जिस तरह एक शानदार अखबार को सत्ता दल के चुनावी हथियार में बदल दिया गया है, वह भी निश्चय ही शर्मनाक है
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास / पहले से यानी शारदा समूह के भंडाफोड़ और सुदीप्त सेन की फरारी से पहले शारदा समूह के अखबारों के मालिकाना का हस्तांतरण शुरु हो चुका था। सुदीप्त ने पुलिस जिरह में माना भी है कि मीडिया में निवेश उन्होंने पिस्तौल की नोंक पर तृणमूल सांसदों के दबाव में आकर किया, जिसके कारण निवेशकों का पैसा लौटाना असंभव हो गया और पोंजी चक्र फेल हो गया। उन्होंने जिरह में यह भी माना कि वे अपने अखबारों और टीवी चैनलों को बेचकर इस संकट से उबरना चाहते थे, पर चूंकि तृणमूल नेता खुद ही इस माध्यम पर कब्जा जमाने के फिराक में थे और न्यायोचित मुआवजा देने को तैयार नहीं थे, इसलिए वे ऐसा नहीं कर सके। जबकि हकीकत तो यह है कि जिस तृणमूल सांसद व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल राय से पांच अप्रैल को मिलने के बाद छह अप्रैल को सीबीआई को चिट्ठी लिखकर 10 अप्रैल को सुदीप्त सेन कोलकाता से फरार हो गये, उन्ही पूर्व रेलमंत्री मुकुल राय के सुपुत्र सुभ्रांशु राय पहले से शारदा मीडिया समूह पर कब्जा जमा चुके थे। तृणमूली कब्जे के असर में ही शारदा समूह के ही चैनल तारा न्यूज ने सुदीप्त और शारदा समूह के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, जिसके आधार पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुदीप्त की गिरफ्तारी के आदेश दिये। फिर यह किस्सा तो आम है ही कि खासमखास देवयानी के साथ काठमांडू के सुरक्षित ठिकाने में छुपे सुदीप्त अचानक फिर भारत में प्रकट हुए और कश्मीर में धर लिये गये। फिर विभिन्न शारदा अखबारों और चैनलों के कर्मचारी संगटनों की ओर से सुदीप्त के खिलाफ प्रदर्शन एफआई आर का सिलसिला शुररु हो गया। इनमें से कोई भी कर्मचारी युनियन विपक्षी माकपा या कांग्रेस या किसी दूसरी पार्टी से संबद्ध नहीं है।
सांसद कुणाल घोष को मीडिया प्रमुख बनाकर और फिर इसी टीम में शुभोप्रसन्न और अर्पिता घोष को शामिल करके तृणमूल कांग्रेस का जो मीडिया साम्राज्य तैयार हुआ, उसकी शुरुआत रतिकांत बोस के तारा समूह के शारदा समूह को हस्तांतरण से शुरु हुआ था। इसी खिदमत की वजह से ही कुणाल को सांसद पद नवाजा गया। अब सुदीप्त की गिरप्तारी से खेल बिगड़ता नजर आया तो पार्टी के मीडिया साम्राज्य का बचाव करने के लिए मुख्यमंत्री के पास मुकुल राय और कुणाल घोष का बचाव करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रहा।
इस बीच तारा समूह का कामकाज सामान्य ही रहा। अब चैनल 10 भी अपने जलवे के साथ प्रसारित हो रहा है और तृणमूल के ही प्रचारयुद्द का हथियार बना हुआ है। उसे न विज्ञापनों का टोटा पड़ा और न रोज के खर्च चलाने में दिक्कत हो रही है। जबकि अविराम इस चैनल के परदे पर यह सफाई आ रही है कि चैलन का शारदा समूह से कोई नाता नहीं है। चैनल कर्मचारी संगठन द्वारा प्रबंधित व संचालित है। अगर यह सच है तो बंगाल और बाकी देश में तमाम बंद पड़े अखबारों और टीवी चैनलों के कर्मचारियों को अब मैदान में आ जाना चाहिये क्योंकि वे भी तो संस्था चलाने में समर्थ हो सकते हैं। हकीकत है कि सत्तादल के समर्थन के बिना यह चमत्त्कार असंभव है और ऐसा चमत्कार अन्यत्र होने का कोई नजीर ही नहीं है। ऐसा तख्ता पलट श्रम विभाग का समर्थन हासिल करें, यह भी कोई जरुरी नहीं है।
दुनिया को मालूम है कि परिवर्तन के पीछे बंगाल के मजबूत मुस्लिम वोट बैंक का कितना प्रबल हाथ है। यह भी सबको मालूम होना चाहिए कि सच्चर कमिटी की रपट आने से पहले किस कदर यह वोट बैंक वाममोर्चा शासन की निरंतरता बनाये रखने में कामयाब रहा। बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या २७ प्रतिशत बतायी जाती है, जो एक राय से वोट डालते हैं।कही कहीं यह संख्या ५० से लेकर ८० फीसद तक है।राज्य के ज्यादातर सीटों में निर्मायक हैं मुस्लिम वोट बैक। अभी हावड़ में जो उपचुनाव है , वहां भी ३० फीसद एकमुश्त मुस्लिम वोट ही निर्णायक होंगे।दीदी की सारी राजनीति इसी मुसलिम वोट बैंक को अपने पाले में बनाये रखने के लिए है। केंद्र का तखता पलट देने का ऐलान करने के बावजूद वे विपक्षी राजग के साथ कड़ा दिखना नहीं चाहती और विकल्प बतौर असंभव क्षेत्रीय दलों के मोर्चे की बात कर रही हैं।
अब शारदा समूह के अखबारों में बांग्ला,अंग्रेजी और हिंदी के अखबार भी हैं। इसके अलावा राज्य में इन भाषाओं के पहले से बंद अखबारों की संख्या भी कम नहीं है। पर इन अखबारों को पुनर्जीवित करने से दीदी का कोई मकसद पूरा नहीं होता। चूंकि उर्दू अखबार अल्पसंख्यकों को संबोधित करता है, इसलिए शारदा के अवसान के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सीधे शारदा समूह के दोनों उर्दू अखबारों कलम और आजाद हिंद को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया है और उन पर कब्जा भी कर लिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आजाद हिंद देश के सबसे पुराने उर्दू अखबारों में हैं और उसका गौरवशाली इतिहास है, उसके फिर चालू हो जाने का जरुर स्वागत किया जाना चाहिये। लेकिन जिस तरह एक शानदार अखबार को सत्ता दल के चुनावी हथियार में बदल दिया गया है, वह भी निश्चय ही शर्मनाक है।