एक लेखक की डायरी बांध अपना बोरिया-बिस्तर बिरादर!
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राज वाल्मीकि / परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय चक्र निरन्तर गतिमान रहता है। प्रकृति का जन्म-मरण का चक्र लाखों-करोड़ों सालों से चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इसलिए लाखों-करोड़ो जीव प्रतिदिन जन्मते और मरते रहते हैं। ऐसे में इस ब्रह्माण्ड में एक जीव का महत्व ही क्या है - समुद्र में एक बूंद के समान। फिर भी मनुष्य की प्रवृति होती है कि वह आम लोगों से कुछ हटकर हो। लोग उसे सराहें। अतः मनुष्य की फेम-नेम चाहने की प्रवृति स्वाभाविक है और इस इक्कसवीं सदी में भी जस की तस है। शायद आगे भी रहेगी।
मोहनदास कर्मचन्द गांधी की तस्वीर जब पांच के नोट से हजार रूपये तक देखता हूं तो मन में विचार आता है कि गांधी जी के बेटे-नाती-पोते यानी उनकी अब की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियां भी उन पर गर्व करती रहेंगी। वैसे गांधीजी को इतना महत्व मिलना चाहिए या नहीं यह अलग बहस का विषय भी हो सकता है।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर को लोग युगों तक याद रखेंगे। सदी का महानायक (हालांकि इस उपाधि के लिए मुझे बाबा साहब सर्वोत्तम लगते हैं।) की उपाधि पाने वाले फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को भी लोग काफी समय तक याद रखेंगे। उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन को तो पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। जाहिर है उन पर अमिताभ जी भी गर्व करते होंगे। इसी प्रकार ख्याति प्राप्त लेखक और ’हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव को भी साहित्यिक जगत जल्दी भुला नहीं पाएगा। वैसे अपन की कामना है कि अमिताभ जी और राजेन्द्र यादव जी दोनो दीर्घायु हों। ऐसे न जाने कितने लोग हैं - जो जीवन में अपने-अपने क्षेत्र मे ऐसा कुछ कर गये हैं, कर चुके हैं या कर रहे हैं - जो मृत्यु के बाद भी अपनी अमिट छाप छोड़ गये हैं और छोड़ जाएंगे। मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और मौत का एक दिन मुय्ययन है। पर इस जहां में कुछ लोग मर कर भी अमर हैं। खैर ये तो हुई खास लोगों की बात।
दूसरी ओर मेरे जैसे आम लोगों का बड़ा वर्ग है। आम आदमी जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं - जिन्हें रोटी-कपड़ा और मकान - कह सकते हैं - उनसे जूझता रहता है। मेरे पिता एक आम आदमी थे। एक आम जीवन जिया और चले गये। जीवन भर उन्होने संघर्ष किया पर नहीं मिली सफलता। क्या कहें- किसी को मुकम्म्ल जहां नहीं मिलता। आज की जिन्दगी में लोग अपने जीवन में इतने व्यस्त हैं कि उनको मेरे जैसे एक आम लेखक को याद करने का वक्त भी कहां है। मैं अपने मित्रों को ईमेल करता हूं। एसएमएस करता हूं। गरीबी के कारण मोबाईल पर ज्यादा बात नहीं कर पाता। वैसे एसएमएस या ईमेल का एक फायदा यह भी है कि आप अपनी सुविधा अनुसार या सहूलियत के हिसाब से जवाब दे सकते हैं। लेकिन मित्र इतना कष्ट करना भी गवारा नहीं करते। मेरे ऑफिस में कम्प्यूटर एवं इन्टरनेट की सुविधा है। इसलिए मैं उन्हें ईमेल भेज देता हूं - मित्रों के घर पर कम्प्यूटर-लैपटोप-इन्टरनेट की सुविधा है - पर वे जवाब नहीं देते।
वैसे जीवन की इस आपाधापी में मित्रों की भी अपनी प्राथमिकताएं होंगीं। वे अपने हिसाब से सोचते होंगे कि किसके ईमेल का जवाब दिया जाए और किसका नहीं। आप जितना उन्हें अपना समझते हैं - जरूरी तो नहीं आप को वे भी उतना ही ‘अपना’ समझें? हो सकता है कि उनकी नजर में आपकी उतनी अहमियत न हो कि आपके ईमेल का जवाब देना जरूरी समझें। वैसे भी आपके मित्र समृद्ध हैं और आप गरीब आदमी हैं। मित्र हमें इतनी तवज्जो क्यों देंगे? पर आप इनका बुरा मत मानिए और उन्हें कुछ भी मत कहिए। क्योंकि - नहीं चाहिए दिल दुखाना किसी का। शायर भी कह गया है कि -तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है। उनसे कोई गिला-शिकवा न रखिए। शायर की पंक्तियों में कहें कि -
न शिकवा करूंगा न गिला करूंगा
आप सलामत रहें यही दुआ करूंगा
वैसे मेरे सारे मित्र ही ऐसे हों - ऐसा नहीं है। उमराव सिंह जाटव जी, ईशकुमार गंगानिया जी, सुमित्रा मेहरोल जी, हीरालाल राजस्थानी जी, ओ.पी. सोनिक जी जैसे लोग फोन पर बात कर लेते हैं। जय प्रकाश कर्दम जी, शीलबोधि जी, बजरंग बिहारी तिवारी जी, डॉ. पूरन सिंह जी, राजेश कुमार चौहान जी ईमेल का जवाब भी देते हैं। भाई कृष्णपाल परख तो अपनी कविता लिख कर भेज देते हैं। अनिता भारती जी ईमेल और फोन दोनो पर जवाब देती हैं|पर ईमेल पर जवाब न देने वाले मित्रों की सूची लम्बी है।
कहते हैं कि पुराने जमाने में शायरों/लेखकों की प्रेमिकाएं हुआ करती थीं जिनके प्यार की वजह से वे अच्छा लेखन करते थे। प्रेमिकाएं तो आज भी शायरो/लेखकों की ही क्या किसी की भी हो सकती हैं। पर अपन इतने खुशनशीब नहीं हैं कि अपन की कोई प्रेमिका हो। चूंकि अपन भी इन्सान हैं और अपने सीने में भी दिल धड़कता है। इसलिए कोई लड़की या औरत पसन्द आई होगी- उससे प्यार का इजहार भी किया होगा। पर उसने हमे प्यार के काबिल नहीं समझा होगा-और एक तरफा प्यार की कोई अहमियत नही होती। वैसे जब अपन लिखते थे तब संपादक अपन की रचनाएं रिजेक्ट कर देते थे और लड़की या औरत अपन के प्यार के प्रस्ताव को ठुकरा देती थीं। दरअसल अपन इमोशनल होते थे और प्रेमिका/दिलरूबा प्रोफेशनल या प्रैक्टिकल। इसलिए अपन रिजेक्ट कर दिए जाते थे। और अपन उसे बेवफा समझते। मगर फिर भी उस बेवफा प्रेमिका/दिलरूबा के लिए फिल्मी गीत की ये पंक्तियां समर्पित कर देते हैं -
खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
बेवफा ही सही दिलरूबा है मेरी
जा मैं तनहा रहूं तुझको महफिल मिले
डूबने दे मुझे तुझको साहिल मिले
अपने बच्चों से इतना जरूर कहूंगा कि - बच्चो मुझे माफ करना - मैं तुम्हारा जन्मदाता हूं। पर तुम्हारे लिए दौलत और शोहरत उपलब्ध नहीं करा सका। एक आम पिता की तरह मैंने किसी तरह तुम्हारा पालन-पोषण कर दिया। जिस तरह पढ़ा-लिखा सकता था - पढ़ा-लिखा दिया। अब तुम बड़े हो गये हो - अपनी जिन्दगी अपने अनुसार जीना। बच्चो इतना जरूर कहूंगा कि - जिन्दगी हर कदम एक नई जंग है। जब तक जिओ - संघर्ष करो। तुम्हारे पिता ने यानी मैंने भी जीवन भर संघर्ष किया -जब तक जीवित रहा।
और अन्त में अपनी पत्नी को भी संबोधित कर दूं। मैं जानता हूं कि तुम्हारी शादी एक मामूली लेखक से हुई। इस कारण तुम्हारे सारे अरमानों पर पानी फिर गया। तुम खुद को बदनशीब समझती हो। कह नहीं सकता कि इसके लिए मैं जिम्मेदार हूं अथवा तुम्हारे माता-पिता या तुम्हारा नशीब। अपनी अरेंज मैरिज हुई थी। फिर भी मैं तुम्हारी तारीफ करूंगा कि तुमने मेरे साथ जिन्दगी निभाई। प्यार और फटकार दोनो दिए। मेरे बच्चों की मां बनीं। मेरे मरने के बाद तुम्हारी जिन्दगी अच्छी गुजरे - यही दुआ करता हूं। पर मरते दम तक दुख यही है कि - मैं तुम्हारी आशाओं पर खरा नहीं उतरा। मेरी वजह से तुम्हारी जिन्दगी बरबाद हुई। सच कहूं तो मैंने अपने जीवन में करना चाहा था बहुत कुछ, कर सका कुछ भी नहीं। निराला के शब्दों में कहूं तो - दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही। मेरी जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि नहीं रही - जिसे याद करके तुम मुझ पर गर्व कर सको। इसलिए तुम मुझे भूल जाना।
अपने परिवारजनो, परिचितों, मित्रों, पाठकों सबसे यही कहना चाहूंगा कि मेरी भलाई या बुराई कुछ भी रही हों। आप उन सबको भूल जाएं। आपके बीच उठता-बैठता, हंसता-बोलता एक इन्सान चला गया तो क्या हुआ - आपको बहुत काम हैं करने के लिए। आप उनमें व्यस्त रहिए। प्रकृति का यह जीवन-मरण चक्र तो यूं ही चलता रहेगा।
हां, मेरे मन में यह अफसोस जरूर रह गया कि काश! मैं कुछ खास कर पाता! जिसकी वजह से मेरी पत्नी, बच्चे, मित्र, पाठक मेरी उपलब्धियों पर मुझे किसी अवसर विशेष पर प्रसंगवश याद करते। पर ऐसा कुछ हो नहीं पाया। इसलिए अब तो साहिर साहब के शब्दों में मैं भी यही चाहता हूं- ‘क्यों कोई मुझको याद करे...मसरूफ जमाना मेरे लिए, क्यों वक्त अपना बर्बाद करे...।
अपनी बात: आपके साथ - कृप्या यह नपूछें कि ये किस लेखक की डायरी है। इस राज़ को राज़ रहने दें। |
संपर्कः राज वाल्मीकि,9818482899, 36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008, rajvalmiki71@gmail.com