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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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पत्रकार विकल्प नहीं है और न होना चाहिए

रवीश कुमार / यह सही है कि हम घोर राजनीतिक ध्रुवीकरण के दौर में जी रहे है । वैसे यह ध्रुवीकरण भी माडिया और सोशल मीडिया के नज़दीक रहने वाले लोगों के बीच ज्यादा दिखता है । आप लोगों के बीच जाइये तो वहाँ न कोई बीजेपी को लेकर मुखर है न कांग्रेस को लेकर क्षुब्ध । जनता जानती है कि दोनों दल उसके अपने हैं । न तो भाजपाई होना बुरा है न कांग्रेसी होना अपराध । जब जीतनराम माँझी की तीन दिन पुरानी पार्टी में नेता और समर्थकों की कमी नहीं है तो बीजेपी कांग्रेस की क्या बात की जाए ।

निश्चित रूप से इस वक्त बीजेपी प्रबल है और उसका वर्चस्व दिखता है । बीजेपी से इत्तफ़ाक़ न रखने वाले या सब कुछ एकतरफा न हो जाए ऐसी सोच रखने वाले जरूर आशंकित होते होंगे लेकिन ठीक ऐसी ही सोच रखने वालों की तब क्या हालत होती होगी जब देश में सिर्फ कांग्रेस का राज था । कांग्रेस के अलावा कुछ नहीं दिखता था । कोई कुछ सुनता नहीं था ।

त्वरित संचार माध्यमों में सरकार जितनी निरंकुशता नहीं बरत रही होती है उससे कहीं ज्यादा बरतती हुई बताई जाती है । अगर ऐसा होता तो सरकार भूमि अधिग्रहण पर नहीं बदलती, व्हाट्स अप के मैसेज को डिलिट न करने के प्रस्ताव को वापस न लेती और शिक्षा मित्रों के प्रदर्शन के जवाब में प्रधानमंत्री को कहना नहीं पड़ता कि वे यूपी के मुख्यमंत्री से बात करेंगे । बहुत उदाहरण ऐसे भी है जिनसे बताया जा सकता है कि सरकार को कोई फ़र्क नहीं पड़ता । एफ टी आई आई से लेकर व्यापम पर प्रधानमंत्री की चुप्पी तक अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।

हमारे देश में सरकारें ऐसे ही चलती रही हैं । नहीं चलनी चाहिए वो अलग बात है । इससे आप संतोष कर सकते हैं कि कुछ नहीं बदला है । कांग्रेस की सरकार होती तो इसकी क्या गारंटी थी कि यह सब नहीं होता । कपिल सिब्बल ने दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ क्या किया ये सबको पता है । आज वो अपनी वकालत में व्यस्त हो गए हैं । न तो सलमान सड़क पर दिखते हैं न सिब्बल । हाँ तब भी विरोध करने वाले अपने दम पर कर रहे थे और आज भी वे अकेले ही कर रहे हैं

आज भी नियुक्तियाँ से लेकर तबादले में राजनीतिक निष्ठाओं का खेल चल रहा है । मेरिट के लिए कोई पैमाना नहीं है ।इनमें से कोई कम ईमानदार है तो कोई ज्यादा बेईमान । शहीद स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी कहा करते थे कि पत्रकार को हमेशा सत्ता के प्रतिपक्ष में होना चाहिए ।  लेकिन कई लोग इसे प्रतिपक्ष के विकल्प के रूप में देखने लगते हैं । लचर और आलसी विपक्ष मुखर पत्रकारों का परजीवी बन जाता है ।  हमारा काम है हर चीज़ को सवाल की नज़र से देखना ताकि सरकार जो कह रही है उसका दूसरा पक्ष तब तक बनता रहे जबतक ज़मीन पर उसका कहा हुआ आकार में नहीं दिखता है।जनता की आवाज़ सरकार तक पहुँचे और सरकार का काम जनता तक ।

मैं यह बात युवा पत्रकारों से इसलिए साझा कर रहा हूँ ताकि वे भी ऐसी स्थिति को भाँप सके । हम भले सरकार के दबाव में आकर काम न करें लेकिन हम विपक्ष का विकल्प नहीं है। जिन्हें सरकार से दिक्कत है, बीजेपी से समस्या है और संघ से परेशानी है उन्हें सड़क पर आना चाहिए । संगठन बनाकर काम करना चाहिए और जोखिम उठाना चाहिए । जब भी मेरे सवाल बीजेपी के प्रति सख्त होते हैं तब जो मैसेज आते हैं उनमें दो प्रकार के भाव होते हैं । एक में सख्त सवाल पूछने के पत्रकारीय धर्म की तारीफ होती है और दूसरे में उनके अपने बीजेपी विरोध के कारण तारीफ । यही चीज़ यूपीए सरकार के समय होती थी ।तब बीजेपी के लोग मेरी वाहवाही करते थे । बड़े बड़े नेता जिनमें से कई मंत्री हैं उन्हें मैं निर्भीक और राष्ट्रवादी लगता था ।

हम पत्रकारों को इन सब बातों से सतर्क रहना चाहिए । अगर आप इसके असर में आए तो सारे लोग मिलकर आपसे वो उम्मीद करने लगेंगे जो आपको नहीं करना चाहिए । उम्मीद और उलाहनाओं के बीच एक पत्रकार कब फ़िसल जाता है पता नहीं चलता । हम ब्रांड बनकर भी बिना ब्रांड के आटे के भाव जैसे ही रहते हैं । वैसे कांग्रेस के प्रति सख़्त सवाल करने पर भी मैसेज आते हैं । तब मैं राष्ट्रवादी पत्रकार हो जाता हूँ !

मैं अपना काम करता हूँ । काम में ख़ूबी भी है और ख़ामी भी । उसकी अपनी सीमाएँ भी हैं लेकिन मैं विपक्ष नहीं हूँ । तटस्थता अब ढोंग है । इसका इस्तमाल भी बीजेपी समर्थकों को जायज़ ठहराने और विरोध में सवाल करने वालों को नाजायज़ ठहराने में होता है । सांप्रदायिकता और जातीय हिंसा के ख़िलाफ़ खुली प्रतिबद्धता रखिये । मैं सेकुलर हूँ और रहूँगा और आपको भी सेकुलर होना चाहिए । मेरे लिए सेकुलर होना राजनीतिक चालबाज़ी नहीं है । प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि सांप्रदायिकता ज़हर है । इसका मतलब सेकुलर होना ही अमृत है ।

जो लोग कथित रूप से बीजेपी विरोध में लगने वाले सवालों के कारण मेरी तारीफ करते हैं उसमें भी दो तरह के होते हैं । एक जो बोलने के ख़तरे उठाकर बेबाक अपनी बात रखते हैं, और दूसरे जो मेरे ज़रिये ख़ुश होकर अपने बहिखाते में चुपके से कुछ करने का हिसाब जोड़ लेते हैं । दूसरे प्रकार के ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए । वे आपको मसीहा बनाकर खुद पपीहा गान करना चाहते हैं । मसीहा मत बनिये । जब इनकी बारी आएगी तो ये भी मौजूदा सरकार की तरह हो जाएँगे ।

मेरा इस दूसरे टाइप के लोगों से कुछ कहना है । अगर आपको बीजेपी या संघ से समस्या है तो इंडिया हैबिटेट के सेमिनार रूम से बाहर निकलिये ।थोड़ा पैदल चलकर लोगों के बीच जाइये । बात कीजिये । गाँवों में रूकिये जैसा संघ के लोग करते हैं फिर विरोध कीजिये । मेरा कंधा आपके लिए नहीं है ।

पत्रकार आपका विकल्प नहीं है और न बनना चाहिए । कांग्रेस को अगर दिक्कत है तो वो मुद्दों को उठाए, बसपा पूछे कि बीजेपी राज में दलितों के प्रति हिंसा क्यो हैं । वो संघर्ष करे । हम बस रिपोर्ट करेंगे । राजनीतिक दल अगर राजनीतिक गतिविधि करेंगे तो मीडिया दिखाने के लिए बाध्य होगा और जनता नोटिस में लेगी । आज नेहरू को लेकर गैर सरकारी मंचों से इस तरह से हमले हो रहे हैं उसे लेकर किसे मुखर होना चाहिए आपको बताने की ज़रूरत नहीं है । खादी संकट में है और सेल के डबल हो जाने के दावे का कहाँ असर है ये खबर मैं किसी के विरोध में नहीं करता । राजनीतिक दलों को इतना शौक़ है तो वे गाँव गाँव घूमकर बुनकरों की समस्या जानें ।फिर वे संघर्ष करते हैं तो आप ठीक से कवर कर दीजिये । जो कमज़ोर होता है उसे एक नंबर ज्यादा दे सकते हैं बस ।

यह सही है कि मीडिया का खेमाकरण संपूर्ण हो चुका है । पार्टियों के हिसाब से चैनल और पत्रकार हो गए हैं । जिस तरह से कांग्रेस राज में थे उसी तरह से बीजेपी राज में है ।फ़र्क यह है कि संगठन क्षमता के दम पर कांग्रेस समर्थक पत्रकारों या स्तभंकारों की पहचान उजागर कर दी जाती है और बीजेपी समर्थक पत्रकारों को लेकर सब चुप हो जाते हैं । जैसे सिर्फ कांग्रेस की दलाली हो सकती है और बीजेपी की तो हमेशा हलाली होगी । इसके बावजूद आप सभी पत्रकारों को इस खाँचे में नहीं बाँट सकते हैं । सबको पता है वो दस बीस कौन हैं और किसकी तरफ है । आज भी खुलकर ग़ैर टीवी मीडिया में सरकार के दावों पर सख्त सवाल हो रहे हैं तब भी जब सत्ता सुख के कारण सुर्ख़ियाँ उसके पक्ष में गढ़ी जा रही हैं ।

खबरों की दुनिया में एक किस्म का भयानक असंतुलन है । पत्रकारों से निजी बातचीत में सत्ता को लेकर डर का ज़िक्र आता रहता है । एक डर है फोन रिकार्ड का । अजीब है बेख़ौफ़ फोन पर सबको गरियाते रहिए । निजी जीवन के ये सुख जरूरी हैं । बात पब्लिक हो जाएगी तो हो जाए । पत्रकारों के कुछ डर वाजिब है और कुछ अपनी कमज़ोरी छिपाने के लिए भी हैं । अपने अतीत के कारण भी कई पत्रकार दूसरी सरकार में चुप रहने का रास्ता खोजते रहते हैं । साहस का इम्तहान तो देना होगा लेकिन अपने पेशागत जवाबदेही के लिए दीजिये, राजनीतिक विकल्प बनने के लिए नहीं । काम कीजिये और मस्त रहिये ।

( रवीश जी के ब्लॉग कस्बा से साभार )

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना