जनसत्ता में छपे, रमेश कुमार दुबे के आलेख पर प्रतिक्रिया
कैलाश दहिया/ जनसत्ता में 28.02.2014 की चौपाल में रमेश कुमार दुबे का आलेखनुमा पत्र छपा है, जिसमें ये आरक्षण के नाम पर ‘ब्राह्मणवादी सोच’ का झुनझुना बजा रहे हैं। कितनी हंसी की बात है कि एक ब्राह्मण यह लिख रहा है। दरअसल, इन्हें दलितों का जो थोड़ा बहुत उत्थान हुआ है, सहन नहीं हो रहा है। क्या इन्हें बताने की जरूरत है, आजादी के 66 वर्षों बाद भी आरक्षित जातियों को उन के हिस्से की नौकरियों नहीं दी गईं हैं? सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी ‘बैकलाग’ चल रहा है। अगर दलितों का सही में विकास हो गया है तो सभी पद भरे जाने चाहिए थे। अगर ऐसा नहीं हो रहा तो दुबे से बेहतर कोई नहीं जानता कि इस आरक्षण को रोकने वाला कौन है।
इन्हें न जाने किन ‘परिस्थितियों में बदलाव’ दिख रहा है? क्या इन्हें राजधानी के निकट मिर्चपुर और गोहाना के साथ खैरलांजी जैसे अनगिनत हत्याकांड़ों की याद दिलवाए जाने की जरूरत है? आए दिन दलित घर-बस्तियां फूंकी जाती हैं, दलितों की हत्याएं की जाती हैं और दलित स्त्रिायों पर बलात्कार की खबरों से तो अखबार भरे रहते हैं। इन्हें यह सब नहीं दिखता? दिखता है तो केवल दलितों का आरक्षण, जिसके विरोध में ये कु-तर्क कर रहे हैं। जहां तक तर्क की परिणति है तो आरक्षण उस सीमा तक जाना है जब ब्राह्मण की संख्या के अनुपात में नौकरियां आरक्षित की जानी हैं।
इन्हें बताया जाए, दलितों को जो आरक्षण मिला है वह केवल इन के आर्थिक विकास का मामला भर नहीं है। यह दलितों का वह अधिकार है, जिस के मूल में ‘मूल निवासी’ की अवधारणा जुड़ी है। यह इन के नैसर्गिक अधिकार का मामला है, जो समग्र रूप में देश की तमाम संपति पर इनके दावे को स्वीकार करता है। चाहे दलित कितने भी समृद्ध हो जाएं, उन का यह दावा ज्यों का त्यों बरकरार रहना है। लेखक को थोड़ी इतिहास की जानकारी भी रखनी चाहिए।
हाँ, लेखक को यह अच्छे से पता है कि ‘दलित समुदायों के आरक्षण को कई श्रेणियों में बांट’ देने की साजिश की गई है। यह इन जैसों के दिमाग की ही देन है, अन्यथा अभी तक आरक्षित सीटें ही खाली पड़ी हैं, तब श्रेणी में बांटने की बात षड्यंत्र के सिवाए कुछ नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी आरक्षण को श्रेणी में बांटने को अस्वीकार किया है।
लेखक ने दलितों को ‘नव ब्राह्मण’ कह कर गाली दी है। ऐसी गाली कुछ समय पहले एक कार्यक्रम में विश्वनाथ त्रिपाठी ने डा. धर्मवीर को ‘महाब्राह्मण’ कह कर दी थी। उस समय तो मंच की गरिमा के चलते कुछ नहीं कहा गया, लेकिन बताया जाए, दलित कुछ भी हो जाए ब्राह्मण नहीं हो सकता। अपनी परम्पराओं, रीति-रिवाज, मान्यताओं और पर्सनल कानूनों में दलित और ब्राह्मण समानांतर व्यवस्थाएं हैं, जो कभी एक हो ही नहीं सकते। ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था (रंगभेद) में घृणा, छुआछूत, भेदभाव, ऊँच-नीच भरे पड़े हैं। यह यहां तक है कि ब्राह्मण सिवाए अपने किसी का सम्मान तक नहीं करता। उधर, दलित इन सब बुराइयों से दूर हैं। चिंतन के स्तर पर दलितों को ब्राह्मणों की छुआछूत से भी कोई परहेज नहीं, क्योंकि इसके विरोध का अधिकार उसे ईश्वर से मिला हुआ है, जिसे भारतीय संविधान-कानून ने भी मान्यता दी है।
इस कड़ी में दलित और ब्राह्मणी विवाह-व्यवस्था की बात भी कर ली जाए, जो अच्छा होगा, ताकि भविष्य में कोई भी दलित को ब्राह्मण कहने की जुर्रत न करे। सारी बात घर चलाने को ले कर है। ब्राह्मणी विवाह-व्यवस्था जन्मों-जन्मों का सम्बंध है, जिसमें तलाक हो ही नहीं सकता। इस व्यवस्था में जारकर्म संलिप्त रहता है। उधर, दलितों में विवाह एक सामाजिक-समझौता है, जिस में तलाक की व्यवस्था है। इस से दलितों के घर जारकर्म से दूर रहे हैं। आज दलित सिविल कानूनों को डा. धर्मवीर संहिताबद्ध कर चुके हैं। जहां तक ब्राह्मणवादी सोच की बात है तो उसे लेखक से बेहतर कौन जान सकता है? बताइए, इन्हें दलितों के ‘सर्वांगीण उत्थान’ की चिंता सता रही है? भेडि़या मेमनों को पाठ पढ़ाने चला है।
लेखक ने एक मजाक भी की है। ये लिखते हैं कि ‘परिश्रम का पहाड़ लांघने की जगह लघु पगडंडी (आरक्षण) से न तो समाज का पिछड़ापन दूर होगा और न ही सामाजिक समानता आएगी।’ सवाल है, इस पंक्ति को कैसे पढ़ा जाए? ये इस देश को अपने खून-पसीने से सींचने वाले आजीवकों यानी दलितों को परिश्रम का पाठ पढ़ाने चले हैं। सारी दुनिया जानती है कि इस देश में निठल्ला कौन है। अपने निठल्लेपन के साथ सुदामा सामंत श्रीकृष्ण के पास भीख मांगने पहुंच जाता है। फिर, इसके निठल्लेपन के गीत गाए जाते हैं। दरअसल, आरक्षण आजीवकों के परिश्रम का ही फल है। निठल्लों को अभी काम पर लगाया जाना है।
यह अच्छी बात है, इन्होंने स्वीकार किया है कि प्रतिभा किसी नस्ल या जाति की बपौती नहीं होती। लेकिन मौका मिलते ही ये शंबूक की गर्दन काट देते हैं और लिखते भी हैं ‘ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी/सकल ताड़ना के अधिकारी।’ अगर ये इतने ही ईमानदार हैं तो फूंक डालें अपने धर्मग्रथों को जिन में घृणा और नस्लवाद के सिवाए कुछ भी नहीं है।
उधर, जनसत्ता में ही 3 मार्च को ‘खंडित समाज’ शीर्षक से रोहित कौशिक का लेख छपा है, जिस में उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली ही चरितार्थ हुई है। इन्हें बकौल अभय कुमार दुबे ही बताया जाए, जो उन्होंने एक टी.वी. कार्यक्रम के दौरान कही है कि ‘ब्राह्मण को इस देश में जाति बताने की जरूरत ही नहीं, सरनेम से ही ब्राह्मण की जाति पता लग जाती है।’ अब खुद, कौशिक क्या हैं? यह ब्राह्मण का ही सरनेम है। चूँकि ‘जाति-व्यवस्था’ ब्राह्मण की बनाई हुई है, जिसमें इस ने खुद को ‘गोत्र-व्यवस्था’ में सुरक्षित किया हुआ है। व्यवस्था से लोहा लेने का एक ही उपाय है, सीधे अपनी पहचान पर आया जाए। इसीलिए आज अगर चमार खुद को चमार कह संगठित हो रहे हैं तो इस में गलत क्या है? कौशिक के आलेख से यह बात तो समझ में आई है कि वे जाति-संगठनों को सामजस्यता के लिए अच्छा नहीं मान रहे। इस संदर्भ में महान आजीवक (दलित) चिन्तक डा. धर्मवीर की बात अकाट्य है, ‘जिस दिन ब्राह्मण को जाति व्यवस्था में नुकसान दीखने लगेगा, उस दिन इस देश से जाति विलुप्त हो जाएगी।’ तो अभी जो दूबे, चैबे, वाजपेयी, शर्मा, कौशिक आदि नाम से जो दुम छल्ले लगे हैं, देखना यह है, ये कब विलुप्त होते हैं? इस के बाद ही ‘खंडित समाज’ अखंड हो पाएगा।
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