अपने अंदर झांककर देखना भी जरूरी
नागेंद्र प्रताप/ हमारे जो पत्रकार मित्र विपक्षी गठबंधन द्वारा कुछ पत्रकारों के बायकॉट की घोषणा से बुरी तरह आहत हैं, उन्हें दरअसल उस वक्त आहत होना चाहिए था जब ये या ऐसे पत्रकार पत्रकारिता की भाषा छोड़ नफरती बातें कर रहे थे। आज भी कर रहे हैं।
उन्हें उस वक्त आहत होना चाहिए था जब ये पत्रकार अपने पैनल पर बैठे लोगों की वह आवाज म्यूट कर रहे थे जिसमें कही गई बात उन्हें पसंद नहीं आ रही थी। आज भी कर रहे हैं।
एक बात और…
- अगर NDTV का, या रवीश कुमार का भाजपा द्वारा बहिष्कार जायज है, तो यह या ऐसी सूची जारी करना भी पूरी तरह जायज है।
- अगर करण थापर के सवाल पूछने पर अपना माइक निकालकर फेंक देना जायज है, और तब से अब तक करण थापर का बहिष्कार जायज है तो यह सूची बिलकुल जायज है।
- अगर किसी खबरिया चैनल के उद्घाटन अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा कहे गए वे शब्द (जो दुर्घटनावश ऑन एयर भी चले गए, सुने गए) जायज हैं, और उन शब्दों में निहित भावना के वशीभूत चैनल के दो पत्रकारों का चैनल से बाहर हो जाना या कर दिया जाना जायज है, तो यह सूची भी जायज है
- अगर संसद की गैलरी में प्रवेश के लिए, मंत्रालयों में प्रवेश की सुविधा देने वाला मान्यता कार्ड चुनिंदा रिपोर्टरों से वापस ले लेना जायज है, तो यह बहिष्कार भी जायज है।
- और अगर इन सब बातों पर प्रधान संपादक नाम की संस्था, अखबारों - चैनलों के प्रबंधन/मालिकान की चुप्पी जायज है तो यह बहिष्कार भी जायज है
मैं पत्रकारों और पत्रकारिता पर ऐसे किसी हस्तक्षेप या हमले के खिलाफ हूं लेकिन पत्रकारिता करते हुए पत्रकारों के नफरती आचरण के साथ भी नहीं खड़ा हो सकता!
मैं पत्रकारिता में बुरी तरह पैठ चुकी उस संस्कृति के खिलाफ हूं जिसकी नजर में अब समाज में होने वाली सकारात्मक बहसें और कार्यक्रम नहीं आते!
मैं पत्रकारिता की उस प्रवृति के खिलाफ हूं जिसने सत्ता से सवाल पूछना छोड़ दिया है और उसके सवाल सिर्फ विपक्ष के लिए होते हैं!
मैं सवाल पूछने वाले, भ्रष्टाचार और कदाचार का भांडा फोड़ने वाले, अपना काम करने निकले पत्रकारों को बेवजह जेल भेज देने, उनकी नौकरी खा जाने के खिलाफ हूं। उस प्रवृति के खिलाफ हूं जब अखबार या चैनल अपने अदने से पत्रकार से यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि वह पत्रकार नहीं, स्ट्रिंगर था या कई बार इतना भी स्वीकार नहीं करते!
मैं अपने इन मित्रों की उस सोच के खिलाफ हूं जब यूपी या किसी भी राज्य सरकार का वह नोटिफिकेशन उन्हें परेशान नहीं करता और मीडिया पर हमला नहीं लगता, जिसमें खबरों पर सीधा एक्शन लेने जैसी बात कही गई होती है!
मैं मीडिया के दोस्तों, मीडिया प्रतिष्ठानों, प्रधान संपादक जैसी संस्था के उस आचरण से आहत हूं, जब वे ऐसे किसी नोटिफिकेशन के खिलाफ अपने अखबार या चैनल में तो दूर, एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर भी विरोध जताने की जरूरत नहीं समझते।
दरअसल मीडिया जिस तेजी से अपनी विश्वसनीयता खोता गया है, उसमें उस पक्ष या इस पक्ष से यह सब होना ही था।
ऐसे में हम पत्रकारों/मीडिया से जुड़े लोगों/ मीडिया के पैरोकारों को अपने अंदर झांककर देखना बहुत जरूरी है कि कहीं किसी खास रस में डूबकर हम अपनी ही जड़ों को तो मट्ठा पिलाने तो नहीं बैठ गए हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं