तारकेश कुमार ओझा / भूतपूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल्ल कलाम देश के पूर्वी हिस्से के दौरे पर थे। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के साथ ही उनका अाइआइटी खड़गपुर के छात्रों के साथ भी एक कार्यक्रम था। कलाम जैसी हस्ती का अाइअाइटी खड़गपुर सरीखे विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान में आना एक तरह से मणि- कांचन संयोग की तरह था। समूचे देश के मीडिया का जमावड़ा इस खबर के कवरेज के लिए बंगाल में लग चुका था। लेकिन अत्य़धिक सुरक्षा मानकों का हवाला देकर पत्रकारों को पास देने के मामले में की गई हीलाहवाली से तंग आ कर राज्य के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र समूह ने समूचे दौरे को ब्लैक आउट करने का फैसला कर लिया। नतीजतन इस समूह के किसी समाचार पत्र में दौरे से संबंधित कार्यक्रम की एक लाइन की भी खबर नहीं छपी। नफे - नुकसान के नजरिए से इतर दृष्टिकोण से यदि आकलन करें, तो बेशक एक अत्यंत महत्वपूर्ण समाचार के कवरेज का मोह त्याग कर उक्त समूह ने अपने आत्मसम्मान के साथ अपनी महत्ता का बखूबी अहसास आयोजकों और पाठकों को करा दिया।
मराठी मानुष राजनीति के लंबरदार राज ठाकरे द्वारा एक चैनल के पत्रकार को तुम्हारा भौंकना बंद हुआ... जैसी बात कहने के प्रसंग में भी यह घटना बेहद प्रासंगिक हैं। क्योंकि राजनेता को शक्तिमान बनाने में सक्षम मीडिया को यदि एेसी कड़वी बात अपने ही भष्मासुरों से सुननी पड़ रही है, तो निश्चय ही इसकी पृष्ठभूमि में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। आम - आदमी पार्टी से लेकर इसके संयोजक अरविंद केजरीवाल के उत्थान - पतन की पृष्ठभूमि मीडिया की ताकत और क्षमता का सबसे बड़ा औऱ ताजा सबूत है। सवाल उठता है कि इसके बावजूद आखिर क्यों मीडिया को लगातार राजनेताओं से अपमानित - लांछित होना पड़ रहा है। इसके पीछे कहीं न कहीं आगे रहने व श्रेय लेने की अंधी होड़ जिम्मेदार है। जिसके आगे विवश होकर मीडिया संस्थान और पत्रकार अपने आत्मसम्मान से भी समझौता करने से नहीं चूक रहे। अब राज ठाकरे के ताजा प्रसंग को ही लें। एक राष्ट्रीय चैनल ने आगे रहने की होड़ में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी के साक्षात्कार का करीब एक घंटे तक लाइव प्रसारण किया। प्रतिक्रिया में एक दूसरा चैनल राज ठाकरे का पहली बार हिंदी में साक्षात्कार दिखा कर नहले पर दहला मारने की कोशिश की। स्वाभाविक रूप से अन्य चैनलों में भी राज ठाकरे का इंटरव्यू दिखाने की होड़ मच गई। ऐसे में राज ठाकरे का दुस्साहस तो बढ़ना ही था। कदाचित इसी दंभ में उसने पत्रकारों से बदतमीजी करनी शुरू की।बेशक मराठी मानुष की राजनीति के प्रति अत्यंत आक्रामकता के चलते लोगों में राज ठाकरे के बारे में जानने - समझने की भारी उत्सकुता है। लेकिन अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए चैनलों का राज ठाकरे को अत्यधिक महत्व देने के महाराष्ट्र की राजनीति में दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। क्योंकि इससे शिवसेना परप्रांतीयों खास कर उत्तर भारतीयों के प्रति फिर आक्रामक रवैया अपना सकती है। क्योंकि यह उसकी पुरानी नीति है। जिसे मनसे ने नई आक्रामकता के साथ अपनाया है। यदि शिवसेना को लगेगा कि उसकी नीति को अपना कर मनसे उससे आगे निकल रही है, तो वह भी अपनी नीति बदल सकती है। मीडिया खासकर चैनलों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए।
( लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं। ये उनके निजी विचार हैं)