जगमोहन फुटेला / पंजाबी की एक कहानी है। एक जवान लड़की घर में झाडू लगा रही थी। पेट खराब था। अचानक हवा निकल गई। कोने में बंधी बकरी किसी और वजह से हिली होगी। लड़की ने उस का पैर पकड़ लिया।
पकड़ के बैठी ही थी कि माँ आ गई। उस ने पूछा ये क्या? बेटी ने बताया। दूसरा पैर माँ ने पकड़ लिया। लगी निहोरें करने। बताना मत। बड़ी बदनामी हो जाएगी। इतने में पिता आया खेत से। उसे पता चला तो तीसरा पैर उस ने पकड़ लिया और उस के बाद चौथा स्कूल से वापिस आए भाई ने।
इतने में देखा तो गाँव का नाई आया हजामत के बदले में अपना छमाही अनाज लेने। वो हैरान। वो बोला बकरी को मार ही डालोगे क्या। कितना चिल्ला रही है। छोड़ते क्यों नहीं उस को? लड़की का बाप बोला, तुझ से क्या छुपाएं। तू तो घर का ही आदमी है। कल इस का रिश्ता भी तो तू ही ले के जाएगा कहीं। तुझे पता होना चाहिए। लेकिन अपने तक ही रखना। किसी को बताना मत। जवान लड़की का मामला है।
नाई को जैसे ही पता चला वो पास ही पड़ा कनस्तर ले के छत पे चढ़ गया। लगा जोर जोर से पीटने और चिल्लाने कि भाइयो इन की लड़की के साथ ऐसा वाकया हो गया है। लेकिन बेटियां चूंकि सब की सांझी सांझी होती हैं इस लिए किसी को बताना मत।
लियाकत शाह के मामले में भारतीय मीडिया वही कर रहा है। उसे पता ही नहीं है कि उस के ऐसा करने से हजामत असल में किस की हो रही है। जिस राज़ को जम्मू कश्मीर की सरकार और पुलिस ने काम सिरे चढ़ जाने तक केंद्र सरकार तक को नहीं बताया उसे भारतीय मीडिया ने कनस्तर बजा बजा कर हिजबुल, मुजाहिदीन, लश्कर से ले कर अल कायदा तक को बता दिया है। ये भी कि भैया जम्मू कश्मीर की पुलिस तुम्हारे ही बंदों से तुम्हीं को मरवाना चाहती है। इस लिए अपने बंदों को आने मत देना। रास्ता नेपाल से है। उस पे नज़र रखना और अगर कुछ लोग आ चुके हों अब तक जम्मू कश्मीर पुलिस के साथ तो उन की वापसी का इंतजाम कर लेना। उन तरीकों से जो तुम्हें आते हों। बाकी रही सही कसर अब हिंदुस्तान में शुरू हो चुकी जांच पूरी कर देगी। हो सकता है कल को जांच करने वाले कहें कि इतना खतरा तो मुजाहिदीन से नहीं है भारत को, जितना जम्मू कश्मीर की पुलिस से है।
कम से कम टाइम्स नाव पे अरनब गोस्वामी तो यही कह रहे हैं। कोई जांच होने से भी पहले। पलट पलट के पूछा जम्मू कश्मीर के एक अधिकारी से उन्होंने कि अगर लियाकत नेपाल से श्रीनगर के रास्ते में कोई वारदात कर देता तो? जैसे पूछ रहे हों, बुआ की मूछें होतीं तो?
हाँ, वो ताया होती। लेकिन है तो नहीं न। कोई वारदात हुई तो नहीं न? और वैसे भी वारदात करने वाले अपनी बीवी और बीमार बेटी को साथ ले के नहीं निकलते एक मुल्क से चल के दूसरे से होते हुए तीसरे में वारदात करने।
राजनीति और कूटनीति बहुत दूर की बात है। घर में बहुत सी बातें होती हैं जो माँ बेटे और बेटी बाप से छुपा के रखती है। आँख की शर्म और रिश्तों के लिहाज का एक पर्दा हमेशा पड़ा रहता है परिवार में। लेकिन कौन समझाए भारतीय मीडिया के इन महान पत्रकारों को कि आतंकवाद के खिलाफ चल रही इस लड़ाई में देश को कितना पीछे धकेल दिया है उन्होंने। कनस्तर पीट पीट के जो चिल्ला रहे हैं उन पत्रकारों को तो पता भी नहीं होगा कि अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता से आतंकवादी संगठनों को कमज़ोर करना भी एक नीति है और इस का प्रयोग बहुत पहले इंग्लैंड और फिर अब से कोई 25 वर्ष पहले पंजाब में भी हो चुका है। लेकिन अपनी सयानप (मैं तो कहूँगा, बेवकूफी) के चक्कर में भारतीय चैनलों ने उस सारी तैयारी, कोशिश और योजना का सत्यानास कर दिया। अब सदियां लग लग और पता नहीं (खून की) कितनी नदियां बह जाएंगी सीमा पार आतंकवादियों को ये यकीन आने में कि वे मदद करेंगे तो भारत उनकी हिफाज़त करेगा।
एक बार फिर साफ़ हो गया है कि भारतीय मीडिया जाने या अनजाने अपने देश के साथ गद्दारी भी करता है!
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