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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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पत्रकार या मेरा पत्रकार ?

यदि इसे हमारे पत्रकार लिखा जाता तो वही अर्थ और भाव निकलता जो इससे निकल रहा है ?

विनीत कुमार/ आप जिस मीडिया संस्थान के लिए रात-दिन एक किए रहते हैं, ख़ून-पसीने का भेद मिटाकर काम करते हैं, पार्टी लाइन की तरह बॉस के मिज़ाज को फॉलो करते हैं, संस्थान बदलते ही दोस्त बदल लेते हैं, उसी हिसाब से सोशल मीडिया पर व्यवहार करते हैं, एक का ख़ास होने के फेर में ज़माने को नज़रअंदाज़ करते हैं..यकीं मानिए, आप एक दिन एकदम से अकेले और अलग-थलग पड़ जाएंगे. संस्थान और वहां के लोग अपने को बचाते हुए आपको दूध की मक्खी की तरह अलग कर देंगे और प्रेस लिखा आपके परिचयवाला पट्टा बाननदास के चिथड़े( मैला आंचल ) की तरह आपके गले में झूलता रह जाएगा.

कल रात नोएडा एक्सटेंशन में न्यूज 18 के मीडियाकर्मी सौरभ शर्मा, उनकी पत्नी और छह साल के बच्चे के साथ जो कुछ भी हुआ, इस संबंध में मैंने इसी संस्थान की वेबसाइट पर ख़बर और शार्षक पर ग़ौर किया. शीर्षक है-

“नोएडा एक्सटेंशन में 12 बजे लाउडस्पीकर बंद करवाने गए पत्रकार पर पुलिस के सामने जानलेवा हमला.”

आप ख़ुद से पूछिए कि ये सही शीर्षक है ? यदि इसे हमारे पत्रकार लिखा जाता तो वही अर्थ और भाव निकलता जो इससे निकल रहा है ? आप ग़ौर करेंगे तो लंबे समय तक कुछ और नहीं तो कारोबारी मीडिया कम से कम इतना लिखता- हमारे पत्रकार, हमारे कैमरामैन. जाहिर है, ऐसा करते हुए भी वो अपनी ब्रांडिंग कर रहा होता जिससे दर्शक को लगे कि उसका चैनल/अख़बार कितनी जोख़िम उठाकर काम करते हैं. लेकिन

अब ऐसा नहीं करता. वो दावा ही नहीं करता कि ये मेरा मीडियाकर्मी है और एक वाक्य में जतला देता है कि हम औपचारिकतावश ख़बर चला तो दे रहे हैं लेकिन इनसे हमें कोई लेना-देना नहीं.

मुझे नहीं पता कि सौरभ अपने संस्थान के पक्ष में सार्वजनिक तौर पर क्या लिखते-बोलते आए हैं और कैसे उन बातों का समर्थन करते रहे जिसके आज वो ख़ुद शिकार हुए हैं लेकिन जब वो इस शीर्षक से गुज़र रहे होंगे तो महसूस कर पाने में मुश्किल थोड़े ही हो रही होगी कि हम जिस संस्थान के लिए जी-जान लगाते रहे, वो संस्थान( फ़िलहाल तो भाषा के आधार पर ही ) ही हमारे साथ नहीं है, कम से कम भावनात्मक स्तर पर तो बिल्कुल भी नहीं. पत्रकारिता दरअसल सामूहिकता और उसकी क्षमता का विस्तार है, वो अकेले किए जाने पर भी सामुदायिक काम है. जो संस्थान और मीडियाकर्मी इतनी सी बात नहीं समझ पा रहे हैं, वो कुछ और नहीं तो कम से कम पत्रकारिता तो नहीं ही कर रहे, एक ऐसा आयवरी टावर खड़ी कर रहे हैं जिस पर सबसे अकेला उसका ही मीडियाकर्मी है. अकेला, बेजार और हारे हुए मन का इंसान।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना