जनता अब मजे के लिए अखबार पढ़ती है/ मीडिया अब मनोरंजन का सर्वोत्तम माध्यम है...
पलाश विश्वास / कौन अखबार किस भाषा में बात कर रहा है,पाठक से बेहतर जानता नहीं है कोई। कौन अखबार कब कब बदला है ऐन मौके पर,पाठक से बेहतर जानता नहीं है कोई। दर्शक की नजर में हम्माम मे सारे के सारे नंगे हैं। फिर भी शर्मोहया की दीवारें अपनी जगह थीं, जो अब ढह रही है। फासीवाद के रंग चाहे जो हो रंग बिरंगी चेहरे सारे एक हैं। जनता से बेहतर कोई न जाने है।
जनता को मालूम है कि जो बी हो जिस भी पार्टी या विचारधारा का, उसके हक में कोई नहीं है और न उसके हकहकूक का हिसाब कहीं होना है और नउसकी सुनवाई कहीं है।
जनता अब मजे के लिए अखबार पढ़ती है।
मीडिया अब मनोरंजन का सर्वोत्तम माध्यम है।
हम जैसे गुलाम लोगों के लिए भी यह बेहद पीड़ा का कारण है।
नौकरी के चंद महीने अभी बाकी हैं।
हम एक्सटेंसन के मोहताज भी नहीं हैं।
जैसे हमारा प्रमोशन हुआ नहीं है, जाहिर है कि हमारा एक्सटेशन भी होने वाला नहीं है। सच कहने के लिए अगर एक्सप्रेस समूह मुझे नौकरी से निकाल फेंके अभी इसी वक्त तो भी मुझे परवाह नहीं है।
कम वक्त नहीं बिताया हमने यहां। बसंतीपुर की गोबर माटी से सने नैनीझील के ठीक ऊपर डीएसबी कालेज में दाखिला लेने के साथ साथ मध्य झील पर उनियाल साहब के दैनिक पर्वतीय में हाईस्कूल पास करते ही 1973 से लगातार लगातार कागद कारे कर रहा हूं। अविराम। नौकरियां करने लगा 1980 से। कोलकाता में एक्सप्रेस समूह की सेवा में हूं 1991 से।1980 में झारखंड घूमने के बहाने दैनिक आवाज में लैंड करने के बजाय मीडिया का मतलब हमारे लिए एकमात्र पक्ष जनपक्ष का रहा है।जीना भी यहीं ,मरना भी यहीं। इसके सिवाय जाना कहीं नही है।
मीडिया में दिवंगत नरेंद्र मोहन से बदनाम कोई मालिक संपादक हुआ कि नहीं, मुझे मालूम नहीं है। उन नरेंद्र मोहन ने मुझे बिना अपायंटमेंट लेटर मेरठ जागरण में खुदा बनाकर रखा और जिन्हें मैं मसीहा मानता रहा, उनने मुझे कुत्ता बनाकर रखा।
जबतक मेरठ में मैं रहा, 1984 से लेकर 1990 तक घर घर जाकर इंटर पास बच्चों को भी मैंने पत्रकार बनाया है। जो भी भर्ती हुई है, विज्ञापन मैंने निकाले। परीक्षा मैंने ली। कापियां मैंने जांची। भर्ती के बाद उन्हें ट्रेन और ग्रुम भी मैंने किया। यह नरेंद्र मोहन जी की मेहरबानी थी। उनने कभी दखल नहीं दिया। चाहे हमारी सिफारिश पर किसी का पैसा न बढ़ाया हो लेकिन अखबार में क्या छापें न छापें, यह फैसला उनने हम संपादकों पर छोड़ा है हमेशा।
जब नैनीताल की तराई में महतोष मोड़ सामूहिक बलात्कार कांड हो गया शरणार्थियों की जमीन हथियाने के लिए,रोज मैं जागरण के सभी संस्करणों में पहले पन्ने पर छपता था। मुख्यमंत्री थे मेरे ही पिता के खास मित्र नारायणदत्त तिवारी जिनके खिलाफ पहाड़ और तराई एकजुट आंदोलन कर रहा था। सारे उत्तरप्रदेश में, हर जिले में और यूपी से भी बाहर तिवारी के इस्तीफे की मांग गूंज रही थी। उस दरम्यान कम से कम तीन बार उन्हीं नरेंद्र मोहन से तिवारी ने मुझे फौरन निकालने के लिए कहा था। यूं तो तिवारी से नरेंद्र मोहन के मधुर संबंध थे और तिवारी से हमारे भी पारिवारिक रिश्ते थे। न मैंने रिस्तों की परवाह की और न नरंद्रमोहन ने। उनने साफ मना कर दिया तीनों बार।
हमने आदरणीय प्रभाष जोशी और ओम थानवी के खिलाफ लागातार लिखा है। बदतमीजियां की हैं। लेकिन एक्सप्रेस में इतनी आजादी रही है कि किसी ने कभी मुझसे जवाबतलब नहीं किया कि क्यों लिखते हो या किसी ने कभी मना भी नहीं किया लिखने को। समयांतर में लगातार थानवी की आलोचना होती रही और समयांतर में मैं लगातार लिखता रहा।
थानवी से मुंह देखादेखी बंद थी। लेकिन थानवी ने कभी न मुझे रोका न टोका। उनकी रीढ़ के बारे में तो मैं लिख ही रहा था। क्यों लिख रहा था,जिन्हें अब भी समझ में न आया, वे बाद में समझ लें।
मीडिया वही है। हम भी वही है।
मीडिया पर कोई पाबंदी है नहीं।
आपातकाल ने साबित कर दिया कि चीखों को रोकने की औकात हुकूमत की होती नहीं है हरगिज।
बार बार साबित हो गया है कि आजाद लबों को हरकतों से रोक सके,ऐसी औकात न बाजार की है और न हुकूमत की है। भले सर कलम कर लें।
मुक्त बाजार और विदेशी पूंजी के हक में वफादारी वजूद का सवाल भी हो सकता है।इतनी लागत है, इतना खर्च है और मुनाफा भी चाहिए तो बाजार के खिलाफ हो नहीं सकते।
यह हम बखूब समझते हैं और जिंदगी में नौकरी से फुरसत मिलने पर इसीलिए कमसकम अखबार निकालने का इरादा नहीं है।
मीडिया सत्ता की भाषा बोल रहा है है और जुबां पर कोई पहरा है नहीं दरअसल। न आपातकाल कहीं लगा है। सत्ता ने किसी को मजबूर किया हो,ऐसी खबर भी नहीं है। बाजार का हुआ मीडिया ने सत्ता को भी अपना लिया है। और मडिया अब बेदखल कैंपस में हमारे बच्चों के खिलाफ है। बेदखल कैंपस में बच्चों के कत्लेआम की तैयारी है।
फिलहाल ताजा स्टेटस यह है कि इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ने कम से कम खबर जो है, तस्वीरे जो हैं, वही लगायी है। यह हमारे लिए राहत की बात है। बाकी मीडिया छात्रों को अपराधी बनाने लगा है।
क्योंकि हमारे बच्चे हमारे हक हकूक के लिए लड़ रहे हैं और कैंपस बेदखल करने लगा है फासीवाद जिसतरह, प्रतिरोध उससे तेज है।दमन उससे भी कहीं तेज है और हमारे बच्चे सुरक्षित नहीं है। शर्म करो लोकतंत्र।
मीडिया का फोकस हालांकि एफटीआईआई के कैंपस पर हैं लेकिन देशभर में विश्वविद्यालयों के कैंपस बेदखल हो रहे हैं और फासीवाद ने इन विश्वविद्यालयों की घेराबंदी कर दी है।छाकत्र बेहद बहादुरी से लड़ रहे हैं।जादवपुर विश्वविद्यालय के होक कलरव की गूंज दुनियाभर में हुई है।होक कलरव और शहबाग एकाकार है। खास तौर पर बंगाल और दक्षिण भारत के कैंपस में फासीवादी सत्ता और मुक्त बाजार के किलाफ प्रतिरोध बेहद तेज है और खबर कही नहीं है।मीडिया सत्ता के साथ मिलकर होक कलरव को अभव्य कलरव बनाने लगा है। जादवपुर विश्वविद्यालय में उपकुलपति ने पुलिस बुलवाकर छात्र छात्राओं को पिटवाया, गिरफ्तार करवाया, जिसके खिलाफ हो कलरव की शुरुआत हुई।
तो सत्ता ने फिर एफटीआईआई पुणे में महाभारत रच दिया और कुरुवंश की तरह छात्रों के खिलाफ सफाया अभियान देश भर में चालू रिवाज बन गया है।
ताजा मामला कोलकाता के विश्वप्रसिद्ध प्रेसीडेसी विश्वविद्यालय का है जहां मुख्यमंत्री की मौजूदगी में पार्टीबद्ध गुंडों और पुलिस ने छात्रों को धुन डाला और उपकुलपति मुस्कुराती रही। छात्रों के धरना प्रदर्शन से बेपरवाह मुख्यमंत्री कैंपस दखल के लिए इफरात खैरात नकद डाल गयीं और आंदोलनकारी छात्रों की परवाह किये बिना, उन्हें शामिल किये बिना जबरन दीक्षांत समारोह भी हो गया।
चूंकि प्रेसीडेंसी में छात्रों ने मुख्यमंत्री को काले झंडे दिखाये तो इसके बदले में प्रेसीडेंसी में शामिल जादवपुर और बाकी बंगाल और बाकी देश के होक कलरव की नाकेबंदी पुलिस और पार्टीबद्ध गुंडों ने की है और पूरे बंगाल में, खासतौर पर कोलकाता में फासीवादी झंडे फहराने के लिए कैंपस की जबरदस्त नाकेबंदी है।आंदोलन जारी है।
छात्र देश भर में एफटीआईआई महाभारत के विरोध में हैं।
छात्र अंध राष्ट्रवादी केसरियाकरण के खिलाफ है।
छात्र आर्थिक सुधारों के खिलाफ हैं।
छात्र किसानों की खुदकशी के खिलाफ हैं।
छात्र देश जोड़ने,दुनिया जोड़ने और दिलों को जोड़ने का बीड़ा उठा चुके हैं और अब उनकी खैर नहीं है।
कैंपस में भी कत्लेआम की तैयारी है।
मीडिया होक कलरव के खिलाफ है।
आनंद बाजार समूह में फिर शामिल हो गयी हैं दीदी।
यही नजारा दक्षिण भारत के कैंपस में है,ऐसा आनंद तेलतुंबड़े का कहना है लेकिन खबर या तो सिरे से नहीं है या फिर सारी खबरें सत्ता और सियासत के हक में हैं।
हमारे बच्चे कतई सरक्षित नहीं हैं।
मीडिया सत्ता के हक में लामबंद.
मीडिया जनता के हक हकूक के खिलाफ
मीडिया बेदखली का पैरोकार
मीडिया में मुक्त बाजार की जय जयकार
हैरत भी नहीं कि मी़डिया बेदखल कैंपस में
होक कलरव के खिलाफ लामबंद