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‘दीन की बेटियां’-यानी, मातादीन की बेटियां

‘हंस’ के  वार्षिक कार्यक्रम पर एक नजर !
कैलाश दहिया / हर साल की तरह इस 31 जुलाई, 2012 को भी ‘हंस’ का वार्षिक कार्यक्रम मनाया गया। इस बार इसमें संगोष्ठी का विषय था ‘दीन की बेटियां’। विषय को जान-समझ कर इसे सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आए थे। मंच-संचालक और वक्ताओं के नाम देख कर अंदाजा हो गया था कि विषय का शीर्षक गलत है। कार्यक्रम आयोजक राजेन्द्र यादव जी को छोड़ कर सभी वक्ता मुस्लिम थे। इस से श्रोताओं में बेचैनी देखी जा सकती थी। यादव जी जैसे सुलझे हुए संपादक से यह उम्मीद नहीं थी कि वे उलझा हुआ विषय रख कर श्रोताओं को आमंत्रित करेंगे। जल्द ही इस बात से पर्दा उठ गया कि यह उलझाव क्यों है। राजेन्द्र जी ने बताया कि इस बार के कार्यक्रम की परिकल्पना पूरी तरह शीबा असलम फहमी के कंधों पर रखी गई थी। तब बात ‘दीन की बेटियों’ से हट कर ‘इस्लाम की बेटियों’ पर ही होनी थी।

शीबा असलम फहमी ने मंच का संचालन करते हुए कहा कि साहित्य और थ्योरी (सिद्धांत) का मतभेद है? हिन्दुस्तान की मुसलमान औरत के वजूद की रहनुमाई नहीं हुई? इनका कोई दखल नहीं है? भारत की मुसलमान औरतें पहचान को ले कर जूझ रही हैं। मुस्लिम औरतों का योगदान जीरो है? शीबा जी ने बताया कि मलेशिया, चीन, इंडोनेशिया की मुस्लिम औरतें बुर्का नहीं पहनतीं और पाकिस्तान, टर्की, मलेशिया में ‘फैमिली लॉं' हम से कहीं बेहतर है। घूम-फिर कर उनकी बात इस बात पर ठहर गई कि मुसलमानों की सारी बहस पितृसत्ता पर आकर खत्म हो जाती है।

वक्ताओं में से पाकिस्तान से आई जाहिदा हिना जी ने मुंशी प्रेमचंद को याद करते हुए उन्हें औरत के हक की लड़ाई लड़ने वाला बताया। उन्होंने कहा कि मुंशी जी आज जीवित होते तो मुसलमान औरत के लिए लिखते। उन्होंने अपने समय में गरीब-गुरबों और अछूतों के लिए लिखा। अब जाहिदा जी को क्या बताया जाए, काश इन्होंने महान आजीवक (दलित) चिन्तक डा. धर्मवीर की मुंशी जी पर लिखी आलोचनात्मक किताबें ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ पढ़ ली होतीं! तब, शायद ये कभी भी मुंशी जी का नाम नहीं लेतीं। कम से कम ये उन्हें स्त्री-समर्थक तो कह ही नहीं सकती थीं। जो व्यक्ति जारकर्म में जी रहा हो और उसी तरह का साहित्य लिखता हो, वह स्त्री समर्थक कैसे हो सकता है?

जाहिदा जी ने कहा कि इस्लाम के उदय से पहले मुस्लिमों(?) में भी मातृसत्ता थी। स्त्री एक से ज्यादा पुरुष के साथ सो सकती थी। इस्लाम ने इसे खत्म कर दिया। मालूम नहीं, वे क्या कहना चाहती थीं? इस्लाम के इस महान क्रांतिकारी कदम ने मानव इतिहास को मोरेलिटी की तरफ बढ़ने में खासी मदद की है। जाहिदा जी को बताया जाए कि भारत के हिन्दुओं में भी कुछ जारकर्म समर्थक स्त्रियां हैं जो इसी तरह की मातृसत्ता चाहती हैं। ‘हंस’ ने जिनकी स्मृति में यह कार्यक्रम कराया वे भी जारकर्म की समर्थक थीं। रमणिका गुप्ता भी जारकर्म का पुरजोर समर्थन करती हैं, और मैत्रोयी पुष्पा, विमल थोराट, अनिता भारती भी ऐसी ही बातें कहती हैं। रमणिका गुप्ता तो लिखती हैं ‘मुझे याद नहीं है अपने प्रेम करने वालों की संख्या। वह सब अपने में एक-एक अनुभव थे मेरे।’ ये मातृसत्ता की समर्थक स्त्रियां प्रखर चिन्तक डा. धर्मवीर की इस बात पर चुप्पी साध जाती हैं कि मातृसत्ता में परिवार का स्वरूप कैसा होगा? क्या अबाध सैक्स के लिए मातृसत्ता चाहिए? मातृसत्ता ऐतिहासिक विकास का एक चरण है। महापुरुषों ने इसे समाप्त क्यों किया और इसके लिए कितने संघर्ष और बलिदान दिए, यह विचारणीय है। हाँ, इस बात पर काम करना ही चाहिए कि परिवार के विकास में स्त्री को घर और घर के बाहर हर तरह की स्वतंत्रता मिले। बस, वे जारकर्म से दूर रहें, और यह बात पुरुष पर भी लागू होती है। केवल और केवल इस दिशा में ही काम किया जाना है। इसी से स्त्री-स्वतंत्रता का रास्ता निकलना है। जाहिदा जी को बताया जाए मातृसत्ता की बात पर जारों और निठल्लों की बांछें खिल जाती हैं। स्त्रियां सावधान रहें।

वरिष्ठ पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखिका नाहिदा किश्वर जी ने भारत की खाप पंचायतों की तर्ज पर वहां स्थित ‘जिरगा पंचायतों’ की आलोचना की। नाहिदा जी ने घरों के अंदर के तंत्र में इंसाफ की बात की तरफ सवाल उठाया। नाहिदा जी को सूचित किया जा रहा है कि इस विषय पर वे डा. धर्मवीर की वृहदाकार घर कथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ पढ़ लें। इससे उन्हें अपना आंदोलन चलाने में शत-प्रतिशत मदद मिलेगी। नाहिदा जी की इस बात से भला कौन असहमत हो सकता है कि ‘बात दबनी नहीं चाहिए’। हमारे यहां तो बात को दबाने का ही चलन है। द्विज साहित्यकार जारकर्म को दबाए रखने की ही बात करते हैं। बकौल नाहिदा जी पाकिस्तानी महिलाओं ने तो सैक्सुएल हराशमेंट के खिलाफ कानून बनवा लिया है, जबकि द्विज आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी यौन अपराधी (बलात्कारी और जारकर्मी) को माफी दिए जाने के पक्ष में हैं। सच में, पाकिस्तान इन मामलों में हम से बहुत आगे है। शीबा असलम फहमी ने भी इस बात को माना। हमारे यहां से सामाजिक कार्यकर्ता सहबा फारूकी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि मुसलमान और दलित दोनों पिछड़े हैं, इनकी औरतें भी पिछड़ी हैं। ऐसे वक्तव्य इनके ही नहीं अकसर बहुतों के मुंह से भी सुनाई पड़ते हैं। सर्वप्रथम तो बताया जाए, मुस्लिम एक धर्म में खड़े लोग हैं, जबकि दलित पिछले ढाई-तीन हजार सालों से धर्महीन स्थिति में हैं। इसीलिए दलितों की स्त्रियों पर ही भारत में बलात्कार होते हैं। फारूकी जी भी इस बात को अच्छे से जानती हैं।

स्त्री के पक्ष में शहबा जी ने कहा, कोई औरत सड़क पर तमाशा नहीं बनना चाहती। बिल्कुल सही, लेकिन वे यह भी बता देतीं कि यह तमाशा क्यों बनता है? दलितों के सबसे बड़े चिन्तक का तमाशा सड़क पर उनकी स्त्री ने ही बनाया है। और तमाशे की जो वजह है वह किसी से छुपी नहीं है। केवल और केवल जारकर्म की वजह से ही तमाशा सड़क पर आता है।

रमणिका गुप्ता ने मुस्लिम स्त्रिायों के लिए कहा, ‘‘दीन को मानते हुए कैद में हैं दीन की बेटियां।’’यानी, एक धर्म-व्यवस्था में रहती मुस्लिम स्त्रियां कैद में हैं? ये सब स्त्रियों को अपने जैसा होने की सीख दे रहीं हैं जिन्हें याद भी नहीं कि ये कितने पुरुषों के साथ हमबिस्तर हुई हैं। इस कार्यक्रम में जिन्हें दीन की बेटियां कहा जा रहा है वे इनकी सीख से दूर रहें तो उनके लिए ही अच्छा होगा। रमणिका जी ने अपनी बात को ऐसे पूरा किया, जो हाशिए उलांघ चुकी हैं, उन की बात नहीं की जा रही। दलितों ने जब इन्हें घुसपैठ नहीं करने दी, तब ये चली हैं मुसलमानों की हितचिन्तक बनने। खुदा बचाए ऐसे हितचिन्तकों से।

अब जरा थोड़ी बात विषय पर ले कर की जाए। विषय जैसा सभी जानते हैं ‘दीन की बेटियां’ था। इसे ले कर सभागार में भ्रम की स्थिति बनी हुई थी। चूंकि सभी वक्ता और मंच संचालक मुसलमान थे, इसलिए ऐसा मान लिया गया ‘मुसलमान की बेटियां’ ही होगा। ‘दीन’ शब्द के अर्थ को ले कर ही उपस्थित लोगों में भ्रम बना रहा। किसी ने सभागार से चिल्ला कर कहा दीन का मतलब गरीब होता है। तो क्या ये कार्यक्रम गरीब की बेटियों को ले कर था? लेकिन नाहिदा किश्वर, जाहिदा हिना, शहबा फारूकी, मुशर्रफ आलम जौकी, शमा खान और जुलेखा इनमें कोई भी दीन-हीन पर नहीं बोला। और, मंच-संचालक शीबा असलम फहमी भी निश्चित तौर पर दीन-हीन की बेटी नहीं हैं। अगर दीन की बेटियों पर ही बात करनी थी, तब निश्चित तौर पर रामदीन की बेटियां, गंगादीन की बेटियां, दीनदयाल की बेटियां, मातादीन की बेटियां और सचमुच जो दीन से हीन हैं अर्थात दलित, उन की बेटियों पर ही बात की जा सकती है। इन्हीं से रोज-रोज बलात्कार किया जाता है, आज से नहीं, हजारों वर्षों से। सचमुच ये दीन-हीन हैं। बताइए, इन असली ‘दीन की बेटियों’ पर तो बात नहीं की गई, बस पाकिस्तान में महिला आंदोलन को ले कर पर्चे पढ़े गए। गुस्ताखी माफ!  नाहिदा जी और जाहिदा जी को बताया जाए, भारत में दीन की बेटियां कोई हैं तो दलित की बेटियों ही हैं, जिन पर अत्याचारों से आप की रूह कांप जाएगी। भारत में इन ‘दीन की बेटियां’ पर अत्याचार कौन कर रहा है? और कैसे कर पा रहा है, यह मामला बनता है। इस पर बात करनी है।

दीन का सीधा सा मतलब है धर्म। दीन हीन अर्थात जो धर्म हीन स्थिति में हैं, फिर चाहें कुछ भी कहें।  दीन-दरिद्र, दीन-दुखी, दीन-विमुख, दीन-हीन वगैरह-वगैरह। बादशाह अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ चलाया। इलाही अर्थात ईश्वर यानी ईश्वर का धर्म। इसी लिए वह पीट भी गया, क्योंकि हर धर्म खुद को ईश्वर का धर्म ही घोषित करता है। इनके अपने धर्म के रहते वह कैसे चल सकता था भला?  उधर महान आजीवक कबीर साहेब ने गाया है
सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत।
पुरजा-पुरजा कटि मरै, कबहू न छाड़े खेत।।

(देखें, कबीर के कुछ और आलोचक, डा. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,
21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110 002, संस्करण, 2002, पृ. 91)

कबीर सीधे-सीधे ‘दीन’ के लिए बगैर किसी भय के प्राण देने की बात कहते हैं। दलित इससे बचते फिरते हैं। अन्य धर्मों में लुकते-छिपते हैं। लेकिन वे वहां भी पहचान लिए जाते हैं। वहां भी इनका कोई सम्मान नहीं होता। वे दीन-हीन ही बने रहते हैं। यहां तक कि वे ईश्वर के विरोध में नास्तिक हो कर विक्षिप्त हो जाते हैं। दलितों की यही दीन-हीनता उन की बेटियों पर बलात्कार को नहीं रोक पाती।

इसी दीन-हीनता के चलते ही दलित की बेटियां ही ‘दीन की बेटियां’ हैं। कार्यक्रम में जिन्हें दीन की बेटियां कहा गया, क्या वे सचमुच दीन की बेटियां हैं? यहां दीन का अर्थ मुसलमान-सा लगता दिखाने की कोशिश की गई। तब ईसाई की बेटियां, यहूदी की बेटियां या अन्य धर्मों की बेटियां कहां गईं? इसलिए कार्यक्रम का विषय होना चाहिए था ‘दीन हीन की बेटियां’, तब कहीं सार्थक बात हो पाती।

अगर हम भारतीय उप-महाद्वीप की बात करें, तो इन दीन हीन (दलित) लोगों ने जिस भी दीन को ओढ़ा वहां भी उन के साथ वैसा ही अमानवीय बर्ताव किया गया, जैसा इनके दीन हीन रहते किया जा रहा है। उन ओढ़े गए दीनों में भी उन्हीं की बेटियों के साथ बलात्कार किए जाते हैं। इनके दीनों में, बलात्कार को ले कर ‘दलित दृष्टि’ से अध्ययन में यह बात साफ उभर कर सामने आ जाएगी। इन दीन हीनों ने ‘ब्राह्मण धर्म’ को ओढ़ने की कोशिश की है और हजारों सालों से इस दीन में इन की बेटियों से बलात्कार ही किए जा रहे हैं।

हाँ, शीबा असलम फहमी की इस बात के लिए कार्यक्रम याद रखा जा सकता है कि उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के लिए पर्सनल कानून बनाने जैसी बात कही। यह इस रूप में क्रांतिकारी घोषणा है कि दुनिया में आज तक महिलाओं ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया है। महान चिन्तक डा. धर्मवीर तो पहले ही स्त्रियों से अनुरोध कर चुके हैं कि वे लिख कर बताएं कि घर कैसे चलेंगे। अब शीबा जी अगर यह काम कर रही हैं तो प्रशंसनीय है। निसन्देह, ये जारकर्म के खिलाफ ही लिखेंगी।

ऐवाने गालिब, दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में राजेन्द्र यादव जी के कथन के बगैर बात अधूरी ही रहेगी। दलित और स्त्री-विमर्श पर डा. धर्मवीर के सम्मुख बौने पड़ जाने के बाद इन्होंने अर्थहीन ‘दीन की बेटियां’ जैसा विषय चुना। इसके लिए इन्होंने शीबा असलम फहमी को झंडा उठा कर आगे रखा है। जैसा कि यादव जी ने कहा कि विषय चुनने से ले कर वक्ता चुनने तक का काम शीबा ने किया है। यादव जी को ‘दीन हीन बेटियों’ की याद क्यों नहीं रही? फिर, ‘हंस’ की नई पारी शुरु करने जा रही टीम में एक भी दलित का ना होना खटकता है। यह अकाट्य सत्य है कि दलित की बात दलित ही कह सकता है, तब दलित के नाम पर चल रही ‘हंस’ की दुकान कैसे चलेगी। राजेन्द्र जी ने सिद्ध कर दिया कि ‘हंस’ सचमुच दीन-हीन है। विषय के चयन को ले कर इसीलिए इतनी दीनता दिखाई भी दी। तो, राजेन्द्र जी से अनुरोध है कि भविष्य में विषय-निर्धारित करते समय थोड़ा सा विचार अवश्य करेंगे।(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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कैलाश दहिया

संपर्क
मकान नं. 460, पाकेट-3,
पश्चिमपुरी, नई दिल्ली-63  ।      

kailash.dahiya@yahoo.com

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डॉ. लीना