अखिल भारतीय
स्वतंत्र लेखक मंच दिल्ली, शाखा उत्तर प्रदेश, अखिल हिन्दी साहित्य सभा,
नासिक, विश्व हिन्दी साहित्य सेवा, इलाहाबाद के संयुक्त तत्त्वावधान में एक
उत्सवी आयोजन सम्पन्न
इलाहाबाद । आज का नागरिक समाज कहना न होगा लगातार इलेक्ट्रॉनिक होता जा रहा है. सामान्य मित्रता से लेकर नितांत वैयक्तिक सम्बन्ध तक, दैनिक सामान्य क्रियाकलापों से लेकर उत्साह भरे क्षणों तक को साझा करती आज की पीढ़ी सामान्य रंजन की गतिविधियों से लेकर स्वाध्याय और गहन पठन-पाठन तक को इलेक्ट्रॉनिक दुनिया के परिप्रेक्ष्य में जीती है. इस खुले परिदृश्य से असहज दीखती वरिष्ठ पीढ़ी भले ही इसे सतही कह इससे असंपृक्त दिखे, परन्तु, इस माहौल का सकारात्मक फ़ायदा लेते उत्साही अनुभवियों और अग्रसोचियों की कमी नहीं जो साहित्य की सम्पूर्णता को नये आयाम के साथ प्रस्तुत करना चाहते हैं.
हिन्दी भाषा का उन्नयन-प्रयास भौगोलिक और भाषिक सीमाओं से कभी आबद्ध नहीं रहा. कहना अतिरेक न होगा कि हिन्दी के प्रति निस्स्वार्थ आत्मीयता अहिन्दी क्षेत्र के विद्वानों और मनीषियों ने अधिक दिखायी है. चाहे तमिळनाडु से सी. राजगोपालीचारी रहे हों, या बंगाल से सुभाष चन्द्र बोस हों या पंजाब से लाला लाजपत राय हों या फिर गुजरात से महात्मा गाँधी रहे हों. राष्ट्रपिता की धरती से ऐसे ही एक उत्साही और जागरुक साहित्यप्रेमी पंकज त्रिवेदी ने इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल में पिछले दिनो अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी.
ई-पत्रिका ’नव्या’ जो मात्र डेढ़ वर्षों में साहित्यप्रेमियों के दिलों में अपनी जगह बनाने में सफल रही है, के प्रिण्ट प्रारूप के दूसरे अंक का इसी दिनांक को विमोचन हुआ. आखिर हर घड़ी इलेक्ट्रॉनिक हवा में साँस लेने वाली पीढ़ी के सामने किसी ई-पत्रिका के प्रिण्ट प्रारूप का क्या महत्त्व? इसका भी उत्तर दिया पंकज त्रिवेदी ने, समाज का साक्षर स्वरूप ग्रामीण भारत अभी तक इस बहाव से अछूता रहा है. और, विशेषकर मानव मस्तिष्क पर प्रिण्ट का अंकन चित्रात्मक होता है.
इलाहाबाद के ऐतिहासिक निराला सभागार में दिनांक 27 अगस्त 2012 को अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच दिल्ली, शाखा उत्तर प्रदेश, अखिल हिन्दी साहित्य सभा, नासिक, विश्व हिन्दी साहित्य सेवा, इलाहाबाद के संयुक्त तत्त्वावधान में एक उत्सवी आयोजन सम्पन्न हुआ. आयोजन का सत्र तीन भागों में सम्पन्न हुआ. प्रथम सत्र सुश्री प्रीति जैस व सुश्री कुसुमलता भास्कर के संयुक्त चित्रकला प्रदर्शनी के नाम रहा जिसका उद्घाटन माननीय न्यायमूर्ति सुधीर कुमार अग्रवाल के करकमलों हुआ.
द्वितीय सत्र में ’नव्या’ के प्रिण्ट प्रारूप के दूसरे अंक का विमोचन माननीय प्रो. डॉ. आर पी मिश्र (पूर्व कुलपति इलाहाबाद विश्वविद्यालय), राम यादव (आई ए एस) तथा माननीय न्यायमूर्ति सुधीर कुमार अग्रवाल के करकमलों हुआ. इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. आर पी मिश्र (पूर्व कुलपति इलाहाबाद विश्वविद्यालय) ने की. इस सत्र का संयोजन बालकृष्ण पाण्डेय ने किया. मुख्य अतिथियों का स्वागत शाल ओढ़ा कर किया गया. आयोजन का शुभारंभ सरस्वती वंदना से हुआ.
’नव्या’ के संरक्षक व प्रबन्ध सम्पादक पंकज त्रिवेदी ने इलाहाबाद की गंग-जमुनी संस्कृति के प्रति सादर आभार प्रगट करते हुए इस धरती के समस्त मनीषियों को नमन किया. अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री मिश्र ने हिन्दीभाषी क्षेत्र से इतर हिन्दी के प्रति भाव रखने वाले विद्वानों का विशेष उल्लेख किया जिनके अथक प्रयास से हिन्दी सार्वभौमिक रूप ले पायी है. लेकिन इसके साथ ही हिन्दी क्षेत्र के नागरिकों को भी कमसेकम एक हिन्दी से इतर भाषा के जानने पर बल दिया.
दूसरे
सत्र का शुभारंभ दीप-प्रज्ज्वलन द्वारा हुआ. जिसमें उपरोक्त महानुभावों के
अलावे नासिक, महाराष्ट्र से विशेष रूप से आयी पत्रिका ’नव्या’ की
सम्पादिका श्रीमती शीला डोंगरे तथा ठाणे, महाराष्ट्र की कवयित्री श्रीमती
रीता कमल गौतम ने सहयोग दिया.
तृतीय
सत्र में काव्य-सम्मेलन हुआ जिसमें शहर के जाने-माने कवियों और शायरों ने
अपनी-अपनी रचनाएँ और ग़ज़लें सुनायीं जिसका उपस्थित जनसमुदाय ने जी भर कर
आनन्द लिया. कविसम्मेलन की अध्यक्षता मशहूर ग़ज़लगो एहतराम इस्लाम ने की तथा
संचालन किया गोकुलेश्वर द्विवेदी ने किया.
कवियों में यश मालवीय, एहतराम इस्लाम, तलब जौनपुरी, सौरभ पाण्डेय, डॉ. सूर्य बाली ’सूरज’, वीनस केसरी, इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी, रमेश नाचीज, दया शंकर पाण्डेय, अजीत शर्मा आकाश, पंकज त्रिवेदी, ईश्वर शरण, सागर होशियारपुरी, सुक मिर्जापुरी, श्रीमती रीता कमल गौतम, फरमूद इलाहाबादी आदि ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को झूमने पर मज़बूर कर दिया.
यश
मालवीय का भाव-विभोर करता नवगीत होती हुई बारिश के साथ मानों तुकबंदियाँ
कर रहा था. माहौल रसमय हो चला था. आपके दोहों ने श्रोताओं को किसी और लोक
में पहुँचा दिया --
ये कैसी बारीकियां कैसा तंज़ महीन
हम बोले मर जायेंगे वो बोले आमीन
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के शेर अपने इशारों से श्रोताओं की भरपूर वाहवाही लूट ले गये.
राह में पहले कांटे बिछा दो।
मील का हमको पत्थर दिखा दो।
कोई भी जंग मुश्किल न होगी
शर्त है खुद को ग़ाज़ी बना दो।
तलब जौनपुरी का फ़लसफ़ा अलहदा था --
माहौल का अजीब सा तेवर है आजकल।
गुमराहियों में मुब्तिला घर-घर है आजकल।
ज़ालिम ने मेरे सर पे ज़रा हाथ क्या रखा,
रुतबा मेरा जहान से उपर है आजकल।
डॉ. सूर्या बाली ’सूरज’ की हक़ीक़त बयानी ने श्रोताओं को सोचने को बाध्य किया.
शहर ये हो गया श्मशान कहीं और चलें।
बस्तियां हो गयीं वीरान कहीं और चलें।
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई यहां
है नहीं कोई भी इंसान कहीं और चलें।
सौरभ पाण्डेय ने अपनी ग़ज़ल से आजके गाँव का सही रूप दिखाया --
सरकारिया बयान सुघर गांव-गांव है
बरबादियों का दौर मगर गांव-गांव है।
जिनकुछ सवाल से सदा बचते रहेथे तुम
हर वो सवाल आज मुखर गांव-गांव है।
अजीत शर्मा आकाश को श्रोताओं ने भरपूर दाद दी -
एक तिनके का सहारा चाहता है,
और क्या गर्दिश का मारा चाहता है।
नोच खाएगा उसे जिसको कहोगे,
पालतू कुत्ता इशारा चाहता है।
वीनस केसरी ने अपनी ग़ज़ल के अंदाज़ से सुनने वालों को हैरत में डाल दिया.
जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे
क्या परिंदे यहाँ आने जाने लगे
वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे
एहतराम इस्लाम की कहन देर तका श्रोताओं के कानों में गूँजती रही.
वार्ताएं, योजनाएं, घोषणाएं फैसले
इतने पत्थर और तन्हा आइना निष्कर्ष का।
अपने
अध्यक्षीय उद्बोधन में माननीय एहतराम इस्लाम ने कविता के बंदों विशेषकर
ग़ज़लों के प्रति एक महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने रखा कि शेर और बंद एक तरह का
वक्तव्य हुआ करते हैं. एक संप्रेषण ! यदि बंद में संप्रेषणीयता नहीं हुई तो
विधा और शिल्प का संबल उसे दूर नहीं ले जा सकता. आये हुए मेहमानों और उपस्थित जनसमुदाय के प्रति आभार वीनस केसरी ने किया. इलाहाबाद
के साहित्य जगत में इस आयोजन का विशेष महत्त्व रहा. सभी उपस्थित मनीषियों
और शुभांकाक्षियों के स्नेह और आशीर्वाद से पत्रिका ’नव्या’ नित नये आयाम
को छूए, इसकी शुभकामना सभी शुभचिंतक करते हैं. (इलाहाबाद से सौरभ पाण्डेय की रपर्ट)