पत्रकारिता के क्षेत्रीयकरण ने रचनात्मक
जनान्दोलन
के
तेवर
को
किया कुन्द
डा. देवाशीष बोस । आज पत्रकारिता बदलाव के दौर में है। पत्रकारिता पहले मुहिम हुआ करता था आज पेशा बन गया है। कभी जनहित की खबरें उपजती थी अब ऐसी खबरें दरकिनार की जाती है। पूंजीपति और अतिसंपन्न जन से जुड़ी खबरों के आगे विकास और अंतिम कतार में खड़े लोगों की खबरें गायब हो रही है। पत्रकारिता का क्षेत्रीयकरण भले ही पूंजीपतियों के राजस्व को बढ़ाने का कार्य किया हो लेकिन रचनात्मक जनान्दोलन के तेवर को कुन्द किया है। इस हालात के लिए जनक्रान्ति का बिगुल फुंकना होगा। अन्यथा देश एक बार फिर गुलामी का दंश झेलने को बाध्य होगा।
यूरोप में हुई औद्योगिक क्रान्ति के बाद छापाखान और कागज ने पत्रकारिता के नये युग का शुभारम्भ किया। देष का पहला अखबार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के युग में हिक्की के संपादन में प्रारम्भ हुआ। इसी दौड़ में देशी पत्रकारिता उपजी और जन्मते ही वह अपना तेवर दिखाने लगी। पत्रकारिता समाजिक बदलाव का माध्यम बना। देश और देशजन को जर्बदस्त आंदोलित किया। लोग अखबार की बातों पर पूरा भरोसा किया और पत्रकारिता के शब्द लोगों के बीच अकाट्य बन गयी। इस भरोसे को पूंजी के सहारे अब मीडिया मालिक भूना कर अपना राजस्व बढ़ाने की जुगत में शामिल हो गये हैं। मालिक के इस चाल में उपर से नीचे तक के पत्रकार जबरिया शामिल किये गये हैं।
देशी अखबारों ने कभी दलित, बंचित, पिछड़ा, शोषित, पीड़ित और अछूतों की पीड़ा पहचानी, गरीबों की शिक्षा और चिकित्सा पर ध्यान दिया, देहातों की दयनीय दशा चित्रित की, स्त्रियों की हीनता के लिए समाज को फटकारा, सती प्रथा तथा बाल विवाह मिटाने का प्रयास किया। पत्रकारिता ने स्त्री शिक्षा आरम्भ करवाई, परदा प्रथा की निन्दा करते हुए सत्ता की समय समय पर तीखी आलोचना की। पत्रकारों ने यह सब कुछ अपने वर्ग स्वार्थ को भुलाकर किया और स्वयं दमन के शिकार बनते रहे। पत्रकारों की प्रखर लेखनी समाजिक वर्जनाओं के खिलाफ जहां लोक जागृति का कार्य किया वहीं सत्ता को भी हिलाते रहे। बीसवीं शताब्दी के पूर्व ही सत्ता ने चाटुकार पत्रकारिता को भी प्रेरित किया। दोनों तरह की पत्रकारिता इसी समय विकसित हो चुकि थी।
इस काल में सम्पादक के बजाय पूंजी लगाने वाले, विज्ञापन, प्रसार और मुद्रण के प्रबन्धन का महत्व धीरे धीरे बढ़ने लगा। अब पूंजी लगाने वाला ही सम्पादक बनने लगा, भले ही ऐसा सम्पादक शब्द न गढ़ पाता हो। लेकिन पत्रकारिता की उदात्त परंपरायें चलती रही। अशोभन, तथ्यहीन, और चरित्र हनन करने वाली लेखनी पर रोक लगी रही। पूंजी के स्वार्थ के लिए मनगढ़न्त, असत्य, पक्षपातपूर्ण तथा उत्तेक लेखनी को छोड़कर अन्य मामलों में पत्रकारिता स्वच्छन्द और स्वच्छ बनी रही। हालांकि इस समय तक मीडिया शब्द प्रचलित नहीं हुआ था। लेकिन अब मीडिया शब्द का इजाद होते ही उसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक शामिल हो गयी। लिहाजा मीडिया अर्थात ‘टके सेर खाजा और टके सेर भाजा’ हो गयी।
चौथा इस्टेट कहा जाने वाला सत्ता द्वारा दी गयी जागीरदारी में पत्रकार मनसबदार हो गये। सत्ता की पक्षधारिता सबके सिर पर चढ़ी जा रही है। यह प्रबन्धनतंत्र के लाभ के साथ साथ पत्रकार की भी सम्पदा बन गयी। परम्परा, परिपाटी और परिभाषा बदल दी गयी। आदर्श ताक पर रख दिये गये हैं। अब स्रोत गुप्त नहीं रहता है उसका डंका पीटा जाता है। क्योंकि इसी में लाभ है। चाटुकारिता समाचार गढ़ती है। देश और गरीब से मीडिया बेखबर है। बाजारवाद के ताल और लय पर मीडिया नाच रही है। इस नाच में सब शामिल है। यों हमाम में सब नंगे हैं।
तब पत्रकारिता जानकारी, षिक्षा, ज्ञान और मनोरंजन देती थी। अब मीडिया मनगढ़न्त, असत्य, पक्षपातपूर्ण, उत्तेक, बदचलनी, अपराधवृत्ति और समाज से अलगाव देता है। तब छोटे अखबार में चार पंक्तियों की शिकायत देख कर जिलाधिकारी चालिस चक्कर लगाता था अब आधे पेज का फीचर पढ़कर हवलदार मजाक उड़ाता है। पत्रकारिता की ग्राहक संख्या और आमदनी कम थी, लेकिन प्रभाव बहुत गहरा था। अब मीडिया का प्रसार बहुत, आमदनी अधिक, लेकिन प्रभाव नदारद है। तब समाज को सुधारने की, अब राजस्व के लिए बिगाड़ने की होड़ है।
पत्रकारिता मीडिया में शामिल होते ही जनता के दुख दर्द में भागीदार न बनकर तमाशबीन हो गयी है। राजनीति का भी यही हाल हो गया है। मीडिया को अब यह भरोसा नहीं रह गया है कि पढ़ने, सुनने, देखने लायक सामग्री, समाचार या विचार के बल पर वह ग्राहक पा सकेगी। राजनीति ने भी मान लिया है कि राजनीति आदर्श या सिद्धान्त के भरोसे वह सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। दोनों को अपनी योग्यता और जनता की बुद्धि पर भरोसा नहीं रहा। दोनों विश्वसनीयता गंवा चुके हैं और उसका विकल्प खोज रहे हैं। राजनीति के पास विकल्प है जातियता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषावाद, गठबन्धन और मोर्चाबन्दी। मीडिया विकल्प के रूप में करोड़पति बना रही है। अखबार खरीदने के लिए कार, फ्रिज, स्कूटर, विदेश भ्रमण आदि के प्रलोभन दे रही है। सुन्दरियों की रेगीन तस्वीरें दिखाकर पाठकों को मोहित कर रही है।
विश्वसनीसता के लिए आधार है-आचरण, स्वभाव, संस्कार, संकल्प और निष्ठा। लोभ विष्वसनीयता का विकल्प नहीं है। लालच दिखाकर कोई विश्वासपात्र नहीं बन जाता। राजनीति और मीडिया दोनों गरीब, मेहनती, देहाती जनता से तो दूर हो चुके हैं। इनकी बात न उठाना ही अच्छा है। बचा वह वर्ग जो फिजूलखर्च, विलासी और अय्यास है। इन अवगुणों को भुनाने में राजनीति और मीडिया दोनों एक ही नाव पर सवार है। इस वर्ग में से छांट कर लालची, जुआरी, भाग्यवादी, अकर्मण्यवर्ग को मोहित करने की कोशिश अब शुरू हो गयी है। ऐसे युग में शुद्ध राजनीति और प्रखर पत्रकारिता की चर्चा करना बेमानी ही होगी।
मीडिया लालच दिखाकर मुनाफा कमाने के रास्ते पर चल दिया है ऐसी स्थिति में कुशल पत्रकारिता और अच्छे सम्पादक की मालिक को जरूरत नहीं है। विज्ञापन और प्रसार विभागों में भी ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जो सरकारी गैरसरकारी प्रचार पर जैसी तैसी हेडिंग लगाकर जगह भर दे और कैंची चलाकर बने लेख छापे। ऐसी स्थिति में कर्मठ पत्रकार और सुयांग्य सम्पादक एक खर्चीले अनुपयोगी बोझ के रूप में कब तक मीडिया पर लदे रहेंगे। आज स्वस्थ्य पत्रकारिता, कुशल सम्पादन, सप्रभाव राजनीति और सशक्त लोकतंत्र की कब्रें खुदी हुई तैयार है। ऐसी स्थिति में जनता को ही अपना नेतृत्व करना चाहिए और अपने अनुकूल वातावरण का निर्माण करना चाहिए। अन्यथा हमारा वजूद समाप्त हो जायेगा। दुष्यन्त के शब्दों में -‘ सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तेरे सीने में ही सही
आग कहीं भी हो पर आग जलनी चाहिए’ ।
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’लेखक एनयूजे बिहार के उपाध्यक्ष हैं। कई राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं के साथ इलेक्ट्रिोनिक मीडिया से भी जुड़े हैं।