डॉ.तारिक फातमी / बिहार में उर्दू के विकास और प्रचार-व-प्रसार के नाम पर सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित मुशायरों (कवि सम्मेलनों) के आयोजन से क्या उर्दू का विकास हो रहा है ? यह सवाल भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद्, नई दिल्ली और बिहार उर्दू अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में "उर्दू फिक्शन के 100 वर्ष, तहकीक और तनकीद" विषय पर पटना में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में उठा है.
क्या यह आयोजन सिर्फ चन्द लोगों को आर्थिक लाभ पहुंचाने का माध्यम बन कर तो नहीं रह गया है ? क्या उर्दू की तरवीज-अशाअत ( प्रचार - प्रसार) का यही एक रास्ता रह गया है ? क्या उर्दू अकादमी और उर्दू निदेशालय का यह दायित्व और कर्तव्य नहीं है कि वह सरकारी और निजी स्कूलों में उर्दू की पढ़ाई सुनिश्चित करने के दिशा में कारगर प्रयास करे ?
क्या इन सरकारी संस्थाओं के तथाकथित उर्दू प्रेमी अधिकारियों ने राज्य में संचालित निजी मिशनरी स्कूलों और केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा संचालित केन्द्रीय विद्यालयों में उर्दू भाषी छात्रों को उर्दू के स्थान पर संस्कृत पढने पर मजबूर किये जाने के मामले को गंभीरता के साथ राज्य सरकार और केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के समक्ष उठाने की कोशिश की ? शायद नहीं, क्योंकि जब बच्चे उर्दू पढेंगे तो इन संस्थानों की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी और उर्दू के तथाकथित बहीखा़हों की दूकानों पर ताले लग जायेंगे, लाल और ब्लू बत्तियां लगीं गाडि़यां छिन जायेंगी।
इसलिए उर्दू के नाम पर दुकानदारी जारी रहनी चाहिए, कवि सम्मेलनों और मुशायरों के साथ - साथ मुर्गो-मीही और बिरयानी का दौर भी चलते रहना चाहिए। आखिर हम,उर्दू के सिपाही हैं कोई सीमा सुरक्षा बल के जवान थोड़ी हैं कि जली हुई रोटी और हल्दी में पानी मिली दाल खा कर अपनी मादरी ज़ुबान का तहफ्फुज़ करें।
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लेखक उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हैं । उनकी नजर में आज उर्दू की हालत कुछ ऐसी हो गयी है।