प्रदीप द्विवेदी/ टीवी पर खबरों को लेकर प्रसिद्ध पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के हवाले से जो कुछ कहा गया है, यदि वह अर्धसत्य है तो भी एक बड़ा सवाल फिर गहरा रहा है कि... क्या दुनियाभर में टीवी की बहस में भी संभव है- फिक्सिंग?
इसका जवाब- हां भी है और नहीं भी!
हां, इसलिए की बहस के दौरान कई बार ऐसा महसूस होता है? और, नहीं इसलिए कि इसे साबित करना इतना आसान नहीं है? कौन अरविंद भाई की तरह माफी मांगता फिरे!
टीवी की बहस में फिक्सिंग... सब्जेक्ट सलेक्शन से लेकर बहस में शामिल होनेवाले प्रतिनिधियों के चयन और बहस संचालन के दौरान महसूस की जा सकती है!
आइए! देखते हैं, कहां-कहां टीवी पर बहस के दौरान फिक्सिंग की गुंजाईश हो सकती है?
टीवी पर बहस के दौरान इनका अप्रत्यक्ष उद्देश्य किसी निर्णय... किसी विचार के समर्थन या विरोध में माहौल तैयार करना भी हो सकता है, इसलिए सब्जेक्ट का सलेक्शन, फिक्सिंग का पहला दरवाजा माना जा सकता है?
इसके बाद बहस के लिए सलेक्ट किए जाने वाले चेहरों का नंबर आता है? बहस के उद्देश्यपूर्ण मनचाहे नतीजों के लिए सब्जेक्ट के पक्ष के सक्षम चेहरे तो विपक्ष के कमजोर चेहरे, ताकि दर्शकों तक मनचाहा मैसेज प्रभावी तरीके से पहुंच सके!
सबसे महत्वपूर्ण है... बहस से पूर्व मीडिया हाउस और बहस में भाग लेनेवाले व्यक्ति के बीच सब्जेक्ट के संबंध में विस्तृत चर्चा, कि... सब्जेक्ट के समर्थन में क्या-क्या तर्क हैं? क्या-क्या तथ्य हैं? उनसे क्या सवाल पूछे जाने हैं? और विरोधियों को किन-किन सवालों से घेरना है?
इसके बाद महत्वपूर्ण भूमिका है संचालक की, कि वह समर्थकों को कितना अवसर देता है? किस तरह उसका बचाव करता है? विरोधी को कैसे उलझाता है? उसे सवालों से कैसे घेरता है?
हो सकता है, समय आने पर ऐसी फिक्सिंग वाली बहसों का सच भी सबके सामने आए, लेकिन फिलहाल तो... टीवी की बहसों का आनंद लें, दिल पर नहीं लें, अपने काम के तर्कोंतथ्य तलाशें और समय आने पर उनका राजनीतिक उपयोग करें, क्योंकि ज्ञानीजन कह गए हैं... अच्छा लगे उसे अपना लो, बुरा लगे उसे जाने भी दो यारों!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पलपल इंडिया डॉट कॉम के सम्पादकीय निदेशक हैं)