दलित चिंतन का निचोड़ है 'आजीवक'
कैलाश दहिया/ बात 1997 की है, डॉ. धर्मवीर की पुस्तक 'कबीर के आलोचक' आई। इस किताब के आते ही हिंदी साहित्य में जलजला पैदा हो गया। अभी तक कबीर के नाम पर विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साथ-साथ परशुराम चतुर्वेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध और ऐसे ही अन्य द्विज आलोचक संदेह के घेरे में आ गए। फिर क्या था विश्वविद्यालयों और साहित्य में सक्रिय द्विज और सवर्ण आलोचक डॉ. धर्मवीर की आलोचना में जुट गए। एक तरफ धर्मवीर और दूसरी तरफ सारे वर्णवादी जातिवादी लेखक-आलोचक। लेकिन, डॉ. साहब रत्ती भर भी नहीं डिगे। उन्होंने एक-एक कर के सभी को धराशायी कर दिया।
इस वैचारिक प्रक्रिया में एक-एक करके डॉ. साहब की सात किताबें आईं। इसी कड़ी में 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल' उन के चिंतन की निचोड़ है। इस की घोषणा उन्होंने अपनी किताब 'सूत न कपास' में साल 2003 में की थी।
ये धराशायी होने वाले लेखक वर्ण- व्यवस्था, पुनर्जन्म और संन्यास को मानने वाले हैं, जबकि महान गोसाल की परंपरा के लोग अवण्णवादी और पुनर्जन्म को किसी भी रूप में नहीं मानते। संन्यास के बारे में तो कबीर साहेब कहते ही हैं, 'घर में जोग भोग घर ही में।'(1) 'यही आजीवक धर्म की विशेषता है कि इस में गृहस्थ और श्रमण अलग-अलग व्यक्ति नहीं होते। असल में, गोसाल और महावीर में बिगड़ी किस बात पर थी जबकि ये दोनों छह सालों तक साथ-साथ रहे थे? बिगड़ी इस बात पर थी की मक्खलि गोसाल ने स्त्री को साथ रखने का निर्णय लिया था। उन्होंने ब्रह्मचर्य की इस परिभाषा को त्याग दिया था कि गृहस्थ और बाल-बच्चेदार आदमी होने से धर्म भंग होता है।'(2)
असल में, यह ग्रंथ एक विशाल वैचारिक प्रक्रिया की परिणति है। इस वैचारिक प्रक्रिया में विरोधियों के सभी सवालों के जवाब ही नहीं दिए गए बल्कि उन्हें निरूतर किया गया है। यही वजह है कि प्रसिद्ध क्षत्रिय आलोचक ने कहा, 'मेरी इच्छा नहीं हुई कि मैं धर्मवीर को और पढूॅं- प्रो. नामवर सिंह' (3) ऐसे में सहज ही हिंदी साहित्य की दशा, दिशा और दुर्दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस वैचारिक प्रक्रिया में ढाई हजार वर्ष पहले छुपा दी गई बहस पूरी तरह से खुलकर सामने आ गई। ब्राह्मण, महावीर और बुद्ध की जुगलबंदी पूरी तरह खुल गई। ढाई हजार साल पहले जब महान गोसाल वर्णवादियों को जमीन सुंघा रहे थे तब ब्राह्मण ने खुद को महावीर और बुद्ध के पीछे छुपा लिया था। बहस से बाहर वह इन के लिपिकार के रूप में पृष्ठभूमि में रहा। इसीलिए, डॉ. धर्मवीर ने लिखा, 'यह कहने में कोई वजन नहीं है कि बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। सच यह है कि बौद्ध धर्म को ब्राह्मणों ने चलाया। एक बुद्ध क्षत्रिय हो गए पर बाकी सारे बौद्ध दार्शनिक ब्राह्मण थे। बुद्ध के धर्म सेनापति सारिपुत्र का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बौद्ध धर्म के दूसरे बृहस्पति महा मौदगल्यायन का जन्म भी ब्राह्मण कुल में हुआ था। जिन अन्य बौद्ध दार्शनिकों और धर्मपुरुषों का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था उनके नाम बनाए जा सकते हैं- महाकाश्यप, मोग्गलिपुत्र तिष्य, नागसेन, अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धयश, बुद्धघोष, असंग, वसुबन्धु, दिड्नाग, परमार्थ, धर्मकीर्ति, शांतिरक्षित। ये ब्राह्मण न हो गए, बौद्ध धर्म में ब्राह्मणों की फौज खड़ी हो गई जिन्होंने बौद्ध धर्म पर भीतर से कब्जा कर रखा है। ऐसे ही महावीर एक क्षत्रिय हो गए- और उनके बाकी सारे शिष्य कौन थे? उनके ग्यारह शिष्य थे। उन्हें गणधर कहा जाता है। आश्चर्य है कि वे सारे के सारे ब्राह्मण थे।'(4)
आगे चलकर शंकराचार्य के रूप में ब्राह्मण फिर सामने आ गया। आज डॉ. धर्मवीर ने इस रहस्य से पर्दा उठा दिया दिया है कि ब्राह्मण, जैन और बुद्ध एक ही हैं। एक दूसरे से लड़ने का ढोंग करते हुए ये भीतर से मिले हुए हैं। डॉ. साहब लिखते हैं, 'भारत में कुल दो लड़ाइयां चल रही हैं- एक लड़ाई में ब्राह्मण लड़ रहा है और दूसरी लड़ाई में आजीवक लड़ रहा है। ब्राह्मण अपनी लड़ाई में आजीवक, जैन और बौद्ध तीनों से लड़ता है और आजीवक अपनी लड़ाई में ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों से लड़ता है। ये बौद्ध और जैन धर्म आजीवक और ब्राह्मण धर्म के बीच में पड़ते हैं। देश की असली लड़ाई आजीवकों और ब्राह्मणों के बीच ठनी हुई है, जिस में बौद्ध और जैन कभी आजीवकों के साथ दीखने लगते हैं और कभी ब्राह्मणों के साथ।' (5) यही वजह है कि डॉ. अंबेडकर दलितों को बौद्ध बता रहे हैं और उधर, प्रबोधचंद्र सेन जैन धर्म को बंगाल का आदि धर्म कह रहे हैं। दरअसल, दोनों विद्वान आजीवक को समझ ही नहीं पाए।
हर दलित की तरह मेरी भी जिज्ञासा रही है कि इतिहास में हमारी उपस्थित कहां है। किसी भी कथा-कहानी में ब्राह्मण ही खड़ा मिलता है। वह खुद को श्रेष्ठ दिखाता- राजाओं से चरण वंदन करवाता देखा जा सकता है। सुदामा के रूप में वह निरीह गरीब बन जाता है। जबकि, सुदामा के रूप में यह गरीबों का हिस्सा हड़प कर लेता है। ऐसे ही कहीं महावीर तो कहीं बुद्ध कथा कहानियों के माध्यम से सामने आ जाते हैं।
इस ग्रंथ की सब से बड़ी विशेषता ही है कि इस में दलितों का इतिहास जगमगा कर सामने आ गया है। अभी तक दलितों की यह समस्या बनी हुई थी कि ये मध्यकाल के हमारे महापुरुषों रैदास और कबीर से पीछे नहीं जा पा रहे थे। यहां तक की डॉ.भीमराव अंबेडकर भी बुद्ध के बहाने दलितों के सामने प्रक्षिप्त इतिहास ही प्रस्तुत कर रहे थे।
यह आजीवक क्या है, इसे इस किताब से उद्धृत संदर्भ से ही जाना जा सकता है, डॉ. धर्मवीर बताते हैं, 'जैन दर्शन में जीव के साथ उसके कर्म जुड़े हुए रहते हैं जो मृत्यु के बाद उसके लिए नया शरीर धारण करने का निर्धारण करते हैं। जैन दर्शन में यही जन्म की प्रक्रिया है कि यह जीव को उसके पूर्व शरीरों में किए गए कर्मों के अनुसार प्राप्त होता है। इस के विपरीत, आजीवक दर्शन ने कर्म और कर्मफल के बजाय जन्म के बारे में नियतिवाद का सिद्धान्त दिया है। 'अजीव' के रूप में आजीवक का यही मतलब है कि यह मरण के बाद 'जीववाद' में विश्वास नहीं करता। इसलिए आजीवक दर्शन में पुनर्जन्म समाप्त है।... आजीवक दर्शन में मरने का मतलब ही है कि अब वह जीव या आत्मा नहीं है।'(6) यानी कोई पुनर्जन्म नहीं होता। और यही वह जगह है जिस से भौतिकवाद, विज्ञानवाद, मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद पैदा होता है।
इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता की गोसाल की परंपरा में ही घोषाल, घोष और अन्य ऐसे नाम है जो अभी तक चले आ रहे हैं। जैन कोष में घोष का अर्थ बताया गया है, 'जहाँ पर बहुत घोष (अहीर) रहते हैं उसे (उस ग्राम को) घोष कहते हैं।' बेशक हीनता के मारे कोई वेद पर लिखे या उपनिषद् पर या योग पर। कोई क्या कर सकता है।
उधर, प्रबोधचंद्र सेन ने 'जैन और आजीवक धर्मों को ही बंगाल का आदि धर्म स्वीकार' किया है। बेशक वे इस की जड़ तक नहीं पहुंच पाए। वे लिखते हैं, 'ईसा पूर्व प्रथम (दूसरे मतानुसार द्वितीय) शताब्दी में कलिंगाधिपति खारवेल ने उत्तर एवं दक्षिण भारत में एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था।... कलिंग राज्य जैन धर्म का एक प्रधान-केंद्र था। अतएव जिस समय कलिंग में जैनधर्म का इतना प्राधान्य था उस समय बांग्लादेश में भी जैनधर्म का बहुत प्रभाव था ऐसा स्वीकार करना अनुचित न होगा।'(7) असल में, लेखक कलिंग में जैन शासक होने से बंगाल में भी जैन धर्मावलंबी होने के धोखे में आ गए। वे समझ नहीं पाए की उस समय प. बंगाल,(बांग्लादेश सहित) उड़ीसा और बिहार की अधिकांश जनता आजीवक थी। जबकि महावीर और बुद्ध के बहकावे में यहां के शासक जैन और बौद्ध हो रहे थे। इसे यूं समझा जा सकता है कि मुसलमानों के शासनकाल में यहां की अधिकांश जनता ना तो मुसलमान थी और ना ही हिंदू। तभी तो सल्तनत काल में कबीर साहेब खुद के "ना हिंदू ना मुसलमान" होने की घोषणा कर रहे हैं, क्योंकि कबीर भी आजीवक थे। ऐसे ही ब्रिटिश शासन काल में भी यहां के लोग क्रिश्चियन नहीं थे। ये ना हिंदू और ना मुसलमान ही आज की शब्दावली में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के लोग हैं।
इसी संदर्भ में बताना है कि बंगाल और बांग्लादेश में अभी तक चली आ रही 'बाउल गायन की परंपरा' भी आजीवकों की ही देन है। महान मक्खली गोसाल सहस्त्रवीणा पर बजाते और गाते थे। इसी से बाउल परंपरा चली है और इस का ही विस्तार निर्गुण में हुआ है। जो रैदास-कबीर के माध्यम से पूरे भारत और भारत से बाहर गूंजा है।
दरअसल यह किताब तीन संयुक्त किताबों से मिल कर बनी है। पहली किताब आजीवक इतिहास पर है। दूसरी पुस्तक में कबीर साहेब के वास्तविक पदों का चयन है। अभी तक कबीर के नाम पर चले आ रहे ढेरों प्रक्षिप्त पदों को हटा मूल वाणी को इस में दिया गया है। ऐसे ही तीसरी पुस्तक में 'रैदास वाणी' का संकलन है।
इस किताब में आजीवक धर्म से संबंधित गूढ़ सूत्रों का खुलासा कर दिया गया है। जिन्हें आजीवक विरोधियों ने उलझा कर रखा हुआ था। इन में 'नो धम्मो त्ति, नो तवो त्ति, नत्थि पुरिस्कारे, संसार शुद्धि, मंडल मोक्ष और नियतिवाद प्रमुख हैं। इसे कुछ यूं समझा जा सकता है, 'मंडल मोक्ष की बात पूरी की जाए। इस में कहा जाए की आजीवकों का इतिहास आज भी इस रूप में शेष है कि बिहार, झारखंड और बंगाल में कुछ लोगों का एक उपनाम 'मंडल' है। जोगेंद्र नाथ मंडल और बी.पी. मंडल चर्चित नाम हैं। इन में पहले अनुसूचित जाति के थे और दूसरे पिछड़े वर्ग के। मंडल मोक्ष का अर्थ इन लोगों के उपनाम से खुलता है- अर्थात जो एक व्यक्ति की नहीं बल्कि घने सारे लोगों की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करता है।'(8)
आज इतिहास के पन्नों से हमारी ऐतिहासिक पहचान सामने आ गई है। अब हम शबर, बर्बर, शवपच, डोम, चांडाल और अछूत जैसी विरोधियों द्वारा दी गई पहचान की तरह इस 'दलित' शब्द को भी समुद्र में विलीन कर रहे हैं। अब हम अपनी कंप्लीट पहचान के साथ आजीवक के रूप में मानव सभ्यता में अपना योगदान देने को तत्पर हैं।
इस पुस्तक में कबीर के धर्मग्रंथ 'बीजक' का भी खुलासा किया गया है। इस बीजक का स्वर यह है कि वंदे मातरम् के साथ वंदे फादरम् भी गाया जाए। अर्थात, अब "या देवी सर्व भूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता" के साथ 'या देव सर्व भूतेषू पितृ रूपेण संस्थिता' गाना ही होगा। इसी से इस देश की सभ्यता विकसित होनी है।
संदर्भ :
1, 2, 4, 5, 6, 8
महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण : 2017, पृष्ठ - 326, 58, 7, 50-1, 78, 204
3.- www.shabadankan.com, 18 मार्च, 2017
7. बंगाल का आदि धर्म, श्री प्रबोधचंद्र सेन एम.ए., प्रथम संस्करण: 1958