमेंट।
6, 7 - महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110 002, पृष्ठ- 495, 354