राजेश कुमार के नाटक ‘ट्रायल ऑफ एरर्स’ का उन्हीं के निर्देशन में 7 व 8 सितंबर को लखनऊ में प्रदर्शन है। प्रस्तुत है नाटक की रचना व परिकल्पना के संबंध में कौशल किशोर की नाटककार राजेश कुमार से बातचीत
राजेश कुमार राजनीतिक व विचार प्रधान नाटकों के लिए जाने जाते हैं। अपने रंगकर्म की शुरुआत अस्सी के दशक में नुक्कड़ नाटक आंदोलन से की तथा ‘दिशा नाट्य मंच’ के संस्थापक रहे। ‘रंगा सियार’, ‘जनतंत्र के मुर्गे’ आदि इनके चर्चित नुक्कड़ नाटक रहे हैं। नुक्कड़ नाटक के रंगशास्त्र को लेकर ‘नाटक से नुक्कड़ नाटक’ तथा ‘मोरचा लगाता नाटक’ जैसी पुस्तकों का संपादन भी किया।
ऐसे दौर में जब हिन्दी नाट्य लेखन में गतिरोध था तथा कहा जा रहा था कि इतिहास व विचारधारा का अन्त हो गया है, राजेश कुमार ने रंगमंच की दुनिया में अपने नाटकों व रंगकर्म के माध्यम से सार्थक हस्तक्षेप किया। उन्होंने ऐसे नाटकों की रचना की जिनकी विषय वस्तु यथार्थवादी तथा मुख्य स्वर प्रतिरोध का रहा। ‘गांधी ने कहा’, ‘सत्त भाषै रैदास’, ‘अम्बेडकर और गांधी’, ‘द लास्ट सैल्यूट’, ‘सुखिया मर गया भूख से’ आदि विषय की विविधता व नवीनता के लिए उनके खासे चर्चित नाटक रहे हैं।
राजेश कुमार ने रंगमंच की दुनिया में नये प्रयोग भी किये। ऐसा ही प्रयोग गांधीजी की कृति ‘हिन्द स्वराज’ की नाट्य प्रस्तुति रही है। राजेश कुमार का मानना है कि विचारों के अन्दर भी नाटकीय तत्व मौजूद रहते हैं। विचार में भी गति व आवेग होता है। वह किसी कथानक से ज्यादा सुनने वालों को रोमांचित कर सकता है।
‘ट्रायल ऑफ एरर्स’ राजेश कुमार का नया नाटक है। लखनऊ में इसका प्रदर्शन थियेट्रान के कलाकार मनोज शर्मा व राजेश कुमार के निर्देशन में 7 व 8 सितंबर को संत गाडगे प्रेक्षागृह, संगीत नाटक अकादमी में करेंगे। अलग दुनिया की ओर से आयोजित इस नाटक की कथा वस्तु रंगमंच के लिए बिल्कुल नई है। इस विषय पर कहानी व कविता तो लिखी गई है लेकिन आधुनिक रंगमंच में ऐसे विषय से परहेज ही किया गया है।
यह नाटक उन मुसलमान युवकों की कहानी है जिन्हें आतंकवाद के आरोपों में जेलों में बंद किया गया, सालों साल झूठे मुकदमे चले, उनकी जिन्दगी नष्ट कर दी गई और बाद में जब वे निर्दोष होकर बाहर आये भी तो उनके पास निराशा और धुंआ, धुंआ जिन्दगी के सिवाय कुछ नहीं बचा था। आतंकवाद समस्या है लेकिन इसके लिए निर्दोष युवकों को शिकार बनाया जाय तथा एक कौम को कठघरे में खड़ा कर दिया जाय, यह क्या उचित है ? आग क्या आग से बुझ सकती है ? आग बुझाने के लिए पानी की जरूरत होती है। आतंकवाद से लड़िए, कौम से नहीं। आखिर दहशतगर्दी की सजा पूरे कौम को क्यों ? किसी मजहब को मानना क्या गैरकानूनी है ? मुसलमान होना क्या अपराध है ? आतंकवाद से संघर्ष की सरकार की नीति क्या सांप्रदायिकता के जहर को ही नहीं बढा रही या प्रकरांतर से आतंकवाद को ही खाद.पानी नहीं मुहैया करा रही है ? ऐसे ही सवाल हैं जिनसे यह नाटक रुबरु होता है। इस नाटक की रचना व परिकल्पना के संबंध में हमने नाटककार राजेश कुमार से बातचीत की, वह यहां प्रस्तुत है:
आपने यह नाटक कैसे लिखा?
यह अनायास नहीं लिखा गया है, न कोरी कल्पना का कोई साकार है।
फिर कैसे लिखा गया ?
मेरी एक आदत है लोगों के बीच उठने-बैठने गप्प मारने और किसी नुक्कड़ के चाय की दूकान पर बैठकर अगल-बगल के लोगों की आंच से अपने को तपाना। यह नाटक उसी भट्टी से निकला हुआ है। नाटक के जो किरदार हैं, वे मेरे लिए अपरिचित नहीं हैं। कुछ लोग ऐसे किरदारों से कन्नी काट लेते हैं, मैं उनसे जान-बूझकर किसी न किसी बहाने टकराने की कोशिश करता हूं और जब टकराता हूं तो एक फायदा होता है, कुछ न कुछ बातें तो हो ही जाती हैं। सिलसिला जब शुरू होता है तो रूकने का नाम नहीं लेता है। बढ़ता ही रहता है, सिरा खत्म नहीं होता । एक खत्म तो दूसरा शुरू...
किसी विवाद से बचने के लिए क्या डिस्क्लेमर का भी सहारा लेते हैं?
मुझे इस तरह का डिस्क्लेमर देने की जरूरत नहीं हैं। मेरा मानना है कि नाटक कोई हवा में उड़कर नहीं आया है। यह बंद आंखों से नाटक नहीं रचा गया है। खुली आंखों से और खुले दिमाग से देखा-परखा गया सच की अभिव्यक्ति है यह नाटक।
नाटक की स्टोरी लाइन कहां से मिली ?
कहने में कोई डर, हिचक नहीं है कि यह नाटक एक सच्ची घटना की बुनियाद पर खड़ा है। मेरे दोस्त इरफान के साथ ऐसा ही घटा था। शक के रेगिस्तान में उसके पांव ऐसे ही जले थे जब वह अपने मेजर दोस्त से मिलने कैंट एरिया में गया था तो आई डी कार्ड की जांच के दौरान महज मुसलमान होने के कारण एलआईयू वालों ने चार घंटे माइल्ड इन्टरोगेशन पर रख लिया। शायद यही वाकया मेरे दिलोदिमाग में कहीं न कहीं बरसों फंसा रहा। जो आगे चलकर नाटक की बुनियाद बना।
लेकिन यह घटना तो निजी हैं?
इस तरह की घटनाएं आज एक इरफान के साथ नहीं घटी है, सैकड़ो मुसलमान आज शक की बुनियाद पर जेलों के अंदर सड़ने के लिए विवश हैं। कालान्तर में काई सबूत न होने के कारण कोई-कोई तो 10 तो कोई 14 साल बाद जेल से छूट रहा है। आमिर जो चौदह साल बाद रिहा हुआ, अकेला उदाहरण नहीं हैं सैंकड़ों बेरोजगार, गरीब मुसलमान युवक हैं जो बाराबंकी, जौनपुर, आजमगढ़ से आधी रात में उठा लिये गये हैं। उनका सालों साल पता नहीं चला कि वो कहां है?
मुस्लिम समुदाय के इस पहलु पर लिखने की क्या वजह है?
इस नाटक को लिखने का उद्देश्य केवल मुस्लिम समुदाय के प्रति संवेदना जगाना नहीं हैं। केवल हमदर्दी जताना मेंरे लेखन की फितरत भी नहीं हैं। आमूमन आजकल जो हो रहा है उसमें संवेदनात्मक पक्ष ही लाया जा रहा हैं। वो पक्ष जान बूझकर हमारे सामने नहीं लाया जा रहा है जो उन पर ढाये गये जुल्मों के असली गुनाहगार हैं । उनकी नीयत भी नहीं होती है उस सच को सामने लाने की, जिसे बिना कोई सबूत के सालों साल जेल में रखा गया, उसका जिम्मेदार कौन है ? वह शख्स जिसके कारण कोई बेगुनाह जलालत और गुमनामी के लम्हें सलाखों के पीछे गुजारे ? क्या कोई उनके वो सुनहरे, बेशकीमती साल लौटा सकता है ? मेरी कोशिश है, इस नाटक के बहाने खिड़कियों के उस पार के झांकते उन चेहरों को सामने लाया जाए। लोकतंत्र पर हमले का बहाना लेकर जो नरसंहार कर रहे हैं, जनभावनाओं को संतुष्ट करने के नाम पर टेरर पालटिक्स कर रहे हैं, उन्हें आगाह करें कि आग कभी आग से नहीं बुझ सकती। पानी की जरूरत होती है। आंतकवाद से लड़िए समुदाय से नहीं। आखिर दहशतगर्दी की सजा पूरे कौम को क्यों ? किसी मजहब को मानना गैरकानूनी है ? क्या मुसलमान होना सबसे बड़ा अपराध है?
क्या इस नाटक की कोई पालटिक्स है?
हर नाटक अपनी पालटिक्स करता है और होनी भी चाहिए। जो कहते हैं मेरे नाटक का किसी पालटिक्स से ताल्लुक नहीं है वो सबसे बड़े पालटिक्स करने वाले होते है। मेरे नाटक का पालटिक्स होता है सच को उजागर करना, जो परदे में है, अंधेरे में है। उसे प्रकाश में नही लाया जा रहा है, जानबुझकर उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। आवाम से जुड़े सवाल जिस पर लोग बात करने से कतराते है, उस पर गौर फरमाने के बजाए आजू-बाजू की चीजो का जिक्र करने लगते है, मेरे नाटक का पालटिक्स होता है उसे जानबूझकर लाना।
आजकल राजनितिक पार्टिया भी ऐसे सवाल उठाती रहती है?
उनका मकसद कुछ और होता है। उनके लिए मुसलमान भी दलितों की तरह ही एक वोट कार्ड है। उनके लिए मुसलमान महज वोट है जिसे चुनाव के समय झाड़-पोछ के बाहर निकाला, वोट लिया और जब काम निकल गया उसे उसी अंधेरी दुनिया में सड़ने के लिए छोड़ दिया जहां रोशनी की नन्हीं सी किरण भी दाखिल नहीं हो पाती है।
पिछले दिनों में आपने दलित अस्मिता पर नाटक लिखा, अब मुस्लिम सवाल पर, क्या इसके पीछे राजनैतिक कारण है?
सवाल दलित, मुस्लिम का नहीं हैं मुझे तो जहां भी असमानता, भेदभाव, शोषण, उत्पीड़न दिखेगा, वहां मैं उपस्थित रहूंगा। मैं इस मामले में खुद को प्रेमचंद के करीब पाता हूं। मैने हमेशा अपना नाट्य लेखन उन शोषित-पीड़ित लोगों के लिए लिखा है, उनकी लड़ाई को तेज करने के लिए किया है। मैं उनकी जाति का नहीं हूं, उनके मजहब का नहीं हूं इसलिए तटस्थ बना रहूंगा ये मेरे आइडियालाजी में नहीं है। जहां भी दमन होगा, वहां मैं प्रतिरोध में नाटक लिखता रहूंगा। जहां भी असमानता होगी, मेरे नाटक के पात्र उसके खिलाफ बोलते रहेगे।
प्रस्तुति: कौशल किशोर
मो - 9807519227