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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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इसने हर रचनात्मक और जिज्ञासु व्यक्ति के लिए अवसर बढ़ाए हैं

गिरीश पंकज/ मानव सभ्यता के विकास के साथ हर काल में अभिव्यक्ति के माध्यम बदलते रहे हैं। हमारे नित नवीन होते रहने वाले ज्ञान ने विज्ञान के माध्यम से जीवन जीने के अनेक साधन विकसित किए। अभिव्यक्ति के नये-नये विकल्प भी तलाशे। यहाँ तक आते-आते यानी इक्कीसवीं सदी में अब इंटरनेट हमारे सामने है। यह बिल्कुल नया मीडिया है, जिसके द्वारा हम सब अपने आप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। ज्ञान से अर्जित विज्ञान एवं तकनीक की यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसका लाभ उठाने वाला ही जान सकता है कि वह क्या उपलब्धि हासिल कर पा रहा है। ऐसे समय में जब समकालीन हिंदी पत्रकारिता बिकाऊ मीडिया के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है, तब यह नया मीडिया बेहद कारगर हथियार के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर जैसे माध्यमों के द्वारा अब हर व्यक्ति के पास गोया उसका अपना अखबार है। जिसने अपनी साइट बना ली, तो वह सूचनाओं का शंहशाह बन गया। जिसके माध्यम से वह न केवल खबरें दे सकता है, वरन महत्वपूर्ण घटनाओं पर अपनी टिप्पणियाँ भी देता है। अब तो छोटे-छोटे शहरों के समाचार पत्र भी इंटरनेट पर उपलब्ध होते जा रहे हैं। इसके माध्यम से एक वैश्विक विमर्श की स्थिति बन रही है।

इस न्यू मीडिया के माध्यम से वैचारिक आंदोलनों के साथ-साथ सड़कों पर उतर आने वाले आंदोलनों की भी सार्थक भूमिकाएँ बन जाती हैं। यह मेरा अपना निजी अनुभव भी है और आए दिन घटित होने वाली अनेक घटनाएँ भी हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि इस नये मीडिया ने चमत्कार -सा कर दिया है। बेशक अगर इसे हम मीडिया की मुख्यधारा मान लें, तो अतिरंजना नहीं होगी। क्योंकि जो पारम्परिक मीडिया हमारे सामने है, उसमें एक वैचारिक जड़ता या शून्यता साफ नजर आती है। मिशन या क्रांति की धार भोथरी हो गई है। बाजारवाद हावी हो गया है। स्वार्थपरता ने मूल्यों की हत्या कर दी है। सच कहने का साहस खत्म होता चला गया है। ऐसे समय में न्यू मीडिया एक नई आशा के साथ उभरा है। मानों हर व्यक्ति के हाथ में एक मशाल है, या टार्च है, जिसके सहारे वह अंधेरे की छाती चीर कर आगे बढ़ सकता है। अब उसे अभिव्यक्ति के लिए समाचार पत्रों या पत्रिकाओं की कतई जरूरत नहीं है। अब जिसके पास इंटरनेट है, और वह अगर ब्लॉग, फेसबुक-ट्विटर वगैरह से जुड़ा है तो वह अभिव्यक्ति का सिपाही है। वह अपनी बात दुनिया के सामने कह सकता है। फेसबुक एक तरह से लंदन का ‘हाइड पार्क’ है, जहाँ लोग जा कर अपनी मन की बात कह सकते हैं। न्यू मीडिया भी ग्लोबल पार्क या मंच है, जहाँ जिसे जो कहना है, कह सकता है, दिखा सकता है। अभी फिलहाल कोई रोक-टोक नहीं, कोई सरकारी सेंसरशिप नहीं है।

इस न्यू मीडिया ने हर रचनात्मक और जिज्ञासु व्यक्ति के लिए अवसर बढ़ाए हैं। गूगल के माध्यम से जानकारियों में इजाफा हुआ है। सूचनाओं का संजाल देखते ही बनता है। जीवन-जगत के हर क्षेत्र की महती सूचनाएँ यहाँ मिल जाएँगी। लघु पत्र-पत्रिकाओं के लिए तो इंटरनेट मानों जैकपॉट हो गया है। उनके लिए एक खजाना है यह। इंटरनेट को खंगाल कर एक-दो लोग ही छोटे-मोटे अखबार प्रकाशित कर लेते हैं। ई-मेल के जरिए सूचनाओं का अदान-प्रदान भी खूब होने लगा है। धीरे-धीरे समग्र व्यापार-व्यवहार इंटरनेट पर आश्रित होता जा रहा है। घर बैठे बैंकिंग, टिकट बुकिंग वगैरह आसान हो गई है। अभिव्यक्ति की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए भी यह माडिया क्रांतिकारी साबित हुआ है। मेरे जैसे अदने से लेखक को इस मीडिया ने वैश्विक दायरे से जोड़ दिया। अपनी रचनाओं पर तत्काल अनेक लोगों की प्रतिक्रियाएँ सामने आ जाती हैं। रचनाएँ पढ़ कर लोग कवि सम्मेलन या वैचारिक गोष्ठियों में आमंत्रित करने लगे हैं।

न्यू मीडिया की विशेषता यही है कि यहाँ किसी एक मुद्दे पर छेड़ी गई बहस पर फौरन वैचारिक विमर्श शुरू हो जाता है। और रात से बात निकलते निकलते वह आंदोलन में भी रूपांतरित होने लगता है। फेसबुक-टिवटर के माध्यम से नपुंकसक क्रांतिकारियों की भी बाढ़-सी आई हुई है, लेकिन कुछ लोग कथनी-करनी के अंतर को दूर करते हुए सामने भी आते हैं। अपने अनुभव से यह बात कह सकता हूँ कि इस नये माध्यम का रचनात्मक इस्तेमाल करके हम सामाजिक परिवर्तन के पहरुए बन सकते हैं। हैदराबाद में जब कुछ छात्रों ने गो मांस भक्षण उत्सव मनाया तो अनेक लोगों ने फेसबुक के माध्यम से इस घटना की निंदा की। मैंने भी अपने तरीके से प्रतिवाद किया। मेरे विचारों को पढ़ कर रायपुर के फैज खान नामक युवक को जोश आ गया। उसने टिप्पणी करते हुए कहा कि अभी मैं निकल रहा हूँ धरने की तैयारी के लिए। फेस बुक के माध्यम से लोगों से अनुरोध किया गया कि वे धरना स्थल पर पहुँचे, और दूसरे दिन ही सैकड़ों लोग धरना स्थल पहँच गये। वहीं लोगों का आपस में आत्मीय परिचय हुआ। हम लोगों के धरने को देखकर दूसरे लोग भी सक्रिय हुए और बाद में एक और धरना दिया गया। यह एक निजी उदाहरण है। लेकिन पूरी दुनिया के सामने लीबिया और सीरिया जैसे उदाहरण सामने हैं कि कैसे पूरा देश उठ खड़ा होता है। आज भी भारत में रामदेव और अन्ना हजारे जैसे आंदोलनकारियों की गतिविधियों पर पूरे देश में जो वातावरण बना, उसके पीछे मीडिया और न्यू मीडिया दोनों को महत्वपूर्ण रोल रहा।

इस न्यू मीडिया के सामने समस्या यही है कि कभी-कभी इसका गलत इस्तेमाल होने लगता है। लोग अपनी कुँठाएँ, वासनाएँ भी इस माध्यम से परोस देते हैं। जिसके पास जो है,वो परोस रहा है। कोई किसी राजनीतिक दल का समर्थक है तो वह दूसरे राजनीतिक दल के शीर्ष लोगों पर कीचड़ उछालने का काम करने लगता है। किसी को कुत्ता बना देगा, किसी को गधा। यह एक तरह का फूहड़ या घिनौना कर्म है। इससे हास्य नहीं उपजना, वीभत्स रस का संचरण होता है। एक नफरत दूसरे नफरत को जन्म देती है। और दो नफरतें मिल कर विकराल रूप धारण कर लेती हैं। यही कारण है कि कई बार मानवीय कटुताएँ गाली-गलौज तक पहुँच जाती हैं। फेस बुक के माध्यम से हमने यह भयानक रूप देखा है, और देख रहे हैं। मुझे लगता है कि इस नये मीडिया के सामने यह भी एक बड़ी चुनौती है कि इन अराजकताओं से कैसे निबटें। मुझे लगता है कि सबसे कारगर होगा आत्म-नियंत्रण और ऐसे संस्कार विकसित करना जो नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में सहायक बनें। मैं जानता हूँ कि इस विश्व में अब नैतिकता की बीत करना अपना उपहास उड़ाने जैसा भी है। क्योंकि जब चारों और अनैतिक लोगों का ही वर्चस्व हो, तब नैतिकता पर चर्चा बेमानी-सी हो जाती है। फिर भी कुछ लोगों को वैचारिक अंधेरों के विरुद्ध दीप जलाए रखना चाहिए। यही एक आचार संहिता है जो न्यू मीडिया को बचाएगी। वरना सरकारी आचार संहिता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम घोट कर रखे देगी। अपने देश में हम यह महसूस करते रहे हैं कि सरकारें मीडिया को आदर्श संहिता का पाठ पढ़ाने की कोशिशें करती हैं तब उनका छिपा एजेंडा एक तरह से यही होता है कि सरकार के खिलाफ खुल कर कभी न लिखा जाए। इसलिए हम सबका यह कर्तव्य है कि हम इंटरनेट का या फेसबुक जैसे माध्यम को सरकारी अंकुश से मुक्त रखने के लिए माहौल बनाए रखें। हालांकि यह संभव नहीं हो पा रहा है। सरकार के अनेक दलाल किस्म के लोग फेसबुक जैसे माध्यम को गौर से देखते हैं कि कौन क्या लिख रहा है। टिप्पणियों तक को भी ध्यान से देखते हैं। किसी ने भी कोई व्यवस्था विरोधी बात कही है, तो वे क्रोध में भर कर हिंसा के मूड में आ जाते हैं और लिखने वाले के दमन पर उतारू हो जाते हैं। फेस बुक की टिप्पणणियों को संज्ञान में ले कर कितने ही लोगों को गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमें ठोंक दिए गये। अँगेरज़ो के समय के कानून आज भी जिंदा हैं। उनके सहारे हर वो सरकार अभिव्यक्ति का दमन करती है, जो दावे करती है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। जो दल सत्ता में आता है वो अभिव्यक्ति का गला घोंटता है, जो विपक्ष में रहता है, वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिमायती बना रहता है । मैं पत्रकारिता , साहित्य और समाज में बेहद सक्रिय रहता हूँ इसलिए ऐसे चरित्रो ंको देख रहा हूँ। इसलिए मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाले पुराने कानून खत्म किए जाएँ और एक सर्वमान्य आचार संहिता बनाई जाए।
कैसी हो वेब की आचार संहिता
सवाल यह पूछा जा रहा है कि कैसी हो वेब की आचार संहिता, या कानून, तो मैं कुछ सुझाव देना चाहता हूँ। मेरी नजर में सप्त-पदी आचार संहिता इस प्रकार हो सकती है-
(1) केंद्र या राज्य सरकारों की गलत नीतियों के विरुद्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रहे। भारत देश जहाँ लोकतंत्र है, वहाँ हर हाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा का बचाया जाए।
(2) अभिव्यक्ति की भाषा शालीन हो और अश्लील चित्रों का सहारा न लिया जाए। चित्र, कार्टून भी शालीनता की परिधि में हों। किसी को कुत्ता, गधा, सुअर वगैरह न बनाया जाए।
(3) किसी भी किस्म के अश्लील वीडियो को सार्वजनिक न किया जाए।
(4) जाति, धर्म विशेष को ले कर किसी तरह की छींटाकशी न की जाए। स्त्री जाति का सम्मान हो। उसके अश्लील चित्रों को प्रचारित करने वाले दंडित किए जाएँ।
(5) जाति-धर्म विषयक संगठन वेब के माध्यम से कटुता न फैलाएँ। जो लोग किसी भी धर्म या जाति की निंदा करते हैं, उन पर कार्रवाई की जाएँ। हाँ, पुरानी कुरीतियों पर बहस की छूट हो और प्रगतिशील सुझावों का स्वागत किया जाए।
(6) सरकारी नियमों की बजाय न्यू मीडिया को ले कर प्रेस परिषद जैसी गैर सरकारी संस्था बने, जिसे सरकार मान्य करे। जिसे इस न्यू मीडिया परिषद नाम दिया जा सकता है। इस परिषद् में वरिष्ठ पत्रकार, लेख, विभिन्न धर्मों के पढ़े-लिखे, समझदार के मुखिया, समाज के सक्रिय कार्यकर्ता, सेवानिवृत्त जज वगैरह प्रतिनिधि के रूप में शरीक हों।
(7) किसी व्यक्ति विशेष की मानहानि होने पर वह कानूनी तौर पर मुकदमा करने के लिए स्वतंत्र होगा।
अब समय आ गया है कि न्यू मीडिया और अधिक व्यापक हो। गाँव-गाँव तक इंटरनेट पहुँचता जा रहा है। उसके साथ ही वहाँ की युवा पीढ़ी को या इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति को इस माध्यम की ताकत के बारे में बताया जाए। कार्यशालाएँ लगा कर न्यू मीडिया की ताकत से परिचित कराया जाए। इंटरनेट को केवल अश्लील क्रियाकलापों को देखने वाला बाइस्कोप में तब्दील न करके इसे वैस्विक जागरण का सशक्त माध्यम बना कर उबारा जाए। इस दिशा में काम हो रहा है। साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े लोग यह काम बखूबी कर रहे हैं। उनका दायित्व है कि वे दलगत सोच से ऊपर उठ कर देश और समाज के नव निर्माण के लिए इस न्यू मीडिया को हथियार बनाएँ। न्यू मीडिया को राजनीति से ऊपर उठकर खड़ा होना होगा, तभी व्यापक नजरिया भी विकसित हो सकेगा। समकालीन अभिव्यक्ति की इस मुख्यधारा को पतित होने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि सरकारी अंकुश से इस बचाया जाए और आत्म नियंत्रण की मानसिकता विकसित की जाए। सत्ता में बैठे अधिकतर लोग मनुष्यता से दूर हो जाते हैं। यह न्यू मीडिया अगर स्वतंत्र रहेगा तो हर वो व्यक्ति इंसान बना रहेगा, जो भूल से भी दानव बनने की कोशिश करेगा। क्योंकि जब किसी सरकार, प्रशासन या व्यक्ति विशेष की गलत नीतियों की सार्वजनिक निंदा होगी, तब वह सुधरने की कोशिश करेगा । लोकनिंदा के भयवश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन नहीं कर सकेगा।

कुल मिला कर कहा जाए तो न्यू मीडिया एक संभावना है। इसमें हानि कम, लाभ ही अधिक हैं। अब किसी सूचना के लिए दूसरे दिन की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। पल भर में विचार और सूचनाएँ विश्वव्यापी हो जाती हैं। ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर के रूप में हर व्यक्ति का अपना समाचार पत्र है। और क्या चाहिए। पहले मैं कुछ लिखता था तो पता ही नहीं चलता था कि उसकी प्रतिक्रिया कैसी है, अब न्यू मीडिया के माध्यम से पल भर में देश ही नहीं विदेश से भी प्रतिक्रिया मिल जाती है। इस न्यू माडिया ने भारतीय संस्कृति के शाश्वत चिंतन वसुधैव कुटुम्बकम को साकार कर दिया है। हम वैश्विक बोध से भरते जा रहे हैं।

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सम्पादक

डॉ. लीना