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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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कान पकाऊ होता मीडिया का ' मोदी प्लान ' ...!!

तारकेश कुमार ओझा / जिस माहौल में अपना बचपन बीता वहां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि मोहल्ले में किसी के यहां ब्याह- शादी या तेरहवीं भोज आदि होने पर सप्ताह भर पहले से मेनू व आयोजन से जुड़ी बातों की चर्चा शुरू हो जाती थी, जो आयोजन के एक सप्ताह बाद तक लगातार जारी रहती। भोजन में क्या खास है,  और किस प्रकार की सजावट व गाने - बजाने की व्यवस्था है, इसकी विस्तार से चर्चा होती रहती। चूंकि तब कैटरिंग व्यवसाय का अस्तित्व था नहीं, लिहाजा यह चर्चा जरूर होती कि मेजबान  ने व्यंजन तैयार करने के लिए कहां - कहां से हलवाई बुलाए हैं। आयोजन बीतने के बाद भी बतकही होती रहती कि सब्जी क्यों बेस्वाद हुआ और इतनी खट्टी दही तो इससे पहले कभी नहीं खाई। यही नहीं लड़कियों की शादी के मौके पर इस बात पर भी विस्तार से चर्चा होती कि विदाई के समय परिजनों में कौन- कौन दहाड़े मार कर रोया, और कौन मगरमच्छ के आंसू बहाता रहा।

देश के नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मामले में  कुछ ऐसा ही हाल अपनी मीडिया का भी है। सरकार बनने से पहले अच्छे दिन आने वाले हैं... का खूब राग अलापा । बहुमत से सरकार बनी, तो कौन किस मंत्रालय में जाएगा, इसे लेकर अटकलबाजी। मंत्रीमंडल गठन के बाद श्रेय लेने की होड़ कि हमने पहले ही कहा था कि अमूक को फलां मंत्री बनाया जाएगा। दूसरे अंदाजी गोली चलाते रहे, लेकिन देखिए  हमने बिल्कुल सटीक भविष्यवाणी की थी। इसीलिए हम है नबंर वन। अब सरकार बने एक महीना से अधिक समय हो गया है, तो फिर वहीं अटकलबाजी। मोदी का प्लान शीर्षक से तरह - तरह की खबरें चलाई जा रही है। सूखा पड़ा तो मोदी ये करेंगे, और जम कर बारिश हुई तो ये करेंगे। मीडिया का यह मोदी प्लान केवल मानसून या सूखा तक ही सीमित नहीं है। देश - विदेश से जुड़े तमाम मसलों पर हमेशा कोई न कोई चैनल अपना पिटारा खोल कर बैठ जाता है कि मोदी ने इस समस्या से निपटने के लिए फलां - फलां प्लान तैयार किया है। इन दावों के पीछे आधार चाहे जो हो, लेकिन सच्चाई यही है कि मीडिया का यह मोदी प्लान अब काफी हद तक कान पकाऊ हो चला है। चैनल सर्च करते समय किसी न किसी चैनल पर ऐसे दावे नजर आ ही जाते हैं। जिससे उबकाई सी होने लगी है।

मोदी के प्लान के बाबत चैनल वाले अपना दिमाग लगाना बंद कर दे, तो बेहतर होगा। मोदी जब खुद हनीमून पीरियड की बात कर रहे हैं, तो उनके कार्य के आकलन के बाबत थोड़ा और समय देना उचित होगा। साथ ही सही - गलत का फैसला दर्शक या कहें तो जनता के विवेक पर छोड़ना ही सही है। इसे लेकर अमूमन हर रोज बकलोली का कोई औचित्य नहीं है। 

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना