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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सोशल मीडिया की 'अगस्त क्रांति'

लोकेन्द्र सिंह / अगस्त क्रांति का बिगुल सन् 1942 में भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए फूंका गया था। यूं तो इसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के नाम से अधिक जाना जाता है। युवाओं को आकर्षित करने के लिए संभवत: इसे अगस्त क्रांति का नाम दिया गया। 8 अगस्त, 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से अगस्त क्रांति का उद्घोष किया गया। इस क्रांति ने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दी थीं। फलत: 1947 में अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर समेटकर भारत से जाना पड़ा। आखिरकार भारत ने लंबे संघर्ष, छोटी-बड़ी क्रांति, आंदोलन और प्रतिरोध के बाद आजादी हासिल कर ली। लेकिन, आजादी के बाद देश सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। देश के कर्णधार विकास का देशज मॉडल विकसित नहीं कर सके। पहली सरकार के कार्यकाल से ही घोटाले की परिपाटी शुरू हो गई। नतीजतन आज भी देश के हालात अंग्रेज जमाने के भारत से बेहतर नहीं है। भ्रष्टाचार, नौकरशाही, राजनीति में वंशवाद-तानाशाही, पेड न्यूज जर्नलिज्म जैसी तमाम बीमारियों की गिरफ्त में देश है। देश का कोई कोना, कोई विभाग और दफ्तर भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। इस सबकी आंच पर भीतर ही भीतर देश उबल रहा था, उबल रहा है। नतीजा एक और अगस्त क्रांति। अगस्त २०११ में अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली में भारत उमड़ आया। भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए अगस्त क्रांति का नारा बुलंद हुआ। अन्ना हजारे के आंदोलन के पहले से कालेधन के मुद्दे पर गांव-गांव में अलख जगा रहे बाबा रामदेव ने एक बार फिर अगस्त 2012 में दिल्ली के रामलीला मैदान में जनशक्ति का प्रदर्शन किया।

इन अगस्त क्रांति से तात्कालिक और प्रत्यक्ष परिवर्तन भले ही न आए हो लेकिन आने वाले समय में असर जरूर दिखेगा। क्रांति से सुलगी आग बड़ी देर में शांत होती है। बहरहाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका अहम मानी जा रही है। भारत के आमजन की तरह सोशल मीडिया भी तमाम परेशानियों और चुनौतियों से जूझ रहा है। इन सब पर चिंतन के साथ ही विज्ञान के साथ विकास की बात करने के लिए भोपाल में १२ अगस्त को सोशल मीडिया संचारकों का जमावड़ा हुआ। आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद और स्पंदन संस्था की ओर से था। दिनभर की दिमागी कसरत के बाद देर शाम को भोपाल उद्घोषणा के नाम से सोशल मीडिया की नीतियों और उद्देश्यों की घोषणा हुई। सर्वसम्मति से तैयार की गई नीतियों और उद्देश्यों को मीडिया चौपाल के सह आयोजक स्पंदन संस्था के सचिव अनिल सौमित्र ने सबके सामने रखा। अनिल सौमित्र के बुलावे पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देशभर से करीब डेढ़ सौ सोशल मीडिया संचारक पहुंचे।

चर्चा के दौरान विचारों के आदान-प्रदान से स्पष्ट हो गया कि सब सिस्टम से लडऩे के मूडी हैं। सब युवा थे, जोश-उत्साह से लबरेज और अध्ययनशील भी।
सोशल मीडिया को पॉपकोर्न मीडिया, न्यू मीडिया और टाइमपास मीडिया कहने वालों का उन्होंने तीखा विरोध किया। युवाओं ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव
पारित किया कि अब से सोशल मीडिया को भी मुख्यधारा का मीडिया माना जाए। सोशल मीडिया को भी समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझकर काम करना होगा। भाषा-तथ्य की शुद्धता और स्वनियंत्रण के लिए आचार संहिता के पालन पर विशेष ध्यान देना होगा। लड़ाई लम्बी चलनी है इसलिए सोशल मीडिया फोरम बनाने का निर्णय मीडिया चौपाल में हुआ। युवा वेब पत्रकारों के जज्बे को देखकर सोशल मीडिया संचारकों के इस जमावड़े को 'सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति' कहा जा सकता है।
 
बाजारवाद के प्रभाव में जब समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने आमजन को जगह देना कम कर दिया तब सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा मंच बनकर सामने आया है। कुछेक समाचार पत्रों को छोड़ दिया जाए तो अब समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों के लिए भी जगह नहीं बची है, विचारों के लिए तो कतई जगह नहीं। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। चर्चित और अधिक सर्च की जाने वाली वेबसाइट पर भी हर कोई अपनी बात कहने में सक्षम है। ब्लॉग, फेसबुक, ऑरकुट और ट्विीटर भी अभिव्यक्ति का मंच बन गए हैं। कई मुद्दे तो सोशल मीडिया के कारण ही चर्चा में आए। मीडिया चौपाल में इस बात पर तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गईं कि कथित मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया से खबरें, लेख व अन्य सामग्री कॉपी कर अपने पन्ने भर रहा है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया के उस सिपाही को आभार भी व्यक्त नहीं कर रहा जिसकी सामग्री उसने उपयोग की। कई बार सोशल मीडिया प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों के पीछे की कहानी को भी उजागर कर देती है। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रचार प्रमुख राममाधव ने कहा कि सोशल मीडिया ने सही मायनों में पत्रकारिता को लोकतांत्रिक कर दिया है। अब सच छुपाए से भी नहीं छुप सकता। सूचनाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं। सोशल मीडिया को और अधिक सशक्त करने की जरूरत है। हालांकि उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्व को भी रेखांकित किया। वहीं वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने सोशल मीडिया के उजले और स्याह पक्षों को सबके सामने रखा। सोशल मीडिया के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने कुछ सुझाव भी दिए। इनमें भाषा और तथ्य की मर्यादा बनाए रखने की बात कही। सोशल मीडिया पर एक सरसरी नजर दौड़ाएं तो केजी सुरेश की चिंता जायज है। कई बार ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया भी भटकाव के पथ पर न बढ़
जाए। बेहद फूहड़ फोटोग्राफ्स, टिप्पणियां, लेख और समाचार वर्चुअल वल्र्ड में तैरते दिखते हैं। कंटेंट की गेटकीपिंग के अभाव में गाली-गलौज तक की
भाषा धड़ल्ले से लिखी जा रही है। गलत बात का विरोध करने के लिए अपने शब्दों की धार तीखी रखो लेकिन पवित्रता के साथ। शब्द ब्रह्म होता है।
इसलिए सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को एक आचार संहिता बनानी होगी और पालन भी करना होगा। तभी सोशल मीडिया की ताकत बढ़ेगी। सच की ताकत बढ़ेगी। बात का असर होगा। तभी व्यवस्था में भी परिवर्तन होगा। वेब पत्रकारों के इरादों को मजबूत करते हुए श्री सुरेश ने स्वामी विवेकानंद का प्रसंग सुनाया। किसी भी अच्छे काम का पहले तो समाज या कहें कि उस क्षेत्र के जमे-जमाए लोग उपहास उड़ाते हैं। हम अपना काम तब भी जारी रखे रहे तो जमकर विरोध और आलोचना होती है। इन दोनों सीढिय़ों के पार विजय हमारे स्वागत में पुष्पहार लेकर खड़ी होती है। यानी समाज हमें स्वीकार कर लेता है। ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया के द्वंद्व को मीडिया चौपाल में पहुंचे 'सामना ' (हिन्दी) मुंबई के संपादक प्रेम शुक्ल ने खत्म कर दिया। उन्होंने साफ
किया कि ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया जैसी कोई चीज नहीं है। समय के साथ सब ही अपनी अपडेट अवस्था में हैं। दोनों प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में रहे तो
समाज का भला होने से रहा। दोनों को मिलकर काम करना होगा। बात सही भी है वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम हमेशा गड़बड़ ही रहता है। इस बात पर मंथन के बाद तय हुआ कि सोशल मीडिया को अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। इस बात को कमल संदेश पत्रिका के संपादक, राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि बिना लक्ष्य के कोई भी कार्य फलीभूत नहीं होता। अधिकांश लोग फिलहाल इंटरनेट पर निरुद्देश्य लिख रहे हैं। पहले तय किया जाए कि ब्लॉग किसलिए लिखना है, फेसबुक पर लगातार क्या और क्यों अपडेट करना है और वेबपोर्टल क्यों चलाना है? जब तक गोल स्पष्ट नहीं होगा तब तक कुछ भी संभव नहीं है। सांसद प्रभात झा ने सोशल मीडिया का समर्थन किया और वर्तमान की जरूरत बताया।

मीडिया चौपाल की महत्वपूर्ण घोषणा है - वेब पत्रकारों के हितों की लड़ाई के लिए मीडिया फोरम का गठन करना। ताकि सत्ता के नशे में चूर राजनेता या अन्य लॉबी वेब पत्रकारों का दमन नहीं कर सके। मीडिया चौपाल से भड़ास फॉर मीडिया के संपादक यशवंत सिंह और समाचार संपादक अनिल सिंह के खिलाफ की गई पुलिस कार्रवाई का विरोध किया गया। सोशल मीडिया के सफल संचालन के लिए अर्थ की व्यवस्था के लिए भी एक आर्थिक मॉडल विकसित करने की बात रखी गई। कॉपीराइट और वेबपोर्टल के पंजीयन की बात भी आई। साथ ही वेब पत्रकारों को भी अधिमान्यता देने की मांग की गई। सोशल मीडिया पर तेजी से फैल रही अश्लीलता और भाषाई गंदगी को रोकने के लिए सभी ने एकमत से आचार संहिता बनाने की राय जाहिर की। सोशल मीडिया फोरम से जुड़े वेब संचारकों को इस आचार संहिता का पालन करना अनिवार्य होगा। आचार संहिता का उल्लंघन करने की स्थिति में उक्त वेब संचारक को फोरम से निकाल दिया जाएगा। उम्मीद जताई गई कि ऐसी स्थिति में भाषाई मर्यादा और तथ्यों की पवित्रता बनाई रखी जा सकती है। इंटरनेट की ताकत को राष्ट्र विरोधी ताकतों ने भी तौल लिया है। देश और समाज को तोडऩे, नागरिकों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने और विदेशी ताकतों को मदद  पहुंचाने के लिए कई राष्ट्रविरोधी व्यक्ति व संस्थाएं काम कर रही हैं। इनसे निपटने की भी रणनीति बनाने की बात चौपाल में रखी गई। एक सर्वे के मुताबिक भारत में करीब १२ करोड़ इंटरनेट यूजर हैं। यह संख्या भारत की एक प्रतिशत आबादी से भी कम है। लेकिन, यह वर्ग प्रभावी है। यही नहीं उत्तरोत्तर इंटरनेट यूजर की संख्या बढऩी है। तकनीकि का जमाना है, हर कोई अपडेट रहना चाहता है। शिक्षा और तकनीक के प्रसार के साथ सोशल मीडिया का दायरा भी बढ़ रहा है। इसलिए इंटरनेट पर प्रसारित संदेश, चर्चा और मुद्दों को समाज के बीच ले जाने में और माहौल बनाने में ये १२ करोड़ लोग सक्षम हैं। उक्त मुद्दे और प्रस्ताव क्रांति की मशाल के ईंधन की तरह हैं। इसलिए कहता हूं भोपाल में आयोजित मीडिया चौपाल में सच की लड़ाई लडऩे के लिए सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति का सूत्रपात हो चुका है। यह लड़ाई कहां तक जाएगी यह देखना शेष है।
(लेखक समाजसेवा, साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े हैं)

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सम्पादक

डॉ. लीना