कैलाश दहिया / प्रेम कुमार मणि के प्रक्षिप्त लेखन से शुरू हुई बात इनके द्वारा धमकी के रूप में सामने आई है। खैर, आगे बात की जाए।
असल में हुआ क्या है, महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की आलोचना की किताब 'कबीर के आलोचक' (1997) से शुरू हुई बहस से हिंदी साहित्य में तूफान खड़ा हो गया था। जो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। इस में एक- एक करके सारे द्विज लेखक और उन के गुलाम मिट्टी में मिलते चले गए। यह पहले दिन से ही बता दिया गया था कि दलित किसी ब्राह्मण व्यवस्था या धर्म के गुलाम नहीं। ना ही वे इसे मानते। हां, जब तक उनका धर्म सामने नहीं आ जाता तब तक वह "दलित" को ही धर्म के रूप में माने। कबीर भी दलित हैं, तभी उन्होंने 'ना हिंदू ना मुसलमान' का उदघोष भी किया है। बहस या विमर्श अपने चरम पर था। एक के बाद एक कबीर पर डॉ. साहब की किताबें आ रही थीं। ऐसे में गैर दलितों की तरफ से सवाल आना ही था कि कबीर का धर्म क्या है। तब डॉ. साहब ने साल 2003 में लिखा कि कबीर पर 'अगली तीसरी सीरीज का शीर्षक महान आजीवक कबीर' होगा। कितना अच्छा होगा कि 'महान आजीवक कबीर' में किसी की आलोचना नहीं है।' ( देखें, सूत ना कपास, डॉ. धर्मवीर, प्रथम संस्करण : 2003, वाणी प्रकाशन, 21ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110002, भूमिका से) डॉ. साहब की इस घोषणा से एकदम से चुप्पी छा गई। ब्राह्मण को तो समझ में आ गया कि दलित अपने मूल तक पहुंच गया है वह दम साध कर बैठ गया। फिर, ब्राह्मण तो प्रक्षिप्त लिखने में तो माहिर है ही। अश्विनी कुमार पंकज का मगही बोली में मक्खलि गोसाल पर लिखा गया पुराण 'आजीवक आंदोलन' को प्रक्षिप्त करने के लिए ही गढ़ा गया है।
दलित आजीवक हैं डॉ. साहब की इस घोषणा से नवबौद्धों की तो नींद ही उड़ गई है। उधर, ब्राह्मण के जरखरीद गुलाम और नाम के भूखे कुछ दलित डॉ. साहब से कुछ सीखने की बजाए आजीवक पर लिखने का दावा करने लगे। इन में कंवल भारती और ईश कुमार गंगानिया के नाम से सभी परिचित हैं।आजीवक चिंतन में ऐसे लोगों की पहचान 'मुनाफ़िक' के रूप में की गई है। जबकि सच यह है कि डॉ. धर्मवीर की पिछले साल आई किताब ' महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल' के आने के बावजूद अभी तक आजीवक इन जैसों की समझ नहीं आया है। उधर, पिछड़े तो आजीवक को हड़पने की ही फेर में जुट गए। इस तिकड़म के सर्वेसर्वा के रूप में ही प्रेम कुमार मणि का चेहरा सामने आया है।जब इनकी इस तिकड़म का खुलासा किया गया तो ये मक्खलि गोसाल के संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करने की बात लिख कर प्रक्षिप्त रचने में लग गए। इसमें भी पीट गए तो गोसाल और धर्मवीर को विक्षिप्त कहने लगे।
इन की गलतफहमी का अंदाजा इन के इस कथन से लगाया जा सकता है, ये लिखते हैं -"मैंने समझा था, उनके साथ (दिवंगत डॉ. धर्मवीर) उनके चेलों की भी विदाई हो गई होगी। किंतु नहीं, वे हैं इसकी जानकारी अब जाकर हुई। इसे मैं अपनी पोस्ट की उपलब्धि मानता हूं। इसी अभियान में यह भी ज्ञात हुआ कि धर्मवीर समूह जाने- अनजाने संघ द्वारा गाइड हो रहा है।" इन की इस लिखत से यह तो सिद्ध हो गया कि ये जार कंवल भारती द्वारा संचालित हैं। कंवल भारती ने प्रेम कुमार मणि की 27 अप्रैल, 2018 की पोस्ट में इनकी वॉल पर इन्हें सलाह दी है, 'मणि जी इस दहिया को आरएसएस के संविद पात्रा के रूप में देखें।"
यहां मनीष कुमार चांद जी का कथन ध्यान देने योग्य है। वे लिखते हैं, 'हम नहीं समझते थे कि आप इतने कमजोर हैं तार्किक रूप से कि दूसरे को संघी तक कहने का सहारा लेना पड़ेगा। यह आपका अंतिम हथियार है मुझे महसूस हो रहा है।' ( देखिए, प्रेम कुमार मणि की वाल पर मनीष कुमार चांद की टिप्पणी) अब अगली बात, प्रेम कुमार मणि और इनके जैसों की डॉ. धर्मवीर का सामना करने की तो हिम्मत थी नहीं। जब डॉ. साहब नहीं रहे रहे तो इन जैसों ने सोचा अब मैदान खाली है। जो चाहे बोलो कोई रोकने वाला है तो है नहीं। तब यह प्रक्षिप्त पर उतर आए हैं। अब पकडे जाने पर बौखला रहे हैं।
इन की ऐसी सोच पर माथा पीटने का मन करता है। बताया जाए, सुकरात और ईसा मसीह के ना रहने पर उनके भी किसी विरोधी ने ऐसे नहीं सोचा होगा। फिर यहां तो धर्मवीर हैं अर्थात धर्म के वीर योद्धा। क्या डॉ. साहब के ना रहने पर उन के विचार भी उन के साथ चले गए? दरअसल ऐसी सोच सामंत और उस के गुलामों की होती है। क्या मार्क्स के मरने पर मार्क्स के विचार मर गए? फतब मार्क्सवाद क्या है? ऐसे ही डॉ. साहब के ना रहने पर अब धर्मवीरवाद श शुरू हो चुका है। धर्मवीरवाद की सबसे बड़ी खासियत यही है कि इस में जार की शक्ल एकदम से दिखाई देने लगती है।
ये लिख रहे हैं, 'इस जमाने में कोई बुद्धिजीवी जारज और पवित्र की बात कर रहा हो, तो यही कहना पड़ेगा वह बुद्धिजीवी कम, विक्षिप्त अधिक है।' तो यह इनके अंतर मन की असली सोच। मक्खलि गोसाल को तत्कालीन समय में बुद्ध, महावीर और ब्राह्मण ने इसी लिए विक्षिप्त कहा। क्योंकि वे जार संबंधों का विरोध कर रहे थे और विवाह के पक्ष में थे। आज यही बात डॉ. धर्मवीर कह रहे हैं। इस रुप में डॉ. साहब अपनी परंपरा से जुड़ते चले जाते हैं।
महान मक्खलि गोसाल ने हालाहला से विवाह किया था। उधर, बुद्ध और महावीर विवाह के विरोध में सन्यास की ब्राह्मणी परंपरा में थे। जिस में आज आसाराम, रामरहीम, रामपाल और प्रेमकुमार मणि ताल ठोक रहे हैं। बताइए ये जारज संबंधों यानी जारकर्म का समर्थन कर रहे हैं। अपने पत्र में मैंने इनकी जार के रूप में सही पहचान की है।
अब जरा इन्हें इस जमाने के जारज संबंधों की भी थोड़ी जानकारी दे दी जाए, ताकि इन के दिमाग की नसें खुल सके और इनके भ्रम दूर हो सकें। हो सकता है इन्हें अपना मंतव्य बदलने में मदद मिले। एक खबर के अनुसार, दिल्ली के 'सराय रोहिल्ला में मंगलवार सुबह युवक ने अवैध संबंध के शक में पत्नी की गला घोंटकर हत्या कर दी और शव घर में ही गाड़ दिया।... आरोपी ने पूछताछ में बताया कि उसे शक था की पत्नी सविता के एक युवक से संबंध हैं।'( देखें, युवक ने पत्नी की हत्या कर शव घर में गाड़ दिया, हिंदुस्तान, दिल्ली संस्करण, 02 मई, 2018, पृष्ठ 4,) बताया जा सकता है, जारकर्म पर हत्याओं के लिए इन जैसी सोच वाले ही जिम्मेवार हैं। पता नहीं ये किस जमाने की बात कर रहे हैं? इन्हें इस जमाने में की एक और सच्ची ख़बर बताई जाए, जिस में लिखा है -"दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में पत्नी के चरित्र पर संदेह से हुए पारिवारिक झगड़े के बाद पति ने हथौड़े से पीट-पीटकर पत्नी की हत्या कर दी।... पुलिस अधिकारी के मुताबिक... वह उसके चरित्र पर संदेह करता था।"( देखें, मंगोलपुरी में हथौड़े से पत्नी की हत्या का आरोप, हिंदुस्तान, दिल्ली संस्करण, 22 अप्रैल, 2018, पृष्ठ 4) कोई इन से पूछे, यह आज और कल का समय क्या होता है? गोसाल के समय भी जार संबंधों के कारण मृत्यु के भय से लोग भिक्षु, मुनि और संन्यासी बन रहे थे आज भी इन की संख्या की गिनती नहीं हैं। ऊपर बताई खबरों में जार संबंधों के कारण पत्नी की हत्या हुई है अन्यथा तो जारिणी अपने जारों के साथ मिल कर पति को मरवा देती है।
इन्हें इस जमाने की एक अन्य खबर बताई जाए, जो सच में इनके अनुसार इस जमाने की है। इस जमाने में लिव इन रिलेशन में रह रहे एक व्यक्ति ने अपने पार्टनर को इसलिए मार डाला, क्योंकि उसे शक था कि वह किसी और के साथ अवैध संबंध में है। खबर के अनुसार- "दक्षिण पूर्व दिल्ली पुलिस ने लिव - इन पार्टनर और उसके बेटे की गला रेतकर हत्या करके फरार हुए आरोपी को 29 अप्रैल को झारखंड से गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस का दावा है कि अवैध संबंध के शक में दोहरे हत्याकांड को अंजाम दिया।...आठ माह से दोनों पति-पत्नी की तरह जीवन कैंप में रह रहे थे। मगर अवैध संबंधों के शक में उसने उसकी हत्या कर दी।" (देखें, अवैध संबंधों के शक में मां-बेटे को मार डाला था, हिन्दुस्तान, दिल्ली संस्करण, 05 मई, 2018, पृष्ठ 4) यह यह हकीकत है इनके इस जमाने की। पता नहीं कौन सी दुनिया में रहते हैं? नवबौद्ध संजय श्रमण जोठे भी आंखें खोल कर देख लें। इन्हें भी कुछ-कुछ मणि जी जैसे वहम हुए जाते हैं।
जहां तक जहां तक दलित महिलाओं रजनी तिलक, विमल थोराट और अनीता भारती द्वारा डॉ. साहब पर जूते-चप्पल चलाने की बात है तो बताया जा चुका है ये महिलाएं रमणिका गुप्ता, नामवर सिंह और राजेंद्र यादव जैसों की सीख में थीं। ये सभी जारकर्म के समर्थक हैं। इनमें अब एक नाम इन का भी जुड़ गया है। दरअसल यह तीनों महिलाएं इतिहास की अभिशप्त पात्राएं हैं।डॉ. धर्मवीर के साथ इन तीनों जारकर्म की समर्थक महिलाओं के नाम भी याद रखे जाने हैं।
दरअसल सामंत के मुंशी की 'कफन' कहानी में डॉ. साहब ने प्रतिस्थापित किया था कि बुधिया के गर्भ में गांव के जमीदार के लौंडे का भ्रूण था। जिस के प्रसव को 'घीसू- माधव' ने इंकार कर दिया। बुधिया प्रसव पीड़ा में ही मर गई। ये तीनों स्त्रियां द्विजों के सीखाए में आ कर डॉ. साहब पर जूते चप्पल चलाने जैसा कु-कृत्य कर बैठी। ये मानने को ही तैयार नहीं थी कि बुधिया जारकर्म में थी। यहां आज की बुधिया का एक केस सामने रखा जा रहा है। दिल्ली के हिंदुस्तान में प्रकाशित खबर के अनुसार -"मंगोलपुरी इलाके में एक पिता ने शनिवार को अपने दो माह के बेटे को गला घोंट कर मार डाला। उसे अपनी पत्नी के चरित्र पर शक था। उसको लगता था कि बेटा उसका नहीं है।"( देखें, पत्नी पर शक में दो माह के बेटे को मार डाला, हिंदुस्तान, दिल्ली संस्करण, 22 अप्रैल, 2018, पृष्ठ 4) असल में, यह पिता माधव ही है। कफन कहानी में तो माधव ने बुधिया को प्रसव पीड़ा में ही मरने को छोड़ दिया था। क्योंकि उसे पता था कि गर्भ में उस की संतान नहीं है।
तो यह है आज की बुधिया की हत्या की खबर। असल में, ज्यादातर ऐसे केसों में बुधिया अपने जार या जारों के साथ मिल कर अपने पति को मरवा देती है। ऐसी खबरों से अखबार भरे रहते हैं। यही द्विज परंपरा है। ऐसे मरने से बचने के लिए बुधिया के पति भिक्षुक, मुनि और संन्यासी बन जाते हैं, अन्यथा उनकी हत्या या आत्महत्या निश्चित है। मानसिक अवसाद और पागलपन इस से जुड़ी बीमारियों के नाम हैं।
इन के यह कहने में कोई दम नहीं है कि 'कोई अनुसूचित जाति में पैदा ले लेने से दलितों का उद्धारक नहीं हो जाता काम से होता है।' इन की माने तब तो दलितों के सबसे बड़े उद्धारक गांधीजी ठहरते हैं। वह दलितों के नेता होने की ताल भी ठोकते हैं लेकिन, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर उन्हें रत्ती भर भी तवज्जो नहीं देते। अब जरा ये किसी एक गैर दलित का नाम बता दें जिस ने दलित हित में काम किया हो? वैसे, क्या इन्हें पता है कि दलित की समस्या क्या है? जब समस्या का ही नहीं पता तो दलित के लिए काम करने के बाद महज गाल बजाना है।
इन्होंने मानवता के लिए काम किया है, इस के लिए इन्हें शाबाशी मिलनी ही चाहिए। पर जरा यह तो बता दें कि मानवता किस चिड़िया का नाम है? इस देश में दलितों को मानव ही भी नहीं समझा जा रहा तो मानवता तो दूर की कौड़ी है। हो सकता है वियतनामी और नेपाल के लोगों ने इन्हें को अपना नेता मान लिया हो, लेकिन ये दलितों का नेता बनने की बात अपने दिमाग से निकाल दें। हां, गैर- दलित दलितों के आंदोलन का समर्थक जरूर हो सकता है नेतृत्व स्वामी अछूतानंद और बाबू मंगूराम के बालकों के हाथ में ही रहना है। यहां हम उस दलित को भी नेतृत्व नहीं देने वाले जो ब्राह्मणी से विवाह रचा बैठते हैं। उधर, पिछड़े वर्ग के किसानों द्वारा दलितों पर कहर ढाने की खबरें किसी से छुपी हुई नहीं हैं।
डॉ. धर्मवीर कहते, 'गांधी के दलित के समर्थन में बोलने (केवल बोलने) का अर्थ है कि इन के समक्ष हमारा कोई दलित चिंतक अवश्य रहा है। तभी द्विजों को दलित की बात करनी पड़ती है।' यह सही है कि गांधी जी के सामने स्वामी अछूतानंद थे जिनकी परंपरा में डॉ. अंबेडकर हैं ही। यही गांधी जी की दलित के समर्थन में बोलने की मजबूरी बन गई थी। डॉ. साहब बताते हैं, ऐसे ही बुद्ध की उस समय अछूत के पक्ष में बोलने की केवल बोलने की मजबूरी बन गई थी। इसी सिद्धांत पर चलकर डॉ. साहब ने अपने महान आजीवक पूर्वज मक्खलि गोसाल को ढूंढ निकाला। डॉ धर्मवीर ने गोसाल के नियति के सिद्धांत सहित उन के अवण्णवाद, संसार सुद्धि, नो धमो ति, नो तवो ति, नत्थि पुरस्कारे जैसे अ-बूझ सिद्धांतों की व्याख्या भी की।
यह सही है कि डॉ.साहब से पहले ए.एल.बाशम, बी. एम. बरुआ, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय जैसे विद्वानों ने काम करने की कोशिश की। लेकिन, ये सभी विद्वान मक्खलि गोसाल और उनके सिद्धांतों को समझने में असमर्थ रहे। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर भी आजीवक को नहीं समझ पाए।जैसे आज गांधीवाद के रास्ते कोई अंबेडकरवाद को समझना चाहे तो उसे अंबेडकर कहां समझ में आने वाले हैं। ऐसे ही बुद्ध के रास्ते कोई गोसाल को कैसे समझ सकता है? यही बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की सीमा रही। इसीलिए वे 'नियति' को नहीं समझ पाए। नियति का अर्थ ही है पुनर्जन्मवाद का खात्मा। उधर बुद्ध पुनर्जन्म के सिद्धांत के पितामह ठहरते हैं। इसी क्रम में यह बताया जा सकता है, अगर कोई प्रेम कुमार मणि, रजनी तिलक, कंवल भारती, अनीता भारती जैसों के प्रक्षिप्त के माध्यम से डॉ. धर्मवीर को जानना चाहेगा तो वह तो यही कहेगा जो मणि महोदय कह रहे हैं। बाशम, बरुआ और चट्टोपाध्याय की सीमाएं है। ये ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनों के आजीवकों पर लिखे प्रक्षिप्त को पढ़ कर लिख रहे हैं।
यह तो अच्छा हुआ कि डॉ धर्मवीर ने विपुल साहित्य लिख दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी घरकथा 'मेरी पत्नी और भेड़िया' में अपने साथ हुए जारकर्म के अपराध का खुलासा कर दिया अन्यथा तो कंवल भारती और मणि जैसे पता नहीं क्या-क्या अंट-शंट बकते। इन से पहले अपनी गलती मानते हुए मुद्राराक्षस दिवंगत हो चुके हैं।
एक कहावत है उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। यह कहावत प्रेम कुमार मणि जी के ऊपर ज्यों की त्यों लागू होती है। बताइए, ये डॉ. धर्मवीर को देवदत्त कह रहे हैं, जबकि मेरी पत्नी और भेड़िया के माध्यम से डॉ. साहब ने देवदत्तों को पकड़ने की मुहिम छेड़ी हुई थी। आजीवक विमर्श का केंद्रीय सवाल ही देवदत्तों को ढूंढना है। इसी कड़ी में यह भी हमारे हाथ आए हैं असल में जो काम बुद्ध को करना चाहिए था उसे डॉ. धर्मवीर ने अंजाम दिया है। यह देवदत्त ही थे जिनसे बुद्ध अपनी जान बचाते घूम रहे थे। पूछा जा सकता है बुद्ध ने अपने तथाकथित धम्म में यशोधरा और अपने चचेरे भाई देवदत्त को शामिल क्यों नहीं किया? आजीवक विमर्श में पुरातन से लेकर आधुनिक देवदत्तों को पकड़ने का अभियान जारी है। इन देवदत्तों को ही तो सजा दी जानी है ताकि किसी को बुद्ध ना बनना पड़े।
ये लिख रहे हैं, 'मक्खलि पर आधिकारिक काम करने के लिए पाली भाषा की जानकारी अपेक्षित है।' ये ऐसे लिख रहे हैं मानो मक्खलि गोसाल पाली भाषा में प्रवचन करते थे। ब्राह्मण भी ऐसे ही कहता फिरता है कि ब्राह्मणी चिंतन को समझने के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी अपेक्षित है। असल में, ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनियों ने अपनी- अपनी भाषा में गोसाल के बारे में झूठ पर झूठ बोले हैं। हम आजीवक इन झूठों की कहां सुनने वाले हैं। गोसाल का चिंतन रैदास और कबीर के माध्यम से हमारे पास आता है। जिसे दलित के सिवाय कोई समझ ही नहीं सकता। द्विजों के प्रक्षिप्त में से डॉ.धर्मवीर ने गोसाल के सूत्र हमारे सामने रखे हैं। ये हैं कि ब्राह्मण के लिखे पुराण पर लहालौट हो रहे हैं।
ब्राह्मण की तरह ये भी सोच रहे हैं कि इन का लिखा-कहा ब्रह्म वाक्य है, उसके आगे दुनिया खत्म हो जाती है। तभी इन्होंने लिखा है, 'मैंने समझा था बात खत्म हो गई। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।' बताइए, ऐसा कैसे हो सकता है, ये प्रक्षिप्त पर प्रक्षिप्त गढ़ते जा रहे हैं जा रहे हैं। दूसरों को विक्षिप्त कह रहे हैं और मान रहे हैं कोई इन्हें इसके लिए टोकेगा नहीं। बताया जा सकता है, आजीवक चिंतन में प्रक्षिप्त के खिलाफ ही तो महायुद्ध चल रहा है।
उधर, बुद्ध से कोई पूछता कि उन्होंने घर क्यों छोड़ा, तब भी उसका क्या जवाब देते? कुछ उन के निर्वाण के बहकावे में आ जाते लेकिन कुछ सच जानने को अडिग थे। बुद्ध ने ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखी और अपने चेले- चपाटों को भी उन से दूरी बनाए रखने की सलाह दी। आज उन के चेले- चपाटे सोचते हैं कि वह कठोर शब्दों के प्रयोग से सच को छुपा देंगे।
इन्होंने लिखा है, 'बुद्ध पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर उन मित्रों के लिए विभ्रम से मुक्त होने की प्रार्थना कर रहा हूं।' यूं इस प्रार्थना के तीन हिस्से हैं -
1. क्या बुद्ध खुद अपने विभ्रम से मुक्त हो गए थे?
2. क्या प्रेम कुमार मणि अपने विभ्रम से मुक्त हो गए हैं? और
3. एक जारकर्म समर्थक की प्रार्थना का क्या अर्थ है ?
अब बताया जा सकता है, जिस वजह से बुद्ध ने घर छोड़ा और निर्वाण का भ्रम पाल बैठे उस से वे मरते दम तक पीछा नहीं छुड़वा सके। ऐसे ही मणि जी आजीवक विमर्श के घेरे में फंस चुके हैं। इनका जारकर्म समर्थक चेहरा सारी दुनिया के सामने उघड़ आया है। तभी पूछा जा रहा है जार की प्रार्थना किसके लिए होती है।
जिस प्रकार महान मक्खलि गोसाल को द्विजों ने विक्षिप्त कहा उन्हीं की सीख में प्रेम कुमार मणि महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर को विक्षिप्त कह रहे हैं। इससे आप गोसाल और धर्मवीर के चिंतन की ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं। इस के साथ ही बढ़ते यौन अपराधों की वजह भी समझ सकते हैं। बताइए, गोसाल और धर्मवीर को विक्षिप्त कहा जा रहा है और तो और सख्त शब्दों की धमकी भी दी जा रही है, तभी कबीर साहेब को कहना पड़ा 'संतो' बोले तो जग मारै।' (यह लेखक के अपने विचार है )
*लेखक चर्चित कवि एवं आलोचक है