यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं - उसे ‘पत्रकारिता’ ने ही विकसित किया था
प्रभु जोशी / अँग्रेज़ी इस बात में तो आरंभ से सतर्क रही और उसने हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं से सहोदरा संबंध बनाने ही नहीं दिया, उलटे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा- लेकिन, हिन्दी की, अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयीं कि उसको वहाँ से उखाड़ना मुश्किल रहा।
बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है। बोलियों का संहार करने में, जो काम इलेक्ट्रानिक-मीडिया कर रहा है, उसे दस कदम आगे जाकर हिन्दी के अख़बार कर रहे हैं। जो अख़बार साढ़े तीन रूपये में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे, वे अब एक या डेढ़ रूपये में चैबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं। स्पष्ट है, यह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है। क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूँजी ‘अस्मिताओं’का ‘विनिमय’ नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा ‘अपहरण’ करती हैं। यह अख़बारों को अपनी ‘हवाई सेना’बनाकर, ‘विचारों का विस्फोट’ करती है, और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्ज़ा कर लेती है। इसी के चलते अख़बार ‘बाज़ारवाद’ के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं । वे पहले ‘विचार’ परोसते थे, अब ‘वस्तु’ परोस रहे हैं - अलबत्ता, खुद ‘वस्तु’ बन गये हैं। इसी के चलते अख़बारों में संपादक नहीं, ब्राण्ड-मैनेजर बरामद होते हैं। अख़बारों की इस नई प्रथा ने, ‘मच्छरदानी’ की ‘सैद्धान्तिकी’ का वरण कर लिया है। कहने को वह ‘मच्छर-दानी’ होती है परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता। वह बाहर ही बाहर रहता है। ठीक इसी तरह अख़बार में अख़बारनवीस को छोड़कर, सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं। बस सम्पादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता। इसीलिए, आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है। अब इस मार्केट-ड्राइवन पत्रकारिता में सम्पादकीय’-विभाग, विज्ञापन-विभाग का मातहत है। यहाँ तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है। यों भी सम्पादकीय पृष्ठ दैनिक अख़बारों में अब बुद्धिजीवियों के वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, राजनीतिक दलों के ‘व्यू-पाइण्ट’ (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं। वे राजनीतिक जनसंपर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं। यह उसी पूँजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है ।
ऐसे में निश्चय ही वे हड़का कर पूछना चाहें कि बताइए भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूँजी तो हमारी लें और ‘भाषा और संस्कृति’आप अपनी विकसित करें ? यह नहीं हो सकता । हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए ‘एकरुपता’चाहिए। सब एक-सा खायें। एक-सा पीयें। एक-सा बोलें। एक-सा लिखें-लिखायें। एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें। तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है। हमारे पास महामिक्सर है - हम सबको फेंट कर ‘एकरूप’ कर देंगे।
बहरहाल, उन्होंने भारत के प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया। इसलिए, अब अख़बार और अख़बार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी अब क्षीण हो गयी है। चूँकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल, सहयात्री हैं। उनका अभीष्ट भी एक है और वह है, ‘वैश्वीकरण’ के लिए बनाये जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण। सो आपस में बैर कैसा ? हम तो आपस में कमर्शियल-कजिन्स हैं । आओ, हम सब मिलकर मारें हिन्दी को। अब भारत की असली हिन्दी पत्रकारिता हिन्दी की ऐसी ही आरती उतार रही है ।
यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं - उसे ‘पत्रकारिता’ ने ही विकसित किया था। क्योंकि,तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था। अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है। अतः वही तो बोलेगा। उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी। हालांकि, अख़बार जनता में मुग़ालता पैदा करने के लिए वे कहते हैं, पूँजी उनकी ज़रूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है। अर्थात् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार। अर्थात् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा। तुम्हीं बताओ, उन टायगर इकनाॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी। कहाँ गये वे टायगर ? उनके तो तीखे दाँत और मजबूत पंजे थे। नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज़-रोज़ बताते हैं- हिन्दुस्तान विल बी टायगर आफ टुमॉरो।
प्रभु जोशी
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