कई एंकर कभी-कभी ऐसी बात कर बैठते हैं जिससे उनके भीतर की मानसिकता दिखाई देने लगती है
निर्मल रानी/ इसमें कोई शक नहीं कि गंभीर समाचारों के गंभीर समाचार वाचकों अथवा कार्यक्रम प्रस्तोताओं का वह दौर अब समाप्त हो चुका है जब हम जी बी रमन, शम्मी नारंग और सलमा सुलतान जैसे अनेक गंभीर किस्म के समाचार वाचकों से गंभीर किस्म के निष्पक्ष समाचार गंभीरता पूर्वक सुना करते थे। उस दौर में कार्यक्रम प्रस्तोता केवल मीडिया अर्थात् जनता तथा व्यवस्था के बीच के एक माध्यम मात्र के रूप में हमारे सामने होता था और अपनी गंभीर, शांत तथा आकर्षक आवाज़ व अंदाज़ के साथ जनता तक पूरी सफलता से समाचार अथवा अन्य कार्यक्रम पहुंचाया करता था। परंतु आज के टेलीविज़न की दुनिया तो फिल्म उद्योग की तरह कृत्रिम दुनिया हो गई है। यहां भी अब थ्रिल, एक्शन, ड्रामा, डॉयलॉग, नमक- मिर्च- मसाला, चीखना, चिल्लाना, अभिनय करना, आग लगाऊ बातें करना तथा अंत्तोगत्वा टीवी चैनल की टीआर पी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक चले जाना जैसी विषमताएं शामिल हो गई हैं।
इन सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि आज देश के अधिकांश टीवी चैनल अपनी नैतिक जि़म्मेदारियों को निभाने के बजाए इसे पूर्ण रूप से व्यवसायिक नज़रिए से देखने लगे हैं। गोया सरकार को खुश करने के लिए कोई भी टीवी चैनल किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। ज़रूरत पडऩे पर सत्ता के इशारे पर यह टीवी चैनल समाज में दरार पैदा करने वाले कार्यक्रम बनाकर पेश कर देते हैं तो कभी ऐसे भडक़ाऊ मुद्दों पर दो पक्षों की बहस करा देते हैं जिससे समाज में ध्रुवीकरण पैदा हो और इस का लाभ उस को मिले जिसके इशारे पर यह ‘मदारी के जमूरे’ बने हुए हैं।
टेलीविज़न चैनल मालिकों, संचालकों तथा पक्षपाती टीवी एंकर्स अथवा प्रस्तोताओं के इस पक्षपातपूर्ण व गैरजि़म्मेदाराना रवैये का नतीजा यह हो रहा है कि इनके माध्यम से व इनकी कोशिशों से जिस भारतवर्ष को ज्ञानवान, सुदृढ़ व स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाने चाहिए वही भारत कहीं धर्म के नाम पर विभाजित हो रहा है, कहीं आवश्यक तथा विकास संबंधी बातों को दरकिनार करते हुए गैरज़रूरी बातों में देश को उलझाया जा रहा है। मीडिया की मुख्य जि़म्मेदारी गलत को गलत और सही को सही कहने के बजाए झूठ का ही महिमामंडन किया जा रहा है। हद तो यह है कि मीडिया जिसे कि सत्ता को हमेशा सवालों के घेरे में रखना चाहिए वह अब सत्ता के बजाए विपक्ष को ही सवालों के घेरे में खड़ा रखने पर उतारू है। इसी मीडिया से जुड़े कई जि़म्मेदार एंकर व प्रस्तोता तो कभी-कभी ऐसी भडक़ाऊ व गैर जि़म्मेदाराना बात कर बैठते हैं जिससे उनके भीतर की मानसिकता, उनकी सोच तथा उनकी नीयत सब कुछ सामने दिखाई देने लगती है। और इनकी ऐसी गैरजि़म्मेदाराना हरकतें समाज के उस वर्ग को विचलित कर देती हैं जिसपर निशाना साधकर यह लोग अपने शब्दबाण छोड़ते हैं।
पिछले दिनों पद्मावती फिल्म के बहाने देश में अभिव्यक्ति के विषय को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ गई। रानी पद्मावती मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित पद्मावत के मुख्य किरदार के रूप में सबसे पहले उनके ग्रंथ पद्मावत में प्रकट हुई या वह वास्तव में चित्तौडग़ढ़ की रानी का नाम था यह एक विवाद तथा शोध का विषय है। इस विषय पर अहिंसक रूप से चर्चा होनी चाहिए तथा किसी धर्म, समुदाय अथवा समाज विशेष की भावनाओं का निश्चित रूप से आदर भी किया जाना चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान भी होना चाहिए। परंतु इस मुद्दे पर छिड़ी बहस पर चर्चा के दौरान किसी जि़म्मेदार टीवी एंकर या प्रस्तोता द्वारा कोई ऐसी बात कर देना जिससे विषय पद्मावती के बजाए किसी दूसरे धर्म अथवा समुदाय की ओर ज़बरदस्ती घुमा दिया जाए और समाज में भूचाल पैदा कर दिया जाए यह आखिर कैसी और कहां की पत्रकारिता है?
पिछले दिनों रोहित सरदाना नामक एक प्रसिद्ध टीवी एंकर जो अपनी पक्षपातपूर्ण शैली के लिए प्रसिद्ध हैं तथा 13 वर्षों तक एक ऐसे टीवी चैनल से जुड़े रहे हैं जो इन दिनों सत्ता पक्ष के प्रवक्ता के रूप में संचालित हो रहा है, यहां तक कि इस चैनल का मालिक इस समय सत्ताधारी दल का राज्यसभा का सदस्य भी निर्वाचित हो गया है। इस चैनल को छोडऩे के बाद पिछले दिनों रोहित सरदाना ने देश के एक दूसरे मशहूर राष्ट्रीय चैनल में अपनी सेवाएं देनी शुरु की हैं। पिछले दिनों रोहित सरदाना और उनके नए टीवी चैनल की मशहूर एंकर व प्रस्तोता अंजना ओम कश्यप के बीच पद्मावती और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे विषय पर एक दिलचस्प बहस होती दिखाई दी। इस बहस के दौरान सारी बातें तो लगभग तमीज़, तहज़ीब तथा सीमाओं के भीतर होती रहीं परंतु अचानक रोहित सरदाना ने बातचीत के दौरान ईसा मसीह की मां हज़रत मरियम व हज़रत मोहम्मद की पत्नी हज़रत आयशा तथा हज़रत मोहम्मद की बेटी हज़रत फातिमा के नाम के साथ एक ऐसा शब्द जोड़ा जिससे इस धर्म के अनुयायी ही नहीं बल्कि इन महिलाओं को सम्मान की नज़र से देखने वाले किसी भी धर्म के लोग पसंद नहीं कर सकते। रोहित सरदाना ने सेक्सी शब्द का प्रयोग केवल इन महिलाओं के नामों के साथ ही नहीं किया बल्कि ऐसे अभद्र शब्द को उसने हिंदू देवियों के नाम के साथ भी जोड़ा। क्या किसी जि़म्मेदार टीवी प्रस्तोता पर यह बात शोभा देती है कि वह हिंदू-मुस्लिम व ईसाई धर्म की पूज्य देवियों या स्त्रीयों के साथ ऐसे बेहूदा शब्द लगाकर उनके अनुयाईयों व प्रशंसकों को ठेस पहुंचाए?
पिछले दिनों कश्मीर से लेकर दिल्ली तथा कई दक्षिणी व पूर्वी राज्यों में यहां तक कि सैकड़ों कस्बों व गांवों में हिंदू-मुस्लिम, शिया-सुन्नी व ईसाई समाज के लोगों द्वारा रोहित सरदाना के विरुद्ध प्रदर्शन किए गए। कई जगह इसके विरुद्ध काले बैनर व काले झंडे निकाले गए व कैंडल मार्च किया गया। देश के कई राज्यों के विभिन्न स्थानों में सरदाना के विरुद्ध प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई है।
रोहित सरदाना ही नहीं और भी कई टीवी एंकर्स इस समय सत्ता के प्रवक्ता बने बैठे हैं तथा सत्ता के दलाल के रूप में हर वह भाषा बोल रहे हैं जिससे सत्ताधारी दल को लाभ पहुंचे। विद्वेषपूर्ण,भडक़ाऊ तथा समाज में धर्म के आधार पर विभाजन करवाने जैसी जि़ मेदारी इन टीवी चैनल्स ने ऐसे ही प्रस्तोताओं के माध्यम से संभाल ली है। इनमें कई मशहूर प्रस्तोता तो ऐसे भी हैं जिनका खुद का आपराधिक रिकॉर्ड है वे रिश्तखोरी के आरोप में जेल की हवा भी खा चुके हैं। परंतु यह हमारे देश तथा व्यवस्था का दुर्भाग्य है कि आज ऐसे लोग न केवल अपने चैनल के माध्यम से प्राईम टाईम के कार्यक्रमों में जनता से रूबरू रहते हैं बल्कि सरकार ने उनकी इन्हीं कारगुज़ारियों की वजह से उन्हें ज़ेड प्लस की सुरक्षा भी मुहैया कराई हुई है।
उपरोक्त हालात निश्चित रूप से बेहद खतरनाक हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ऐसे गैरजि़म्मेदार, पक्षपाती तथा केवल सत्ता की भाषा बोलने वाले कार्यक्रम प्रस्तोताओं की वजह से डगमगाने लगा है। ऐसे में मीडिया घराने के स्वामियों का यह दायित्व है कि वे अपने मीडिया हाऊस को ऐसे गैर जि़म्मेदार प्रस्तोताओं से मुक्त रखें तथा पक्षपातपूर्ण व विद्वेषपूर्ण प्रसारणों पर पूरा नियंत्रण रखें। देश की एकता,अखंडता तथा सामाजिक सद्भाव व्यवसायिक अर्थ लाभ तथा टीआरपी की बढ़ोतरी से कहीं ज़्यादा कीमती व ज़रूरी है। ऐसे बदज़ुबान व गैर जि़ मेदार प्रस्तोताओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी की जानी चाहिए तथा सभी जि़म्मेदारी टीवी चैनल्स को ऐसे एंकर्स से परहेज़ भी करना चाहिए।
(ये लेखिका के निजी विचार हैं )