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दलित साहित्य में द्विजों का आरक्षण नहीं हो सकता

कैलाश दहिया / पिछले वर्ष प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से ‘आरक्षण’ का विरोध करके बुरी तरह मात खा चुके नामवर सिंह ने अब जब मुंह खोला है तो ‘साहित्य में आरक्षण’ का बे-सुरा राग अलापा है. (देखें, जनसत्ता, 26 अक्टूबर) अब इन्हीं से पूछा जाए कि कौन इनसे साहित्य में आरक्षण मांग रहा है. उल्टे, यही जिद कर रहे हैं, दलित साहित्य में आरक्षण की. यह कैसे संभव है? दूसरा, सदियों से द्विज ही तो साहित्य में आरक्षण लिए बैठे हैं, जिस में पिछली सदी में इन्होंने कायस्थों को भी शामिल कर लिया है. साहित्य में इनके इसी आरक्षण के चलते शूद्र के बोलने तक पर उसकी जिहवा काटने का आदेश रहा ही है. नामवर ही बताएं, शंबूक का गला क्यों काटा गया. शंबूक की हत्या करने वाले इनके ही तो भाई-बन्धु हैं. तब, क्या दलित अपने दुख-दर्द लिखेंगे नहीं? नामवर किस आरक्षण की बात कर रहे हैं? अगर वे भी दलित साहित्य लिखने की सोच रहे हैं तब इन्हीं से पूछा जाए, अब से पहले इन्होंने और बाकी के द्विजों ने दलितों पर ढाए अमानवीय अत्याचारों पर कलम क्यों नहीं चलाई?

बताया जाए, दलितों को इन्होंने कभी बोलने ही नहीं दिया. आज जब दलितों ने अपने दुख-दर्द और अमानवीय द्विज-व्यवस्था की पोल खोलनी शुरू की है तो नामवर जैसों के पांवों के नीचे से जमीन निकल गई है. इन्हें दलितों का लिखना-बोलना सहन नहीं हो पा रहा. इसी के चलते इन्होंने ‘साहित्य में आरक्षण’ जैसी बेतुकी बात कही है. नामवर जी ही बताएं, किस दलित ने द्विज साहित्य लिखने की जिद की है या किस दलित लेखक को ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ दिया गया है, जबकि दलित आत्मकथाओं, कविताओं, आलोचना ने हिन्दी साहित्य को भरपूर समृद्ध कर दिया है? साहित्य की किस पीठ का दलित को अध्यक्ष बनाया गया है? हालात ऐसे बना रखे हैं कि शिक्षा-संस्थानों में सरकार की तरफ से दिए आरक्षण पर ही नामवर जैसों ने अड़ंगे अटका रखे हैं. शिक्षा-संस्थानों में आरक्षण का सबसे बुरा हाल है और हिन्दी विभागों में तो इसे लागू करना दूर की कौड़ी है. जाना जाए, साहित्य में आरक्षण नहीं है, तभी तो कोई भी द्विज ‘दलित साहित्य’ नहीं लिख सकता. दलित साहित्य में द्विजों का आरक्षण नहीं हो सकता, नामवर निश्चिंत रहें. वैसे भी जब कोई द्विज लिखता है तो उसे जारकर्म के छीछड़े ही दिखाई पड़ते हैं. जारकर्म से भरे द्विज साहित्य से दलितों को कोई मतलब नहीं. दलित-साहित्य मोरलिटी पर खड़ा है. रैदास-कबीर के बाद इसके ध्वजवाहक धर्मवीर हैं, जिनकी घर कथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से डरे नामवर उल्टे-सीधे वक्तव्य दे रहे हैं.

जहाँ तक साहित्य अकादमी द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों की बात है, तो इन्हें नामवरों ने द्विजों के लिए ही तो आरक्षित कर रखा है. इनमें हमें हमारा हिस्सा चाहिए ही. चूंकि अकादमी के पुरस्कारों में लेखकों को नकद राशि दी जाती है, इसलिए ‘स्पेशल कम्पोनेंट प्लान’ के तहत इसमें सीधे-सीधे पन्द्रह प्रतिशत दलित का हिस्सा ठहरता है और यह हमारा अधिकार है, जो नामवरों द्वारा दबाया जा रहा है. अगर अकादमी के पुरस्कार बगैर धनराशि के दिए जाएं तो हमें कोई एतराज नहीं कि किस को दिए जा रहे हैं. फिर, चाहें वे सीधे जार को ही क्यूं न दे दिए जाएं. चूंकि, इनमें देश का पैसा जुड़ा है, इसलिए दलित साधिकार अपनी जनसंख्या के अनुपात में पाने के हकदार हैं. जाना जाए, डा. धर्मवीर की प्रेम कविता की किताब ‘कम्पिला’ का नाम लेते समय नामवर जी की जुबान ही लड़खड़ा जाती है. जहां तक आलोचना की बात है, तो ‘कबीर के आलोचक’ के समक्ष किसी द्विज की कोई भी किताब कहीं नहीं टिकती. उधर, आत्मकथा की बात है, यह विधा तो दलितों की ही देन है. अपने-अपने पिंजरे, जूठन, तिरस्कृत और संतप्त, छांग्या रुक्ख, मेरा बचपन मेरे कंधों पर इन आत्मकथाओं के समक्ष सारा द्विज साहित्य भरभरा कर ढह गया है. हमारी ये आत्मकथाएं देश-विदेश में अनेकों भाषाओं में आ चुकी हैं, और आ रही हैं, जबकि यहां की साहित्यिक संस्थाओं ने इनकी तरफ से आँखें मूंद रखी हैं. इन संस्थाओं के कर्त्ता-धर्त्ता नामवर जैसे लोग ही हैं, जो दलित साहित्य की राह में रोड़े अटकाने में लगे हैं. मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, बलबीर माधोपुरी और श्यौराज सिंह बेचैन को क्या साहित्य अकादमी सम्मान अब तक नहीं मिल जाना चाहिए था? क्या ये आत्मकथाएं किसी साहित्यिक आरक्षण के तहत लिखी गई हैं? नामवर जी ने क्यों नहीं ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ जैसी घरकथा लिखी? वे किस आरक्षण का इंतजार कर रहे हैं?

यूं तो, नामवर जी ने कोई अनोखी बात नहीं कही, अक्सर इस तरह की भाषा द्विजों द्वारा बार-बार बोली जा रही है, यथा सेना में आरक्षण नहीं होगा, न्यायपलिका में आरक्षण नहीं होगा, खेलों में आरक्षण नहीं होगा वगैरह-वगैरह. बताया जाए, इस द्विज आरक्षित सेना ने पिछले 2500 सालों तक देश को इन्होंने गुलाम बनवाए रखा है. ओलम्पिक के आयोजनों में खेलों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं. नामवर ही बताएं, साहित्य में आरक्षण लिए बैठे कितने द्विज हिन्दी साहित्यकारों ने नोबल पुरस्कार जीता है? वैसे तो, नामवर जी की किस बात पर कितना भरोसा किया जाए, बताना मुश्किल है. कभी कहते हैं ‘लोकार्पण कार्यक्रम नहीं होने चाहिए’, और तो और, सवा तीन साल पहले ‘हंस’ के वार्षिक कार्यक्रम में एक लेखक महोदय को लौंडा कह कर उनकी भर्त्सना करने के बाद उन्हीं लौंडे के कहानी संग्रह का लोकार्पण भी करते हैं. तो, यह है नामवर सिंह की विश्वसनीयता!

जहां तक, आरक्षण की बात है, यह अंग्रेजी शासन की देन है, न कि किन्हीं द्विजों की. द्विजों की चलते तो शंबूकों के गले ही काटे गए हैं. इनकी द्विज परम्परा के चाकर आज दलित स्त्रिायों पर कहर ढा रहे हैं. नामवर क्यों नहीं इनके विरोध में लिखते? सामंत के मुंशी जैसी गल्पें (गप्पें) ये भले ही लिख लें, लेकिन दलित स्त्री से बलात्कार पर इनकी कलम की स्याही सूख जाती है. वैसे भी ये इस पर क्यों लिखेंगे भला, अपने गुरुदेव की मान कर ये भी यौन-अपराधी (बलात्कारी, जारकर्मी) को ‘क्षम्य’ करने को तत्पर हैं ही.

दरअसल, साहित्य में आरक्षण की बात कह कर नामवर सिंह पूरी आरक्षण-व्यवस्था का विरोध करते नजर आते हैं. इन्हें गिनती भर दलितों का नए कपड़े पहनना या घोड़ी पर बैठ कर बारात निकालना सुहा नहीं रहा. इसलिए बार-बार ये ‘आरक्षण’ पर पिल पड़ते हैं. साहित्य में अप्रासंगिक होने के बाद ये पूरी तरह ‘दलित विरोध’ पर उतर आए हैं. इन्हें कम से कम राजेन्द्र यादव जी से सीख लेनी चाहिए, जिन्होंने इसी कार्यक्रम में कहा, ‘जब महिलाएं और दलित बोलते हैं तो उनका कहा हमारे गले नहीं उतरता. हम उनकी रचनाओं पर फैसला सुनाने लगते हैं. ...फैसले अक्सर इतिहास-विरुद्ध भी होते हैं.’ वैसे राजेन्द्र जी ने तो मित्रा-धर्म का पालन करते हुए नामवर जी को साफ शब्दों में समझा ही दिया है. देखना यह है कि नामवर जी को उनकी यह बात कितनी समझ में आती है.

इन्हें बताया जाए, दलित साहित्य वह साहित्य है, जिसे द्विजों ने हजारों सालों से दबा और प्रक्षिप्त कर रखा था. इस साहित्य के आने से आधारहीन द्विज साहित्य विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है. इस से यह सिद्ध होता है कि दलित की बात दलित ही कह सकता है कोई द्विज नहीं. दरअसल, ‘साहित्य में आरक्षण नहीं’ का जुमला उछाल कर नामवर द्विजों के लिए दलित साहित्य में आरक्षण मांग रहे हैं, जिसे डा. धर्मवीर सख्ती से ठुकरा चुके हैं. फिर, दलित ने कब कहा है कि वह ‘रामचरितमानस’ लिख सकता है? दलित द्विजों जैसा साहित्य नहीं लिख सकते और ना ही द्विज दलित साहित्य पर कलम चला सकते हैं. दलित साहित्य रचने के लिए जैसी मोरलिटी चाहिए वह द्विज कहाँ से लाएंगे? पूरा द्विज साहित्य द्विजों के लिए आरक्षित किया जा रहा है, नामवर जी निश्चिंत रहें.

कोलकाता से प्रकाशित प्रभात वार्ता से साभारसंपर्क:- 9868214938

 

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डॉ. लीना