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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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जिम्मेदार नागरिक भी बने मीडिया

निर्मल रानी / हमारे देश में प्रेस अथवा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ स्वीकार किया जाता है। ज़ाहिर है इतने बड़े अलंकरण के बाद मीडिया की जि़म्मेदारी उतनी ही बढ़ जाती है जितनी कि लोकतंत्र के शेष तीन स्तंभों की है। यानी न्यायपालिका,कार्यपालिका व संसदीय व्यवस्था के बराबर की जि़म्मेदारी। यहां इस प्रकार की तुलनात्मक बहस में पडऩे से कुछ हासिल हासिल नहीं कि लोकतंत्र के उपरोक्त शेष तीन स्तंभ अपनी जि़म्मेदारी कैसे निभा रहे हैं या कैसे नहीं। यह अपने मापदंडों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। एक मीडियाकर्मी के नाते हमें सर्वप्रथम तो यही देखने व चिंतन करने की ज़रूरत है कि हम अपनी जि़म्मेदारियों व कर्तव्यों का निर्वहन सही तरीके से कर पा रहे हैं या नहीं। निश्चित रूप से मीडिया अपने शब्दार्थ के अनुसार अपनी जि़म्मेदारी निभाने का प्रयास करता है। यानी शासन-प्रशासन, न्यायपालिका तथा समाज के मध्य एक-दूसरे को आईना दिखाने तथा एक-दूसरे तक एक-दूसरे की आवाज़ पहुंचाने की जि़म्मेदारी निभाता है। व्यवस्था में पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करता है। अपने गली-मोहल्लों से लेकर दूर-दराज़ व देश-विदेश की अच्छी-बुरी खबरों को हमारे समक्ष लाता है। बुराईयों को बुराईयों के रूप में तथा अच्छाईयों को अच्छाई की शक्ल में प्रस्तुत कर समाज के मध्य पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करता है। ज़ाहिर है इसीलिए तमाम लोग जहां मीडिया से अपनी काली करतूतों को छुपाने का प्रयास करते हैं वहीं सकारात्मक व रचनात्मक कार्य करने वाले लोग इस बात के आकांक्षी होते हैं कि मीडिया उनकी कारगुज़ारियों को बढ़ा-चढ़ा कर समाज के समक्ष पेश करे। परंतु अफसोस की बात यह है कि कुछ अवांछित तत्व अपनी नकारात्मक सोच तथा विवादित विचारों को प्रसारित करवाने व अपने सीमित हितों को साधने के लिए भी मीडिया का सहारा लेते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या मीडिया को इस प्रकार के नकारात्मक, राष्ट्रविरोधी तथा देश की व समाज की एकता को छिन्न-भिन्न करने वाले अवांछित तत्वों को मीडिया में स्थान देना चाहिए? ऐसे तत्व मीडिया द्वारा प्रोत्साहन देने योग्य हैं?

इस विषय पर होने वाली बहस के दौरान प्राय: मीडिया विशेषज्ञ यह कहते दिखाई देते हैं कि जब जहां भी जो कुछ जैसा है वैसा का वैसा जनता तक पहुंचाना मीडिया का कर्तव्य है। क्योंकि सच्चाई जनता व समाज के सामने आनी चाहिए। नि:संदेह मीडिया की कारगुज़ारियों के पक्ष में दिया जाने वाला यह कोरा-करारा तर्क किसी हद तक ठीक भी है। परंतु ऐसी नीति मीडिया की महज़ एक पेशेवर नीति ही कही जाएगी। लेकिन जब हम मीडियाकर्मी के अतिरिक्त समाज के जि़म्मेदार सदस्य के रूप में स्वयं को देखते हैं तो हमें जहां मीडिया के अधिकारों, कार्यक्षेत्रों तथा उसके अपने कर्तव्यों के विषय में सोचना होता है वहीं हमारी सोच समाज के एक जि़म्मेदार नागरिक की भी होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर इस समय हमारे देश में समाज को विभिन्न मुद्दों पर विभाजित करने वाले नेताओं की एक बाढ़ सी आई लगती है। धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र के नाम पर भारतीय समाज को विभाजित करने का ज़ोरदार प्रयास देश के मुट्ठीभर चतुर बुद्धि राजनीतिज्ञों द्वारा किया जा रहा है। ऐसे लोग अपने विध्वंसात्मक मिशन को आगे बढ़ाने के लिए तरह-तरह की ज़हर उगलने वाली बातें विभिन्न वर्गो, क्षेत्रों, धर्मों व जातियों के विरुद्ध अक्सर करते रहते हैं। दुर्भाग्यवश इस प्रकार के लोग ही स्वयं को भारतीय लोकतंत्र का जि़म्मेदार स्तंभ भी मानते हैं। जनता भी इन्हें समय-समय पर निर्वाचित कर देश की संसदीय व्यवस्था में शामिल कर देती है। ऐसे में इनके मुंह से निकला कोई भी वाक्य भारतीय लोकतंत्र के प्रतिनिधि के मुंह से निकला हुआ वाक्य समझा जाता है। इसी नाते मीडिया इनकी सभी अच्छी व बुरी बातों को पूरी तरजीह देता है। परंतु समाज को विभाजित करने वाले इनके वक्तव्यों, भाषणों तथा बयानों को प्रसारित व प्रकाशित करने के परिणामस्वरूप समाज में बड़े पैमाने पर दहशत फैलती है, आम लोगों के रोज़गार प्रभावित होते हैं, देश का विकास बाधित होता है तथा अकारण ही समाज में धर्म-जाति-क्षेत्र या भाषा जैसे मुद्दों को लेकर धु्रवीकरण की सभावनाएं बढऩे लगती हैं। ऐसे में क्या एक जि़म्मेदार मीडिया परिवार का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी सत्यवादिता, पारदर्शिता तथा जस का तस दिखाने या प्रकाशित करने की नीति पर अमल करने के बजाए राष्ट्रहित के मद्देनज़र ऐसे विचारों को आगे बढ़ाने या उन्हें अहमियत देने से ही बाज़ आए? बजाए इसके यह देखा जा रहा है कि ऐसी ही विवादित खबरों या बयानों को मीडिया द्वारा विशेषकर टेलीविज़न को माध्यम बनाकर ऐसे समाचारों को ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर, उसमें नमक-मिर्च-मसाला लगाकर तथा ऐसी खबरों का दहशत फैलाने वाले ढंग से प्रस्तुतीकरण कर अपनी टीआरपी बढ़ाने का गेम खेला जा रहा है।

मज़े की बात तो यह है कि ऐसे नकारात्मक व राष्ट्र को विभाजित करने वाले बयान देने वाला नेता भी यही चाहता है कि मीडिया में उसे अधिक से अधिक स्थान व कवरेज मिले ताकि उसकी बातें बढ़ा-चढ़ा कर पेश की जाएं और समाज में होने वाले ध्रुवीकरण का सीमित लाभ उसे हासिल हो सके। तो क्या मीडिया को भी ऐसी नकारात्मक सोच रखने वाले नेताओं की इच्छापूर्ति करनी चाहिए? उनकी इच्छाओं के अनुसार क्या मीडिया को उन्हें बार-बार स्थान देकर उनकी अहमियत को और अधिक बढ़ाना चाहिए? क्या एक सच्चे मीडिया परिवार या राष्ट्रभक्त व समाज के हितैषी मीडिया कर्मी का यह कर्तव्य नहीं है कि वह किसी सामग्री को प्रकाशित व प्रसारित करने से पहले उसके संभावित परिणामों व प्रतिक्रियास्वरूप सामने आने वाले अन्य पहलुओं पर भी नज़र डाले? या फिर जस का तस पेश करने में ही मीडिया अपनी जि़म्मेदारी व कर्तव्य समझता है? भले ही इसके परिणाम कितने ही घातक क्यों न हों?

कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय मीडिया राष्ट्रीय स्तर से लेकर गली-मोहल्ले के स्तर तक कुछ ऐसी ही विडंबना का शिकार है जहां राष्ट्रीय स्तर पर धर्म व संप्रदाय के नाम पर समाज को बांटने का प्रयास सत्ता पर $कब्ज़ा करने की ग़रज़ से किया जा रहा है। वहीं क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने व दूसरे क्षेत्र के लोगों को अपमानित करने व उन्हें अपने क्षेत्र के लिए खतरा बताने की कोशिश क्षेत्रीय सत्ता हथियाने की ग़रज़ से की जा रही है। इसी प्रकार जाति व भाषा का खेल भी ऐसे ही सत्तालोभी क्षेत्रीय नेताओं द्वारा खेला जाता है। जबकि स्थानीय स्तर पर गली, वार्ड, मोहल्ला व कस्बाई राजनीति में स्वयं को स्थापित करने की लालसा रखने वाले तमाम ऐसे छुटभय्यै नेता जो अपने जीवन में न तो अच्छी शिक्षा ग्रहण कर सके, न ही किसी रोज़गार के क्षेत्र में स्वयं को स्थापित कर सके, न ही सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में सेवा करने योग्य शिक्षा हासिल कर सके, तमाम ऐसे लोग स$फेद कुर्ता-पायजामा पहन कर तथा शुरु से ही नकारात्मक विचारों का सहारा लेकर राजनीति में पदार्पण कर जाते हैं। ऐसे लोग अपनी चतुराई के चलते यह समझते हैं कि स्थानीय मीडिया कर्मियों को उन्हें कैसे नियंत्रित रखना है और वे बड़ी आसानी से ऐसा कर भी लेते हैं। परिणामस्वरूप उनके वक्तव्य, उनके चित्र तथा उनके प्रेस नोट स्थानीय समाचार पत्रों व केबल नेटवर्क में जगह पाने लग जाते हैं। और कुछ ही समय बाद बैठे-बिठाए यही स्वार्थी गैर जि़म्मेदार, अशिक्षित तथा नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति मीडिया के प्रोत्साहन के बल पर स्वयं को स्थानीय नेता के रूप में स्थापित करने में तथा शोहरत हासिल करने में सफल हो जाता है।

अब ज़रा सोचिए कि जब मीडिया द्वारा ऐसी नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को एक नेता के रूप में शुरु से ही स्थापित करने में उसकी सहायता की जाए और आगे चलकर विध्वंसक सोच रखने वाला यही विवादित स्वयंभू नेता क्षेत्रवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि की राजनीति करने लग जाए तथा अपने सीमित लाभ या क्षेत्रीय सत्ता पर कब्ज़ा जमाने की $गरज़ से समाज को विभाजित करने वाली बातें करने लग जाए तो इसमें आश्चर्य की क्या बात? लिहाज़ा समाज व राष्ट्रहित में तो यही है कि मीडिया अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के साथ-साथ अवांछित सामग्री के प्रसारण व प्रकाशन से भी बचने की कोशिश करे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश व समाज को विभाजित करने की इजाज़त किसी भी व्यक्ति को नहीं दी जानी चाहिए। मीडिया को भी इस विषय पर चिंतन कर अपनी नीति में बदलाव लाने की ज़रूरत है ताकि ऐसी नकारात्मक व विभाजित करने वाली राजनीति करने वालों को बढ़ावा न मिल सके।( ये लेखक के अपने विचार है )

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निर्मल रानी

विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार के तौर पर लेखन कर रही हैं.

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना