स्वतंत्र मिश्र / लगभग नौ-दस साल पुरानी बात है. मैं फ्रीलांसर था.लोकमत समाचार के लिए इयर-इंडर (साल की घटनाओं का लेखा जोखा ) के लिए कला-साहित्य पर टिपण्णी के लिए मैंने प्रयाग शुक्ल जी को फ़ोन किया. उन्होंने चार-पांच बार अपनी व्यस्तता बताई फिर बहुत कुछ फ़ोन पर पुछा. मतलब न-नुकुर. लेकिन समय तय हुआ और मुझे एनएसडी बुला लिया. मैं वहां पहुंचा तो प्रयाग जी ने मुझसे कहा -"क्या इंटरव्यू देने के पैसे मुझे लोकमत समाचार देगा? मैंने बताया कि वे ऐसा दिवाली विशेषांक के लिए करते हैं. इंटरव्यू करने वाले और इंटरव्यू देने वालों -दोनों को पैसे देते है. सामान्य अंक में नहीं देते. उनका ऐसा पूछना वाजिब ही हो सकता है, लेकिन मुझे इतनी व्यस्तता बताने और बार-बार फ़ोन करवाने के बाद बुलाकर इंटरव्यू न देने का क्या मतलब रहा होगा? मुझे अच्छा नहीं लगा और बहुत विनम्रता से मैंने कहा आप हिंदी के बड़े कवि, लेखक हैं. आपको मुझे बुलाकर ऐसा करने की क्या ज़रुरत थी? मैं फ्रीलांसर हूँ और रोहिणी से यहाँ आने-जाने का खर्च और समय? उन्होंने मेरा लगभग खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि समय बर्बाद करने के लिए माफ़ी. उन्होंने आगे कहा - हाँ, आपको मैं टैक्सी का भाड़ा दिलवा देता हूँ. मैंने कहा जी मैं तो बस और मेट्रो में चलता हूँ. आपकी तरह टैक्सी और हवाई जहाज से नहीं. आप मेरा मजाक क्यों उड़ा रहे हैं? साहित्य के जीवन और यथार्थ के जीवन में इतना विरोधाभास! जनसत्ता में दुनिया मेरे आगे वाले स्तम्भ में गंगा की लहरें, जामुन का पेड़ और गिलहरी के प्रति संवेदना प्रकट करने वाले इस कवि का हृदय अपने बीच के लोगों के प्रति इतनी हिकारत भरी क्यों है, यह समझ नहीं आया.....