रीता विश्वकर्मा / जब कोई मेच्योर वैज्ञानिक किसी चीज का इजाद करता है तब वह विश्व के कल्याण की परिकल्पना करके ही ‘स्टेप्स’ उठाता है। हालाँकि सभीं वस्तु के दो पहलू होते हैं, इसी तरह हर इजाद की गई चीज सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों परिणाम देती है। सिक्के के दो पहलू- हेड (सिरा) और टेल (पृष्ठ भाग) होते हैं। बहरहाल मुझे मार्क जुकरबर्ग जैसे वैज्ञानिक की बहुत याद आ रही है। 18 वर्ष की उम्र में इसने फेसबुक नामक जो सोशल वेब साइट ईजाद किया वह काबिल-ए-तारीफ है। इस वेबसाइट/सोशल साइट को ऐसा जंगल कहा जा सकता है, जिसमें वट वृक्ष से लेकर रेंड़ तक लहलहाते हैं। मेरे कहने का आशय वे अच्छी तरह समझ चुके होंगे जो इसका इस्तेमाल करते हैं। फेसबुक का रोग बच्चों से लेकर कब्रगाह की ओर मुखातिब लोगों को लगा हुआ है। इस साइट पर लोग अपने दिलों का गुबार निकालकर अपना मन हल्का करते हैं। पल-पल की खबर को फेसबुक पर अपलोड करके लोग झूठी वाहवाही लूटते हैं।
तमाम ऐसे लोग (महिला/पुरूष) जो मनोविकृत के शिकार हैं फेसबुक पर झूठे नाम और पते से अकाउण्ट बनाकर अश्लीलता परोस रहे हैं, उन्हें शायद यह नहीं मालूम है कि इसका फेसबुक के अन्य यूजर्स पर क्या असर पड़ेगा? इसके विपरीत कुछ ज्ञानी किस्म के लोग इस साइट पर कुछ ज्यादा ही ज्ञान बघाड़कर लोगों में चर्चित होने का प्रयास करते है। महिलाएँ विभिन्न ऐंगिलों से फोटो खिंचवाकर अपलोड करती हैं तो उसमें हजारों लाइकिंग और कमेण्ट्स आते हैं और यदि कोई पुरूष कोई अच्छी बात लिखकर पोस्ट करे तो उसे कोई नहीं लाइक करता। फेसबुक के माध्यम से लोग अपनी निजता सार्वजनिक करने लगे हैं। महिला हों या पुरूष (युवक/युवतियाँ, किशोर/किशोरियाँ) ये लोग अपनी रोज की दिनचर्या किचन से लेकर स्कूल कॉलेज, कोचिंग तक और लैट्रिंग, बाथरूम से लेकर बेडरूम तक के सारे क्रिया-कलापों को फेसबुक पर केवल इसलिए अपलोड करते हैं ताकि लोग उसमें ज्यादा से ज्यादा कमेण्ट दें और लाइक करें। यह भी देखा जा रहा है कि जिन हाथों में स्मार्टफोन हैं वे 24 घण्टे फेसबुक और व्हाट्सएप से जुड़े रहते हैं, अगल-बगल क्या हो रहा है? चोरी हो जाए, डकैती पड़ जाए कोई फर्क नहीं। कौन आया, कौन गया नो वेल्कम, खैरमखदम, गुड, बाई, सी यू। उनकी इस तरह की हरकत से प्रती होता है कि इनका समाज से कोई सरोकार ही नही है। इनके लिए मोबाइल और सोशलनेटवर्किंग साइट्स ही सब कुछ है। ये लोग एक तरह से ‘काम के न काज के दुश्मन अनाज के’ से हो गये हैं। इनके क्रिया-कलापों से प्रायः घरों में किच-किच होना आम बात हो गई है।
इस तरह आधुनिक और स्मार्ट बनने के चक्कर में लोग अपनी निजता को सार्वजनिक कर रहे हैं, और खलिहर किस्म के लोग इस तरह के पोस्टों को लाइक करके तरह-तरह के कमेण्ट्स भी दे रहे हैं। फेसबुक के बारे में धीरे-धीरे अब जानकारी होने लगी..........कुल मिलाकर भौड़े प्रचार का सर्वसुलभ एवं सस्ता माध्यम है ये..........। कुरूप हों या सुरूप, शिक्षित हों या अशिक्षित, रोगी हों या स्वस्थ हर कोई अपने दिल की बात बेखौफ, बेझिझक फेसबुक वाल पर अपलोड कर सकता है। ऐसे महिला पुरूष जो हीन भावना से ग्रस्त हैं, उनके लिए फेसबुक संजीवनी का काम कर रही है। निठल्ले-निकम्मों और मनोविकार के शिकार लोगों के लिए फेसबुक अच्छा टाइमपास और मनोरंजन का साधन बना हुआ है। दैनिक जीवन की सारी गतिविधियाँ कब कौन सी क्रिया किया? कब टॉयलेट गये, कब बाथरूम और कब बेडरूम सब फेसबुक पर शेयर करिए सैकड़ो कमेण्ट्स मिलेंगे और यह आपके लिए दुनिया की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
मुफ्त रायः- बेहतर होगा कि समय रहते सद्बुद्धि आ जाए, फेसबुक से हजारों किलोमीटर का नाता बन जाए। भौड़ा प्रचार पाने का माध्यम फेसबुक से दूरी बनाइए इसी में सबकी बेहतरी है। महिलाएँ सुपर्णखा न बनें और पुरूषों से अनुरोध है कि वे ’एको अहम, द्वितियो नास्ति’ का मिथ्या दंभ त्यागें। यह अवधारणा कि फेसबुक गिरे हुए को उठाता है, अपदस्थ को पदस्थ करता है, हर समस्या का समाधान करता है, बेरोजगारों को रोजगार दिलाता है...............शायद गलत है। अपने मुँह मिया मिट्ठू बनना कहाँ की अक्लमन्दी। ज्ञान बघारना है तो पुस्तकों, पत्रिकाओं को आजमाएँ।
फिलवक्त अभी आज के लिए बस इतना ही................
रीता विश्वकर्मा
पत्रकार/सम्पादक
रेनबोन्यूज डॉट इन
(ये लेखिका के निजी विचार हैं)