हरिवंश/ प्रेस परिषद के चेयरमैन न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) मारकंडेय काटजू ने एक समिति बनायी है. पत्रकार होने की न्यूनतम योग्यता तय करने के लिए. अच्छा प्रयास है. पर क्या पत्रकारों की न्यूनतम योग्यता तय हो जाये, तो पत्रकार योग्य हो जायेंगे?
दरअसल, पत्रकारिता एक पैशन (आवेग, उमंग, उत्साह) है. कोई भी पेशा एक धुन है. सनक है. और शौक भी. पर पेशे के प्रति यह पैशन पैदा होता है, शिक्षण संस्थाओं से. समाज और राजनीति से. पत्रकार भी इसी समाज-माहौल की उपज हैं. वे किसी अलग ग्रह से नहीं उतरते. भारत के शिक्षण संस्थानों की क्या स्थिति है? विश्वविद्यालय और कॉलेजों से किस स्तर के छात्र निकल रहे हैं? उनकी योग्यता क्या है? पीएचडी किये लोग आवेदन नहीं लिख पाते.
अनेक ऐसे पत्रकार हुए, हिंदी या अंगरेजी में, जिनकी औपचारिक शिक्षा नहीं थी, पर उनमें आवेग था, प्रतिबद्धता थी, वैचारिक आग्रह था. समाज के प्रति कुछ करने की धुन थी. यह जज्बा पैदा होता था, राजनीति से. उस राजनीति से, जिसमें विचार जिंदा थे, जो राजनीति धंधा नहीं थी और न सत्ता पाने का महज मंच. डाक्टर लोहिया, जब लोकसभा का उपचुनाव जीत कर गये, तो उन्होंने लोकसभा में हिंदी में बोलना शुरू किया. तब तक संसद में अंगरेजी ही सबसे प्रभावी भाषा थी. पर डॉ लोहिया के भाषणों में वैचारिक तत्व इतने प्रखर और तेजस्वी थे कि अंगरेजी जाननेवाले विद्वानों-धुरंधर पत्रकारों ने हिंदी पढ़ी, सीखी और जानी. समाज, देश या राजनीति में सबसे प्रमुख है, चरित्र, विचार और पैशन. यह पैदा होता है, सिर्फ वैचारिक राजनीति से. चरित्रहीन राजनीति या गद्दी की राजनीति से नहीं. आजादी की लड़ाई में ऐसे ही वैचारिक और चरित्रवान राजनेता हुए, तो पत्रकारिता भी बदल गयी. एक से एक विचारवान पत्रकार उभरे. कुछ लोगों को गलत धारणा है कि आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता ने राजनीति बदली.
दरअसल, उस वक्त की राजनीति में इतना तेज, ताप और चरित्र था कि उसने जीवन के हर क्षेत्र को बदल दिया. एक से एक बढ़कर शिक्षक हुए, वकील हुए, समाजसेवी हुए. कामराज जैसे लगभग अशिक्षित लोगों ने राजनीति में नयी लकीर खींच दी. तमिलनाडु में प्रशासन, विकास और राजनीति के उच्च मापदंड स्थापित किये, कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में. राजनीति की गरिमा को ऊंचाई दी, अपने आचरण और काम से. आज कौन पढ़ा-लिखा राजनीतिज्ञ, उनके पासंग बराबर भी दिखायी देता है.
अपवादों की बात छोड़ दें. आज समाज की मुख्यधारा यही है. हर क्षेत्र में औसत, प्रतिभाहीन, समझौता- परस्त और किसी तरह शिखर छूने को बेचैन लोग. यह आज के समाज का दर्शन है. ईमानदार, चरित्रवान तो बोझ बन गये हैं. इस आबोहवा और माहौल में सही पत्रकार बनना कठिन है. फिर भी इस कोशिश की प्रशंसा होनी चाहिए.