सीटू तिवारी/ गणेश शंकर विद्दार्थी को याद करना इस वक्त बहुत जरूरी है.
आज जब पत्रकार के एक्टीविस्ट हो जाने या अपनी रिपोर्ट से इतर जरा सा बोल देने या कोई हस्तक्षेप कर देने पर भवें तन जाती है, तब गणेश शंकर विद्दार्थी को याद करना बहुत जरूरी है.
ये जानना और समझना भी जरूरी है कि पत्रकारिता को ऐसे एक कोने में बैठाकर , किसी सांचे में जबरन कैद करके पत्रकारिता स्वयं भी अपने उच्चतम मूल्यों को नहीं छूती. इन्हीं मूल्यों को अपनाते हुए एक पत्रकार, प्रताप जैसे अखबार का संपादक बन सकता है. ये वो संपादक थे जिन पर मानहानि के लिए जेल हुई तो अखबार पढ़ने वालों ने ही चंदा करके जुर्माने की रकम चुका दी.
ये वो थे जो क्रांतिकारियों को मैसेज देने के लिए अखबार मे ही कोडवर्ड छाप देते थे और अंग्रेज सरकार की पूछताछ में तनकर कहते है, " आपके देश में कोई कब्जा कर लेता तो आप क्या करते?"
ये वो संपादक थे जो 1931 में कानपुर दंगों के दौरान रिपोर्ट लिखते और शहर घूमते रहे. कभी इटावा बाजार, कभी शहर के बंगाली मोहल्ला में दंगाईयों ध्दारा लगी आग से लोगों को निकालकर राम नारायण बाजार ले जाते रहे.
पूरे शहर के दंगाग्रस्त इलाकों में लोगों की जान बचाते बचाते वो चौबे गोला पहुंचे. वहां जुटे दंगाईयों की भीड़ के रूख को देखकर गणेश शंकर विद्दार्थी के साथ चल रहे दो हवलदार भाग खड़े हुए. आसपास खड़े कुछ मददगारों ने उन्हें वापस जाने की सलाह दी, लेकिन वो नहीं माने.
उन पर पहले भाले से और फिर कुल्हाडी का वार करके जमीन पर गिरा दिया गया. दो दिन बाद उनकी लाश एक हॉस्पिटल में मुर्दों के ढेर में मिली. 41 साल के गणेश शंकर विद्दार्थी को उनके सफेद खादी के कुर्ते से पहचाना गया. उनकी जेब में तीन चिठ्ठियां थी. आज यानी 25 अप्रैल उनकी शहदत का दिन है.
मुझे तो मालूम नहीं है कि इस देश में ऐसी पत्रकारिता करने वाले के नाम पर कोई पत्रकारिता का स्कूल खुला?
सीटू तिवारी के फेसबुक वाल से साभार